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...फुर्सत के रात-दिन

जिंदगी को फुर्सत की जरूरत काम से कुछ कम नहीं है, लेकिन बेहिसाब ख़्वाहिशें यह बात समझने नहीं देतीं। जो समझते हैं वे तमाम व्यस्तताओं के बावजूद समय निकालते हैं और इसे एक उत्सव की तरह मनाने के नित नए तरीके भी ईजाद कर लेते हैं। इन्हीं तौर-तरीकों पर एक

By Edited By: Published: Tue, 21 Apr 2015 11:00 AM (IST)Updated: Tue, 21 Apr 2015 11:00 AM (IST)
...फुर्सत के रात-दिन

जिंदगी को फुर्सत की जरूरत काम से कुछ कम नहीं है, लेकिन बेहिसाब ख्वाहिशें यह बात समझने नहीं देतीं। जो समझते हैं वे तमाम व्यस्तताओं के बावजूद समय निकालते हैं और इसे एक उत्सव की तरह मनाने के नित नए तरीके भी ईजाद कर लेते हैं। इन्हीं तौर-तरीकों पर एक नजर इष्ट देव सांकृत्यायन के साथ।

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अपने शौक पूरे करने से लेकर सपनों का संसार बसाने और आराम से जीने भर के लायक धन कमाने तक के लिए काम करना तो सभी चाहते हैं, पर काम के साथ-साथ फुर्सत की चाहत भी सबके भीतर होती है। फुर्सत की चाहत का यह मतलब बिलकुल नहीं कि 'आराम बडी चीज है, मुंह ढक के सोइए वाली पोजीशन में आ जाएं। हालांकि हो सकता है कि कुछ लोगों के लिए यह मतलब भी हो और वैसे भी दिन-रात पसीना बहाते इंसान के लिए जरा से आराम की चाहत कोई गुनाह थोडे ही है। बहुत लोगों के लिए आराम का मतलब भी मुंह ढक के पड रहना नहीं होता। उनके लिए इसका मतलब बस घर में बैठे-बैठे कुछ-कुछ करते रहना होता है। कुछ-कुछ यानी कभी किसी कमरे को नए सिरे से सजाना तो कभी कोई किताब पढऩा, बहुत दिनों से अधूरी पडी किसी पेंटिंग को पूरा करने की कोशिश या हारमोनियम-तबला लेकर बैठ जाना, किसी भूली-बिसरी धुन पर सिर धुनना और कोई सिरा पकड में आ जाने पर उसी की मस्ती में खो जाना...। ऐसा कुछ भी या इससे भी भिन्न कुछ और, बस घर में बैठे-बैठे करते रहना।

कुछ लोगों के लिए फुर्सत का मतलब चार दीवारों के दायरे से थोडा आगे बढकर बाहर निकल कर कुछ करना होता है। यह किसी बाजार या मॉल में जाकर शॉपिंग करना हो सकता है, किसी अजीज दोस्त या रिश्तेदार से मिलना हो सकता है, किसी स्पोट्र्स क्लब में जाकर दो-चार हाथ आजमाने की कोशिश हो सकती है, कोई हॉबी क्लास ज्वाइन करना हो सकता है या फिर कुछ और...। कुछ लोग योग या ध्यान के शिविर में चले जाते हैं, शरीर और मन दोनों को हलका करने, दोनों के विष निकाल कर खुद को बिलकुल नया कर लेने के लिए। जिसकी जैसी भी पसंद हो, उसी के अनुरूप वह अपने लिए अपने दैनिक रुटीन से अलग हटकर कोई काम ढूंढ लेता है। ऐसा काम जो उसे उसके रोज के टाइट शेड्यूल से थोडा ढीला होने का मौका देता है। यह ढीला होना उसके लिए ऐसे ही होता है जैसे दिन भर की भागदौड के बाद पांव पसारना।

फुर्सत यानी कुछ और

लेकिन कुछ लोगों के लिए फुर्सत का मतलब यह सब भी नहीं होता। उनके लिए फुर्सत का मतलब सिर्फ छुट्टियां होता है। छुट्टियां अगर थोडी लंबी हों यानी हफ्ते-दो हफ्ते का समय मिल जाए तो बहुत अच्छा, वरना एक-दो दिन की त्योहारी छुट्टी ही मिले तो भी चलेगा। एक-दो दिन अगर कहीं सैटरडे-संडे से जुडे मिल जाएं तब तो कहने ही क्या! वे इतनी सी छुट्टी पाकर भी बेहिसाब खुश होते हैं। अव्वल तो ऐसी छुट्टियों का इंतजार वे महीनों पहले से कर रहे होते हैं और उसी हिसाब से अपने कार्यक्रम सुनिश्चित कर ट्रेन या प्लेन टिकट से लेकर निकट या दूर के किसी शहर या कसबे में होटल तक की बुकिंग करवा चुके होते हैं। इंतजार केवल वह तारीख आने का होता है और उसके आते ही सारी कामकाजी थकान को धता बताते हुए चल पडते हैं। कुछ लोग यह काम गु्रप में करते हैं तो कुछ अकेले और कुछ परिवार के साथ।

हफ्ते-दो हफ्ते की छुट्टियां तो ऐसे लोगों के लिए बडी नेमत होती हैं। और हां, छुट्टियां वाकई नेमत होती हैं। ये आपको सिर्फ मानसिक सुकून ही नहीं देतीं, आपकी रचनात्मक क्षमता को बढाती हैं और अर्थव्यवस्था के विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। बीते साल ऑक्सफोर्ड इकोनॉमिक्स द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार इससे न केवल व्यक्ति की रचनात्मक क्षमता बढती है, बल्कि अपनी पेशेवर नैतिकता के प्रति लोग ज्यादा कटिबद्ध हो जाते हैं और कंपनियों को अपने अच्छे कर्मचारियों को बचाए रखने में मदद भी मिलती है। सीधे कंपनी और व्यापक अर्थव्यवस्था दोनों को मिलने वाले इन फायदों को केवल प्रबंधक ही नहीं, अर्थशास्त्री भी स्वीकार करते हैं। इसकी सबसे बडी वजह यह है कि छुट्टियां कार्य और जीवन के बीच संतुलन बनाने में सबसे ज्यादा मददगार होती हैं।

लुत्फ उठाने में हम पीछे

यह बात हमारे देश में बहुत लंबे समय से समझी जाती है, लेकिन आज की स्थिति यह है कि इस मामले में भारत सबसे ज्यादा वंचित देशों की श्रेणी में गिना जाता है। छुट्टियों का लाभ न उठा पाने वाले देशों में भारत चौथे नंबर पर है। ऐसा तब है, जबकि परिवार संस्था हमारे यहां सबसे मजबूत स्थिति में है और लोग पारिवारिक जिम्मेदारियां निभाने के मामले में दूसरे देशों की तुलना में कहीं अधिक गंभीर और संवेदनशील माने जाते हैं। गंभीरता और संवेदनशीलता के इस दायरे में छुट्टियों का सार्थक उपयोग यानी परिवार को क्वॉलिटी टाइम देना भी आता है। क्वॉलिटी टाइम का यह अर्थ बिलकुल नहीं कि वह सिर्फ कामकाज या स्वास्थ्य के मामले में मदद या देखभाल तक सीमित हो। क्वॉलिटी टाइम का आशय यहां उस समय से है जो सिर्फ परिवार के लिए हो, बाकी दुनिया की सारी फिक्र छोडकर। यह पूरे परिवार के एक साथ किसी उत्सव में शामिल होने से लेकर सैर-सपाटा, मौज-मस्ती और खेलकूद तक कुछ भी हो सकता है। लेकिन परिवार संस्था की मजबूत स्थिति वाले देशों का छुट्टियों के मामले में सबसे पिछडा गिने जाना आश्चर्यजनक है। जापान, जो कि परिवार की व्यवस्था के मामले में भारत जैसा ही मजबूत समझा जाता है, सर्वाधिक वंचित देश है। यह गौर करने की जरूरत है कि ऐसा क्यों है? लगभग ऐसी ही स्थिति अमेरिकी कर्मचारियों की भी है। वहां 40 प्रतिशत लोग अपनी छुट्टियों का कोई सार्थक इस्तेमाल ही नहीं कर पाते।

मजबूती की कमजोरी

कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी मजबूती ही हमारी कमजोरी का बडा कारण भी हो! अगर उन कारणों पर गौर करें, जो हमारे लिए छुट्टियों के सार्थक उपयोग में बाधक बनते हैं, तो कुछ ऐसी ही बातें सामने आती हैं। छुट्टियों को हमारे यहां अधिकतर सैर-सपाटे से जोड कर देखा जाता है। इससे मनोदशा में बदलाव तो होता ही है, देश-विदेश की सभ्यता और संस्कृति की जानकारी भी मिलती है। लौट कर लोग खुद को ज्यादा ऊर्जावान महसूस करते हैं और नए उत्साह के साथ अपने रुटीन काम में जुट जाते हैं। जरूरी किस्म की छोटी या व्यावसायिक यात्राओं की बात अलग है, लेकिन आम तौर यह देखा जाता है कि लोग लंबी यात्राओं पर पूरे परिवार के साथ ही जाना चाहते हैं। इसकी कई वजहें हैं। माना जाता है कि इससे सफर का मजा बढ जाता है। पूरे परिवार के एक साथ कहीं पर्यटन पर जाने से समग्रता में बजट भी संतुलित रहता है। आजकल कई कंपनियों के ऐसे ट्रेवल पैकेज उपलब्ध हैं जो पूरे परिवार के साथ कहीं आने-जाने पर कई तरह की रियायतें देती हैं। ये रियायतें किराये से लेकर ठहरने-खाने तक के बिल पर मिलती हैं। किसी ऐतिहासिक स्थल या वाइल्ड लाइफ सैंक्चुरी में जाने पर गाइड का खर्च भी कम पडता है। लेकिन वास्तव में सैर-सपाटे में छुट्टियों का लुत्फ ढूंढने वालों के लिए यही एक बडी मुश्किल भी है। जिनके बच्चे बडे हो गए हैं और कोई खास कोर्स कर रहे हैं या पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं, ऐसे परिवारों के सभी सदस्यों को एक साथ छुट्टी मिल पाना मुश्किल होता है। माता-पिता को छुट्टी मिले तो बच्चों की पढाई चल रही होती है और बच्चों की छुट्टियां होने पर पेरेंट्स के लिए छुट्टी मिल पाना मुश्किल हो जाता है। कई बार जब सबको छुट्टियां मिल पाती हैं, तब लोग जहां जाना चाहते हैं, उस क्षेत्र का मौसम साथ नहीं देता। ऐसे मामलों में उपाय यही है कि ऐसे समय में छुट्टियां मनाने की कोशिश ही न करें, जब अधिकतर लोग अवकाश पर जा रहे हों। ऐसा समय चुनें जब पढाई-लिखाई का दौर थोडा हलका चल रहा हो और दफ्तरों में सभी को अवकाश की जरूरत न हो। इसके दो फायदे होते हैं एक तो ऐसे समय में ऑफिस व स्कूल दोनों ही जगहों से आसानी से छुट्टियां मिल सकती हैं और दूसरे सीजन ऑफ होने के नाते आपका ट्रेवल पैकेज हॉट सीजन की तुलना में काफी सस्ता भी पडेगा।

वीकेंड ट्रेवल का विकल्प

कुछ सैलानी तबीयत के लोगों ने इसका एक दूसरा उपाय भी निकाल रखा है। वह यह है कि जब सबके साथ जा सकेंगे, जरूर जाएंगे। बीच में अगर शनिवार-रविवार के साथ जुड कर कोई छुट्टी मिल जाए तो क्या कहने। न किसी की सिफारिश और न कोई झिकझिक। न भी मिले तो कोई बात नहीं, एक-दो दिन के अवकाश तो मिल ही जाते हैं। फिर चल पडे किसी कम दूरी वाले ही डेस्टिनेशन पर। पूरा परिवार साथ न भी जा सके तो अकेले सही या फिर कुछ दोस्तों का साथ भी चल सकता है। आजकल सस्ती एयरलाइनों ने लंबी दूरी के डेस्टिनेशंस को भी वीकेंड सैलानियों की पहुंच में ला दिया है। अब यह किसी की पसंद और स्थितियों पर निर्भर है कि वह कैसे और कहां जाना और क्या करना पसंद करता है।

सेहत के लिए

एक वर्ग हेल्थ कॉन्शियस लोगों का भी है। इन्हें रोज का मॉर्निंग वॉक, ध्यान या स्पोट्र्स एक्टिविटीज या तो काफी नहीं पडतीं या फिर वे नियमित कर ही नहीं पाते। ऐसे लोग अपनी लंबी छुट्टियों का इस्तेमाल इसी काम में करते हैं। जरूरी नहीं कि योग-ध्यान या पंचतत्व थेरेपी के लिए ऋषिकेश या केरल ही जाएं, देश के दूसरे हिस्सों में भी अब ऐसे कई केंद्र हैं जो योग-ध्यान के लिए सभी सुविधाओं के साथ-साथ अच्छे पैकेज भी देते हैं। कुछ ऐसा ही केरल से लोकप्रियता हासिल करने वाले पंचतत्व के मामले में भी है। अब छोटे शहरों से लेकर महानगरों तक में इनके कई सेंटर्स मौजूद हैं। जिनका इरादा केवल स्वास्थ्य लाभ तक सीमित है, वे अपने निकटतम स्थानों पर उपलब्ध सुविधाओं का ही लाभ उठा लेते हैं। ऐसे लोगों में लंबी दूरी वाले डेस्टिनेशन की तलाश वही करते हैं जिन्हें सेहत के साथ-साथ कुछ और भी हासिल करना होता है।

रिश्तों में जान

हम भारतीयों के लिए छुट्टियां केवल सेहत बनाने, कुछ सीखने, ज्ञान बढाने और मौज-मस्ती करने ही नहीं, अपने मूल और रिश्तों को सहेजने का भी एक साधन हैं। खास तौर से इस दौर में जबकि ज्यादातर मध्यवर्गीय लोग अपने-अपने मूल से कहीं दूर जा बसे हैं। नौकरीपेशा होने के नाते अपने मूल से दूर जाकर बसना और वहीं बने रहना उनकी विवशता है। ऐसी स्थिति में अपने मूल की संस्कृति और कई पीढिय़ों से चले आ रहे रिश्तों को सहेजे रखना उनके लिए बडी चुनौती है। इस चुनौती को हम भारतीय सिर्फ स्वीकार ही नहीं करते, बल्कि इससे एक कदम आगे बढकर अपनी सफलता भी प्रदर्शित करते हैं। हम अपने मूल की संस्कृति और रिश्तों की गर्माहट को सिर्फ सहेजते ही नहीं, उसे उसकी पूरी गरिमा के साथ अपनी अगली पीढी को सौंप भी देते हैं।

किताबों संग गुजारती हूं वक्त अनुष्का शर्मा, अभिनेत्री

फिल्म शूट्स बहुत लंबे और कभी-कभी काफी बोरिंग भी होते हैं, इसलिए शूटिंग, फिर फिल्म प्रमोशन होते ही मैं सीधा छुट्टियां लेने की जुगत में मैं लगी रहती हूं। वह काम हालांकि आसान नहीं होता। मेरी मैनेजर मेरी सबसे बडी विलेन है। वह मुझे बाकी कमिटमेंट्स की याद दिलाती रहती है। बहरहाल छुट्टियां मिलती हैं तो मैं अपने आपको अपने कुछ गहरे दोस्तों व परिवार वालों के संग कैद कर लेती हूं। बाहरी दुनिया से संपर्क नाममात्र का होता है। रिजुवनेट होती हूं। मैं उस दौरान किताबें पढऩा पसंद करती हूं। मुझे फिक्शन से लेकर नॉन फिक्शन तक सब कुछ पढऩा अच्छा लगता है। इसके अलावा मैं म्यूजिक सुनना भी पसंद करती हूं। जब कभी मैं बेंगलुरु सरीखी जगहों पर होती हूं तो मुझे रॉक म्युजिक सुनना अच्छा लगता है। यहां के माहौल में ही रॉक संगीत है। वैसे मुझे सॉफ्ट रॉक जैसे कोल्ड प्ले सुनना पसंद है।

कश्मीर है लुभाता कल्कि कोचलिन, अभिनेत्री

मैं देश दुनिया की सैर अकसर करती रहती हूं। अपनी पसंदीदा जगह की बात करूं तो अब तक मैंने जितनी भी जगहें घूमी हैं, उनमें मुझे कश्मीर बहुत पसंद हैं। कहते हैं न दुनिया में कहीं स्वर्ग है तो वहीं है, वहीं है। वहां की खूबसूरत वादियां मुझे बहुत लुभाती हैं। मैं अकसर कश्मीर जाती हूं। वहां मुझे बहुत मजा आता है। विंटर में गुलमर्ग में स्क्रीइंग करती हूं। वहां की बर्फीली वादियां मुझे बहुत सुंदर लगती हैं। प्राकृतिक नजारों से भरपूर गुलमर्ग में पहाडिय़ों पर कहीं दूर तक जमी बर्फ तो कहीं धरती पर चादर की तरह फैले फूल मन मोह लेते हैं। मुझे अपने परिवार और दोस्तों के साथ छुट्टियां मनाना अच्छा लगता है। एक बार मैं गुलमर्ग में आइस स्कल्प्चर एक्जीबिशन में गई थी। ठंड के कारण मैंने सिर पर गर्म टोपी पहन रखी थी। पर लोगों ने मुझे पहचान लिया। मैं अचानक से उनकी चीफ गेस्ट बन गई थी। थोडी ही देर में मेरे लिए चाय, कॉफी, गोश्त के बने व्यंजन और न जाने क्या-क्या पेश कर दिए गए। लोगों ने मेरी खूब खातिरदारी की। कुछ लोग मेरे साथ फोटो खिंचा रहे थे। बहुत मजा आया था। उस पल को मैं कभी भूल नहीं सकती।

पसंद है अलग-अलग देशों की सैर उमंग कुमार, निर्देशक

मेरे लिए छुट्टियां मनाने का मकसद खुद को रिलैक्स और रिफ्रेश करना होता है। मेरी ख्वाहिश ग्रीस में छुट्टियां मनाने की है। हाल में तुर्की से छुट्टियां मना कर लौटा हूं। वैसे मुझे अलग-अलग देशों की सैर करना पसंद हैं। मैंने दुनिया के कई देशों की सैर की है। जब भी मैं कहीं बाहर जाता हूं तो मेरी पूरी कोशिश वहां की सभ्यता संस्कृति, खानपान और रहन-सहन को गहराई से जानने और समझने की होती है। मुझे खूबसूरत स्थलों को देखना बहुत पसंद है। मैं जहां कहीं भी जाता हूं वहां की कोई चीज जरूर अपने साथ ले आता हूूं। मेरे ऑफिस और घर में आप अलग-अलग देशों की कई चीजों को देख सकते हैं। चाहे वो मुखौटे हो या कोई शो पीस। मुझे न्यूयॉर्क बहुत पसंद है। बहुत खूबसूरत शहर है। वैसे मैं छुट्टियां बहुत नहीं लेता। काम के सिलसिले में जब बाहर जाता हूं तो कुछ दिन रुक जाता है। वही एक्सटेंडेट छुट्टी मनाता हूं। जैसे आइफा अवार्ड में जाना हुआ तो उसे एक्सटेंड करके छुट्टी होती है। जनरली ऐसे ही छुट्टी हुई है। पिछले दो साल में तुर्की और कुछ जगहों पर खास तौर पर गया। छुट्टियों के दौरान मुझे घूमना फिरना ज्यादा पसंद है। छुट्टियों से यूं तो बहुत सी जुडी यादें हैं। लेकिन रोम से जुडी एक घटना भूलती नहीं। जब हम लोग रोम गए थे तो एयरपोर्ट पर हमारे बैग नहीं आए थे। हमारे पास कुछ भी नहीं था। न टूथपेस्ट न कपडे। वहां बहुत ठंड थी। हमें रोम से वेनिस जाना था। कडक सर्दी में हमने पागलों की तरह गर्म कपडों की शॅापिंग की। बैग दो दिन बाद आए। वो दो दिन बहुत तनाव में गुजरे। हालांकि जब हम वेनिस पहुंचे तो हमारी वो छुट्टियां बहुत अच्छी गुजरी।

व्यक्तित्व-विकास की जरूरी श् ार्त है घुमक्कडी

रीना धर्मशक्तु, पर्वतारोही

छुट्टियां हर किसी के जीवन में बहुत जरूरी हैं। जो इंसान घूमता नहीं, उसका जीवन उस किताब की तरह है, जिसे एक पन्ने से ज्यादा पढा ही न गया हो। खूब पैसा कमाएं, आलीशान घर व गाडी लें, पर घूमे नहीं तो इसका क्या फायदा है? बच्चों को हम प्रकृति के समीप न ले जाएं, उन्हें अलग-अलग भाषाओं, संस्कृति, खानपान और जलवायु के बीच न ले जाएं तो वे दुनिया से रूबरू कैसे होंगे? घूमने से व्यक्तित्व का विकास और विस्तार होता है, ज्ञान में वृद्धि होती है। व्यक्तित्व-विकास की जरूरी शर्त है घुमक्कडी। परिवार के साथ घूमनेे का तो अलग मजा है। हमें जब भी काम से फुर्सत मिलती है, परिवार के साथ अलग-अलग जगहें देखना अच्छा लगता है। व्यस्त दिनचर्या में बीच-बीच में परिवार के साथ कुछ पल बिताने से व्यक्ति दोबारा पूरी ताजगी के साथ काम पर लौटता है। कुछ समय पहले ही हम जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क गए, हालांकि टाइगर नहीं देख पाए। हिमालय की तो पूरी रेंज ही हमने देखी है, जिनमें मेरी पसंदीदा जगहें मुनस्यारी (धारचूला), मिलम व पिंडारी ग्लैशियर, गौरी गंगा आदि हैं। इसके अलावा लद्दाख मुझे बहुत पसंद है। दक्षिण भारत के कई स्थलों की यात्रा का भी मन है। विशाखापतनम और गोवा अभी मेरे अजेंडे पर है, देखिए कब जा पाती हूं। समुद्र भी देखना है मुझे, दूर तक फैला हुआ नीला समुद्र अकसर मुझे आकर्षित करता है।

हम जिस जगह भी जाते हैं, वहां पैदल या अपनी गाडी से घूमना पसंद करते हैं। पैकेज टूर बेहतर हैं, लेकिन उनकी सीमाएं होती हैं। जबकि निजी स्तर पर हम कहीं अधिक एक्सप्लोर कर सकते हैं। वहां के स्थानीय लोगों से मिलना, उनके खानपान व संस्कृति की जानकारी लेना, उनके जीवन स्तर और समस्याओं को समझना मुझे बहुत अच्छा लगता है। मैं हर जगह जाकर थोडी शॉपिंग भी जरूर करती हूं। स्थानीय वस्तुएं खरीदती हूं।

हर एक ब्रेक जरूरी होता है आमिर खान, अभिनेता

मेरा मानना है कि बीच-बीच में ब्रेक लेना

जरुरी होता है। इन दिनों दंगल में बिजी हूं, पर उससे पहले व पीके की रिलीज के बाद मैंने काम से तकरीबन एक महीने का ब्रेक लिया था। अर्जेंटीना गया था अपने बच्चों के संग। वहां छुट्टियां मनाई। ये छुट्टियां वैसे ही होती हैं, जैसे स्कूल-कॉलेज के बच्चे परीक्षा के बाद मनपसंद खेल खेलने और फिल्में देखने सरीखा। वहां 20-25 वल्र्ड सिनेमा देखा। नए खेल भी सीखे व कुछ नई किताबें भी पढी। छुट्टियों में मेरा मोबाइल काम काजी बातों के लिए बंद रहता है, लेकिन जरूरी कम्युनिकेशन के लिए मेरी टीम के दो सदस्य साथ रहते हैं। मेरी पूरी कोशिश रहती है कि छुट्टियों के दौरान सारा वक्त परिवार को दूं। उसके बाद नई ऊर्जा के साथ नए प्रोजेक्ट पर लग जाता हूं।

मुझे बुलाता है गांव दिनेश कुमार शुक्ल, साहित्यकार

प्रशासन में छुट्टियां बहुत कम मिल पाती हैं, लेकिन छुट्टियां हैं बहुत जरूरी। ये हमारी जिंदगी को रिचार्ज करती हैं। अगर आपका व्यवसाय नित नया कुछ करने का है और वह आप बिना किसी बाहरी दबाव के अपने मन मुताबिक कर पा रहे हों, तब तो बात अलग है, वरना रोजमर्रा काम मनुष्य के क्षरण का कारण होता है। इस जरूरत को समझते हुए कुछ देशों में कुछ कारपोरेट्स ने अपने एग्जीक्यूटिव्ज के लिए कंपल्सरी हॉलिडेज की व्यवस्था की है। इसके लिए उन्हें संस्थान की ओर से ही परिवार के साथ ऐसी जगहों पर भेजा जाता है, जहां इसके लिए पूरे इंतजाम होते हैं। मैं अपनी बात करूं तो मुझे फुर्सत के समय में गांव जाना सबसे अच्छा लगता है। वहां हमारा एक पुराना बगीचा है। उसी में कुछ बिछा कर आराम से लेटे रहना और गांव-घर के लोगों से बतियाना मुझे बडी ऊर्जा देता है। इससे मन भर जाता है तो खेतों में चला जाता हूं। वहां मेडों पर टहलना मुझे बहुत अच्छा लगता है। अपनी चिर-परिचित प्रकृति के बीच होना आपको जो ऊर्जा देता है, किसी और जगह उसकी उम्मीद ही नहीं की जा सकती है। बचपन का गुजरा हुआ समय वहां नए सिरे से ताजा होने लगता है। दूर जाने का मन हुआ तो मैं भारत के ही धार्मिक स्थलों पर जाना पसंद करता हूं। क्योंकि गोवा, कोवलम जैसी जगहों पर तो कई बार प्रशासनिक बैठकों और कॉन्फ्रेंस वगैरह के लिए ही जाना हो जाता है। इन जगहों पर शांति के बजाय हलचलें ज्यादा हैं। इससे किसी रचनात्मक व्यक्ति को वहां वह नहीं मिल पाता जिसकी वह अपेक्षा करता है। जबकि हमारे धार्मिक स्थल केवल धर्म की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं हैं। इनका सांस्कृतिक महत्व भी बहुत है। हर धार्मिक स्थल के साथ बहुत सारे पौराणिक आख्यान और ऐतिहासिक प्रसंग जुडे हुए हैं। वहां होते हुए इन आख्यानों-प्रसंगों को याद करना और उन्हें गुनना मुझे अपने आपमें एक उपलब्धि लगती है।

...तो बढ जाए लुत्फ जिंदगी का चाहते क्या हैं

छुट्टियों पर जाने से पहले यह तय करें कि आप वास्तव में चाहते क्या हैं। यह फैसला किसी अन्य के दबाव या प्रभाव में नहीं होना चाहिए। अपनी पसंदीदा गतिविधि के अनुसार सही जगह का चुनाव करें। इसके लिए पहले से कार्यक्रम तय करें और बजट बनाएं।

तय हो योजना

आप अपने रिलैक्सेशन के लिए जो कुछ भी करना चाहते हों, उसके लिए एक-एक दिन की पूरी योजना सुनिश्चित कर लें। योजना तय करते समय ध्यान भी रखें कि जरूरत के मुताबिक थोडी ढील की गुंजाइश भी हो। बहुत टाइट शेड्यूल भी तनाव का कारण बन जाता है और छुट्टियों का मजा किरकिरा कर देता है।

छोटे बजट में

अगर आप फुर्सत के पलों का लुत्फ घुमक्कडी में तलाशते हैं और बजट आपको दूर देश जाने की इजाजत नहीं देता तो जरूरी नहीं कि आप जबरिया बजट खींचतान कर परेशानी मोल लें। आपके देश में भी देखने-जानने के लिए बहुत कुछ है। इन जगहों का पर्यटन आप पूरे परिवार के साथ छोटे बजट में कर सकते हैं।

जरूरी है जानकारी

योग, ध्यान, हेल्थ पैकेज, स्पोट्र्स या फिर सैर-सपाटा... जो कुछ भी करना चाहें उसके बारे में पूरी जानकारी हासिल कर लें। इसमें इतिहास-भूगोल और गतिविधियों के साथ-साथ उनके लिए बाजार में उपलब्ध पैकेज और डील के तौर-तरीके भी शामिल हों। इससे आपको यह फायदा मिलता है कि आप कम से कम बजट में ज्यादा से ज्यादा आनंद ले पाते हैं। इसके लिए आप अखबार और पत्रिकाओं के अलावा इंटरनेट की मदद ले सकते हैं।

तैयारी पहले से

लास्ट मिनट पैकिंग छुट्टियों के आनंद में सबसे बडी बाधा होती है। क्या ले जाना है और क्या नहीं, इसकी लिस्ट पहले ही बना लें। यह सही है कि बहुत बोझ दिक्कत का सबब होता है, लेकिन जरूरी चीजों का छूट जाना भी मुश्किल पैदा कर सकता है।

तनाव को अलविदा

ऐसा कुछ भी जो आपके लिए तनाव का कारण हो और आपको रोजमर्रा रुटीन में बंधे रहने का एहसास दिलाए, उसे किनारे करें। यह मोबाइल या इंटरनेट भी हो सकता है और कुछ दोस्त, परिचित या रिश्तेदार भी। दैनिक जीवन के तनाव साथ लेकर न चलें।

सहज रहें

छुट्टियों का असली लुत्फ रिलैक्स होने में है और रिलैक्सेशन मिलती है सहजता से। ऐसा कुछ भी जो सहज होने में बाधक बने, उससे दूर रहें। अगर कोई चीज या किसी की गतिविधि आपको पसंद न आए तो उससे दूर हट जाएं।

इंटरव्यू : मुबई से स्मिता श्रीवास्तव व अमित कर्ण, दिल्ली से इंदिरा राठौर


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