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लोग जुड़ते गए कारवां बनता गया...

मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल, लोग जुड़ते गए कारवां बनता गया। हर नई शुरुआत ऐसे ही होती है। कोई अकेला इंसान तमाम बाधाओं से जूझते हुए आगे बढ़ रहा होता है। फिर एक-एक करके लोग उसके साथ चल पड़ते हैं। यहीं से पूरी तसवीर बदल जाती है।

By Edited By: Published: Wed, 25 Mar 2015 02:02 PM (IST)Updated: Wed, 25 Mar 2015 02:02 PM (IST)
लोग जुड़ते गए कारवां बनता गया...

मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल, लोग जुडते गए कारवां बनता गया। हर नई शुरुआत ऐसे ही होती है। कोई अकेला इंसान तमाम बाधाओं से जूझते हुए आगे बढ रहा होता है। फिर एक-एक करके लोग उसके साथ चल पडते हैं। यहीं से पूरी तसवीर बदल जाती है। समाज को अपने साथ जोडऩे की कला कामयाबी के दरवाजे खोल देती है। आखिर क्या खासियत होती है ऐसे लोगों में जो दूसरों का नजरिया बदलने की कूवत रखते हैं, टीम भावना हमें बेहतरी की दिशा में ले जाने में किस तरह मददगार होती है, कुछ विशेषज्ञों और मशहूर शख्सीयतों के साथ मिलकर यही जानने की कोशिश कर रही हैं विनीता।

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बचपन में यह कहानी शायद आपने भी सुनी होगी-एक किसान के चार बेटे अकसर आपस में झगडते रहते थे। एक रोज उसने अपने बेटों को पास बुलाया उनके हाथों में लकडिय़ों के एक-एक टुकडे पकडा कर उनसे कहा कि तुम इन्हें तोडकर दिखाओ। उन्होंने बडी आसानी से एक ही बार में लकडिय़ों को तोड दिया। इसके बाद किसान ने चार लकडिय़ों को एक साथ बांध कर गट्ठर बना दिया और उसे लडकों से तोडऩे को कहा। बारी-बारी से सभी ने कोशिश की, पर किसी को कामयाबी नहीं मिली। फिर किसान ने उन्हें समझाया कि अगर तुम इसी तरह आपस में झगडते रहोगे तो कमजोर पड जाओगे और कोई भी तुम्हें बहुत आसानी से नष्ट कर देगा। अगर तुम मिलजुल कर रहोगे तो तुम्हारी ताकत चार गुना बढ जाएगी।

बचपन में सुनी यह कहानी आज भी प्रासंगिक है। समय के साथ भले ही हमारी सोच बदल रही हो, लेकिन साथ मिलकर चलने का जज्बा बरकरार है। किसी भी सपने को साकार करने के लिए हमें लोगों के साथ की जरूरत होती है। आज से लगभग सवा सौ साल पहले दक्षिण अफ्रीका में नस्ल भेद के आधार पर ट्रेन से बाहर निकाले गए बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी ने भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने का सपना देखा था। उस वक्त अगर वह जनता को साथ लेकर न चले होते तो शायद उनका यह सपना अधूरा रह जाता।

चले थे साथ मिलकर

सहभागिता हमारी संस्कृति का अटूट हिस्सा है। तभी तो तमाम मतभेदों के बावजूद लोग एक-दूसरे का सुख-दुख बांटने को सहर्ष तैयार रहते हैं। भले ही आज संयुक्त परिवार टूटते नजर आ रहे हैं, लेकिन एकल परिवारों में रहने वाले लोग भी इसकी अहमियत बखूबी समझते हैं। इसी वजह से अब महानगरों में एक-दूसरे को थोडा पर्सनल स्पेस देते हुए साथ मिल कर रहने का चलन तेजी से बढ रहा है। आशीष शर्मा एक सॉफ्टवेयर कंपनी में कार्यरत हैं। अच्छे करियर की चाहत उन्हें इलाहाबाद से दिल्ली खींच लाई। फिर उन्होंने अपने छोटे भाइयों को भी यहीं बुला लिया। वह बताते हैं, 'हमारी बहुत इच्छा होती थी कि पहले की ही तरह हम सब एक साथ रहें, लेकिन छोटे फ्लैट्स की वजह से हमारी यह इच्छा पूरी नहीं हो पा रही थी। तब हमने एक नई तरकीब ढूंढी। हम चारों भाइयों ने एक ही हाउसिंग सोसायटी में चार फ्लैट्स की बुकिंग कराई और माता-पिता को भी यहीं बुला लिया। इस तरह बिना किसी असुविधा के हम साथ रहने का सुख उठा पा रहे हैं।'

मैं और हम का द्वंद्व

एक-दूसरे के साथ सुख-दुख बांटना हमारे जीवन में बडी सहजता से शामिल है, लेकिन ग्लोबलाइजेशन के विश्वव्यापी प्रभाव से हमारा समाज भी अछूता नहीं रहा। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन के बाद महानगरों में लोगों को रोजगार के अच्छे अवसर मिले। संयुक्त परिवार टूटने लगे। गांव और छोटे शहरों को छोडकर लोग महानगरों का रुख करने लगे। आमदनी अच्छी हुई तो खर्चे भी बढ गए। पहले कृषि प्रधान सामाजिक व्यवस्था में साझी जमीन पर परिवार के सभी लोग साथ मिलकर मेहनत करते थे और उससे होने वाली आमदनी में सब बराबर के भागीदार होते थे। अब पूरी तसवीर बदल चुकी है। नौकरीपेशा शहरी मध्यमवर्ग को ऐसा लगने लगा कि अगर मैं दिन-रात अकेले कडी मेहनत करता हूं तो मेरी आमदनी पर दूसरों का कैसा अधिकार? यहीं से 'मैं' और 'मेरा' को अहमियत देने वाली व्यक्तिवादी सोच पनपने लगी। केवल पैसों और सुविधाओं ही नहीं, बल्कि भावनाओं और विचारों की शेयरिंग में भी लोग कंजूसी बरतने लगे। लोगों की विस्तृत दुनिया सिमट कर बेहद छोटी हो गई। जब एकल परिवारों की दूसरी पीढी तैयार हुई तो लोगों को यह समझ आने लगा कि थोडी सी सुख-सुविधाएं पाने के लालच में उन्होंने बहुत बडी कीमत चुकाई है। अकेलेपन की वजह से उपजने वाला ढेर सारा तनाव और मनोवैज्ञानिक समस्याएं जब उन्हें परेशान करने लगीं, तब जाकर लोगों की आंखें खुलीं। उन्होंने 'मैं'को छोडकर 'हम' पर ध्यान देना शुरू किया और समाज में मिल-जुलकर रहने की आदत को प्रोत्साहित किया जाने लगा।

शुरू से हो शुरुआत

व्यक्तिवादी होता शहरी समाज साथ मिल-जुलकर रहने के फायदे को समझने लगा है। इसलिए आजकल पेरेंट्स शुरुआत से ही अपने बच्चों को श्ेायरिंग सिखाने पर जोर देते हैं। इस संबंध में दिल्ली की सौम्या मिश्रा कहती हैं, 'मैं बैंक में जॉब करती हूं और मेरे पति आइटी प्रोफेशनल हैं। मेरे इकलौते बेटे की उम्र 6 वर्ष है। चूंकि, स्कूल से लौटने के बाद उसे घर पर आया के साथ अकेले रहना होता है, इसलिए शाम को मैं उसे रोजाना पार्क में लेकर जाती हूं ताकि उसे नए बच्चों के साथ दोस्ती करने का मौका मिले। आजकल ज्य़ादातर एकल परिवारों में एक या दो ही बच्चे होते हैं। नतीजतन वे दूसरों के साथ शेयरिंग नहीं सीख पाते। इसीलिए अपने बच्चे के दोस्तों के पेरेंट्स के साथ मिलकर हमने एक ग्रुप बनाया है और हर वीकएंड पर हम साथ मिलकर गेटटुगेदर कार्यक्रम का आयोजन करते हैं। इससे बच्चों में शेयरिंग की भावना विकसित होती है।'

एक से भले दो

बचपन में सीखी गई शेयरिंग की भावना जीवन भर काम आती है। इस संबंध में मैनेजमेंट गुरु शिव खेडा कहते हैं, 'आजकल प्राफेशनल लाइफ में टीम भावना को काफी अहमियत दी जाती है। अब लोगों को इस कहावत की अहमियत समझ आ गई है कि अकेला चना भाड नहीं फोडता। इसीलिए आजकल कंपनियां अपने कर्मचारियों को टीम भावना के साथ काम करने के लिए प्रेरित करती हैं। टीम बिल्डिंग की प्रक्रिया ऑर्गेनाइजेशनल साइकोलॉजी का एक जरूरी हिस्सा है। इसके तहत कर्मचारियों के समूहों को अकसर वर्कशॉप जैसे आयोजनों के जरिये एक-दूसरे के विचार जानने का मौका दिया जाता है। किसी भी कर्मचारी के लिए उसकी नौकरी से मिलने वाली संतुष्टि और सुरक्षा सबसे बडी चिंता का विषय होती है। इस समस्या से बचने के लिए यह बहुत जरूरी है कि व्यक्ति खुद को टीम का सदस्य समझते हुए कडी मेहनत करके सफलता अर्जित करे। इससे मिलने वाली संतुष्टि का भाव पूरी टीम को आगे बढऩे के लिए प्रेरित करता है।'

सपनों की साझेदारी

लोगों के साथ मिलकर काम करने की भावना केवल करियर में तरक्की के लिए ही नहीं, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में मददगार साबित होती है। जब भी हमारे दिमाग में कोई नया आइडिया आता है तो उसे सिर्फ खुद तक सीमित रखकर अच्छे परिणाम हासिल नहीं किए जा सकते। मनोवैज्ञानिक सलाहकार

डॉ. अशुम गुप्ता कहती हैं, 'विचारों और भावनाओं की शेयरिंग बहुत जरूरी है। हम अपनी खामियों का ईमानदारी से विश्लेषण नहीं कर पाते क्योंकि हर व्यक्ति कहीं न कहीं आत्ममुग्धता की भावना से ग्रस्त होता है। किसी नए काम की शुरुआत से पहले यह बेहद जरूरी है कि हम करीबी और अनुभवी लोगों से उसके बारे में खुलकर बातचीत करें।'

साथी हाथ बढाना

सिर्फ अपने लिए खुशियां बटोरना कामयाबी नहीं है। साथ चल रहे लोगों का खयाल रखना भी हमारा फर्ज है। यही बात हमें प्रेरित करती है दूसरों की मदद के लिए। जरूरतमंदों की मदद करने वाली सामाजिक संस्थाएं हमारी इसी सोच को विस्तार देती हैं। समाज को बेहतर बनाने की जिम्मेदारी हम सब की है। जहां तक संभव हो हमें निजी स्तर पर भी यही प्रयास करना चाहिए। प्रताप सिंह गाजियाबाद में रहते हैं। उन्होंने अपने घर के आसपास मौजूद वीरान पडी खाली जमीन को हर-भरा बनाने का संकल्प लिया। वह बताते हैं, 'जब मैंने अपने आसपास की बंजर जमीन को समतल बनाने की शुरुआत की तब कुछ लोग मेरा मजाक उडाते थे, पर जल्द ही मेरी मेहनत रंग लाने लगी। फिर आसपास के लोग मेरी सहायता के लिए आगे बढे। आज हमारी कॉलोनी में सैकडों की तादाद में हरे-भरे पेड मौजूद हैं। यह हमारे सामूहिक प्रयास की वजह से ही संभव हुआ। अगर हम लोगों के साथ मिलकर काम करें तो हमारी ताकत बढ जाती है और बेहतर नतीजे सामने आते हैं।'

जोर लगा के..

किसी भी काम को अच्छी तरह अंजाम देने के लिए हमारे भीतर अदम्य उत्साह होना बहुत जरूरी है। भले ही हमारी कोशिशें नाकाम रही हों, पर उनसे घबराने के बजाय दोबारा हिम्मत जुटा कर हमें नए सिरे से प्रयास करना चाहिए। ऐसी स्थिति में टीम लीडर की भूमिका काफी अहमियत रखती है। इस संबंध में मैनेजमेंट गुरु प्रमोद बत्रा कहते हैं, 'लीडर की रफ्तार से टीम का भी उत्साहवर्धन होता है। अच्छा नेतृत्व वह है, जो अपने खराब और कमजोर साथियों को भी सुधार और विकास का पूरा अवसर दे। जिसे इस बात की समझ हो कि हर व्यक्ति के काम करने का अपना तरीका होता है। कोई काम गुणवत्ता की मांग करता है तो कोई मात्रा की। एक अच्छा टीम लीडर वही है, जो काम की प्रकृति के अनुसार उसे करने के लिए सही व्यक्ति का चयन करे। सदस्यों की कार्य क्षमता का मूल्यांकन करते समय व्यक्तिनिष्ठ न हो कर वस्तुनिष्ठ हो। कुल मिला कर कामयाबी के लिए यह बहुत जरूरी है कि टीम के सभी सदस्यों के मन में अपने लक्ष्य को लेकर कडी प्रतिबद्धता हो। सदस्यों के मन में उत्साह भरना टीम लीडर की जिम्मेदारी होती है। इस दृष्टि से भगवान श्रीराम बहुत काबिल टीम लीडर थे, जिन्होंने हनुमान और उनकी वानर सेना को समुद्र पर बांध बनाने के लिए प्रेरित किया। इतना ही नहीं, जब नन्ही गिलहरियां पत्थर के छोटे टुकडे उठा कर पुल के निर्माण में सहयोग दे रही थीं तो उन्होंने उनके इस छोटे से प्रयास की भी सराहना की। अच्छे टीम लीडर की यही खूबी है कि वह अपने साथियों को जी जान से मेहनत करने के लिए प्रेरित करे।'

कला संतुलन साधने की

जब हम साथ मिलकर पूरी ऊर्जा के साथ काम करते हैं तो उसके बेहतर नतीजे जल्द ही दिखने शुरू हो जाते हैं। लक्ष्य प्राप्ति में जुटे लोगों के लिए यह दौर बेहद नाजुक होता है। इस दौरान व्यक्ति को अपना धैर्य नहीं खोना चाहिए। कामयाबी हासिल करने से कहीं ज्यादा मुश्किल है, उसे संभालना। मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. अशुम गुप्ता कहती हैं, 'कामयाबी हासिल करने के बाद उस पर टिके रहने के लिए भावनात्मक संतुलन बेहद जरूरी है। अपनी सफलता पर बहुत ज्य़ादा खुश होकर लापरवाह होने के बजाय धैर्यपूर्वक भविष्य की योजनाओं पर काम करना चाहिए। कामयाबी के लिए भावनाओं के आवेश को नियंत्रित करना जरूरी है। अपनी सकारात्मक और नकारात्मक भावनाओं के बीच संतुलन साधते हुए आगे बढऩे का नाम ही जिंदगी है। अगर संतुलित ढंग से कदम बढाया जाए तो मंजिल को पाना मुश्किल नहीं।'

मंजिल की ओर

सूरज एक, चंदा एक, तारे अनेक...दूरदर्शन के जमाने का यह लोकप्रिय बालगीत आपने भी सुना होगा। जिसमें बच्चों की दीदी उन्हें बडी सरलता से एकता की ताकत के बारे में समझाती हैं। जब बच्चे उनसे पूछते हैं कि अगर हम एकजुट हो जाएं तो क्या पेड पर लगे सारे आम तोड सकते हैं ? ....तब दीदी कहती हैं, जुगत लगानी होगी। फिर उन्होंने बच्चों को सिखाया कि वे किस तरह एक-दूसरे के कंधे पर खडे होकर पेड से सारे आम तोड सकते हैं। उस एनिमेटेड फिल्म में तो बच्चों ने साथ मिलकर काम करना सीख लिया था, पर हम कब सीखेंगे? कहते हैं न कि हर इंसान के मन में एक मासूम बच्चा छिपा होता है। लोगों को अपने साथ लेकर सही दिशा में आगे बढऩे के लिए यह बहुत जरूरी है कि हम खुद में छिपे उस बच्चे को उन्मुक्त भाव से हंसने-खिलखिलाने दें।

टीम ही दिलाती है कामयाबी आमिर खान, अभिनेता एवं निर्माता

अपने चाचा नासिर हुसैन की फिल्म मेकिंग से मैैंने काफी कुछ सीखा है। शायद मुझे टीम स्पिरिट के जज्बे से मेरे चाचा और उनके करीबी दोस्त शम्मी कपूर जी ने ही परिचित करवाया। आज फिल्म स्टार्स के कई ग्र्रुप्स बन चुके हैं, पर उनके जमाने में ऐसा नहीं था। तब किसी भी फिल्म स्टार में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह शूटिंग के दौरान अपनी वैन में आराम से अलग बैठा रहे और केवल शॉट देने के लिए बाहर आए। तब सभी के लिए अनुशासन के नियम एक समान थे और लोग निर्देशक की बातों को बहुत गंभीरता से लेते थे। फिल्ममेकिंग का सबसे बडा हिस्सा है-उससे जुडी टीम भावना। फिल्म निर्माण के दौरान यदि निर्माता से लेकर स्पॉटबॉय तक में अपनेपन और टीमवर्क की भावना न हो तो अच्छी फिल्म का बनना संभव नहीं होगा। मैैंने अपने पिता और चाचा को बचपन से फिल्में बनाते देखा है। मैैं उसी माहौल में बडा हुआ हूं। 'तारे जमीं पर' का निर्माण बहुत बडी चुनौती थी। आप सभी जानते हैं कि इस फिल्म में मैं सिर्फ निर्माता था, पर लेखक अमोल गुप्ते से कुछ व्यावसायिक मतभेद हो जाने के कारण मुझे इस फिल्म के निर्देशन के लिए आगे आना पडा। बहरहाल, 'तारे जमीं पर की सफलता का सारा श्रेय मेरी टीम को जाता है। जिसमें अमोल और मेरी पत्नी किरण केअलावा कोरियोग्राफर शामक डावर की डांस टीम, कैमरामैन और सारे स्पॉट बॉयज शामिल हैं। हम अपने सेट पर हर कलाकार का जन्मदिन मनाते हैं। सभी छोटे-बडे कलाकारों की पसंद-नापसंद की जानकारी रखते हैं। 1100 बच्चों को एक साथ महाबलेश्वर ले जाकर और उनके साथ शूटिंग करना कोई आसान काम नहीं था, पर हमने यह सब कर लिया क्योंकि हमारे बीच जबर्दस्त टीम भावना थी।

लोग मुझे मिस्टर परफेक्शनिस्ट कहते हैं क्योंकि मैैं अपनी फिल्म के मामले में समझौते नहीं कर सकता। शायद इसीलिए जब मेरे और अमोल गुप्ते के विचार आपस में नहीं मिले तो हमने अलग होना ठीक समझा। टीम की बेहतरी के लिए उसे मैं सारी सुविधाएं मुहैया कराता हूं। लोगों से काम लेता हूं और सबके सुझावों का आदर भी करता हूं। अपनी टीम के साथ हमेशा एक कंफर्ट जोन बना रहता है। मेरी टीम के हर सदस्य को अपनी राय पेश करने की खुली छूट होती है। अपने साथ काम करने वाले लोगों की बातों को मैं बहुत गंभीरता से लेता हूं। जहां जरूरत महसूस होती है, वहां अपने सहयोगियों के सुझावों पर अमल भी करता हूं। मैैं यह मानकर चलता हूं कि मेरे साथ मेरी टीम भी काम करने में गलतियां करेगी। कोई भी बडा प्रोजेक्ट बनाते समय टीम के लोगों से कई बार नुकसान भी हो जाता है और इस पर नाराज होना मुनासिब नहीं। टीम में काम करने के लिए संयम भी बहुत जरूरी है। मैैं अपने साथियों के साथ घुल-मिल कर काम करने वालों में से हूं। सफलता के श्रेय की असली हकदार टीम ही होती है।

ऐक्टर भी क्रिएटिव होते हैं

सुशांत सिंह राजपूत, अभिनेता

फिल्म निर्माण पूरी तरह टीम वर्क है और जहां टीम होती है, वहां आपसी विचार-विमर्श के जरिये मालूली फेर-बदल भी जरूरी होता है। मेरे विचार से ऐक्टर भी क्रिएटिव होते हैं और उन्हें दरिकनार करने से सही नतीजे सामने नहीं आते। मिसाल के तौर पर मेरी फिल्म 'डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी' में ब्योमकेश के किरदार को मैंने अपने तरीके से भी गढा है। निर्देशक दिबाकर बनर्जी ने मुझे यह गाइडलाइन दी थी कि मुझे उस किरदार को प्रस्तुत करने के दौरान क्या-क्या नहीं करना है, पर उसका मतलब यह नहीं था कि ब्योमकेश के चरित्र को निभाने के लिए मुझे अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं करना। फिल्म निर्देशक के सुझावों पर पूरी तरह अमल करने की वजह से मैं ब्योमकेश को यूनीक अवतार देने में सफल रहा। इस मामले में हॉलीवुड के मशहूर अभिनेता अल पचीनो की कार्यप्रणाली मुझे बिलकुल सही लगती है। अगर वह अपनी परफॉरमेंस से संतुष्ट नहीं होते तो उस सीन के लिए पचासों रीटेक देते है। भले ही उनका डायरेक्टर संतुष्ट रहता हो, पर वह नहीं मानते। फिर उन्हें अपने पचासों रीटेक में से जो एक टेक पसंद आता, उसे ही इस्तेमाल करने को कहते हैं। मेरे कहने का आशय यह है कि फिल्म जैसी रचनात्मक विधा में बेहतर नतीजे और कामयाबी के लिए पूरी टीम को साथ मिलकर काम करना पडता है।

सच्ची लगन से मिलती है सफलता

डॉ. के. के. अग्रवाल, सेक्रेट्री जनरल इंडियन मेडिकल एसोसिएशन

हमारा काम लोगों की जिंदगी से जुडा है और ऐसे में अच्छी टीम भावना का होना बहुत जरूरी है। इसके लिए टीम में पारदर्शिता, ईमानदारी और सच्ची लगन होनी चाहिए। अच्छा टीम लीडर वही है,जो अपने सभी सदस्यों के साथ जुडकर काम करे और उनकी समस्याओं को दूर करने की कोशिश करे। मैं अपने साथ काम कर रहे सभी लोगों को उनकी प्रोफेशनल स्किल्स सुधारने की सलाह देता हूं। इस दिशा में यथासंभव उनकी मदद भी करता हूं। किसी बडे ऑपरेशन से पहले टीम के सभी सदस्यों को आगाह करता हूं कि वे अपनी चेकलिस्ट पर अच्छी तरह ध्यान दें क्योंकि ऐसे मामलों में जरा सी लापरवाही भारी पड सकती है। किसी भी सर्जरी की सफलता टीम के सदस्यों के सामूहिक प्रयास पर निर्भर करती है। ज्य़ादातर लोग सिर्फ टीम लीडर को ही पहचानते हैं। इसलिए प्रश्ंासा भी उसे ही मिलती है, पर मैं अपनी सफलता का सारा श्रेय अपने सहयोगियों को देता हूं, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अकेले किसी बडे मिशन को कामयाब नहीं बना सकता। कामयाबी के लिए टीम के सभी सदस्यों के बीच आपसी सहयोग की भावना बहुत जरूरी है।

टीमवर्क है फिल्म मेकिंग फराह खान, निर्देशक

मेरे विचार से फिल्म निर्माण टीम वर्क ही है। यूनिट और प्रोडक्शन से जुडे सभी लोगों की सहमति से ही सीन, गाने, स्टंट आदि का फैसला होता है। सभी जानते हैं कि बजट के मामले में मैं बहुत िकफायती हूं। फालतू पैसे खर्च नहीं करवाती। मेरे पति शिरीष बहुत उदार निर्माता हैं। मैं उनकी जिन प्रोजेक्ट्स से जुडी रही हूं, वे कम बजट में ही तैयार हो जाती हैं क्योंकि मैं तो घर की डायरेक्टर हूं। किसी दूसरे डायरेक्टर से काम लेने पर शिरीष को आटे-दाल का भाव मालूूम पड जाता है। जिस तरह मैं निर्माता को सहयोग देती हूं ठीक उसी तरह मेरे चीफ असिस्टेंट डायरेक्टर साहिल सेट पर मेरे काम के दौरान पैदा होने वाली छोटी-छोटी परेशानियों को संभालते हैं। मेरे मैनेजर पसंदीदा गायकों और गीतकारों से मेरी बातचीत कराते हैं। मिसाल के तौर पर गीतकार इरशाद कामिल के पास 'हैप्पी न्यू ईयर' के लिए वक्त नहीं था। वह मेरे मैनेजर को फोन पर मना कर रहे थे। फिर मैंने अपने हाथों फोन में लिया और इरशाद से हक भरे लहजे में कहा कि आप हमारी फिल्म के लिए गीत लिख रहे हैं। वह इतने भले इंसान हैं कि मेरी बात को मना नहीं कर सकेऔर मेरे साथ काम करने को तैयार हो गए। उन्हें अपनी फिल्म के लिए राजी करने का क्रेडिट मैं खुद को देती हूं, पर इरशाद का फोन नंबर ढूंढ कर उनसे बात करने के लिए समय लेने का श्रेय मेरे असिस्टेंट को जाता है।

सम्मिलित प्रयास से मिलती है कामयाबी

संजय लीला भंसाली, निर्देशक

जब टीम भावना की बात चल रही है तो यहां मैं अपनी फिल्म 'गोलियों की रास लीला : राम-लीला' का जिक्र करना चाहूंगा। उस फिल्म में पटकथा लेखक, आर्ट डायरेक्टर और सिनेमैटोग्राफर सब नए थे। उसके लिए मैंने सैकडों लोगों के साथ काम किया है। बहुत दिनों बाद मैं आउटडोर गया और लगभग 200 दिनों तक शूटिंग की। इतने दिनों में तो तीन फिल्में पूरी हो जातीं। ट्रीटमेंट ही डायरेक्टर की पहचान होती है। ट्रीटमेंट में कैमरे का एंगल, सेट डिजाइनिंग, गाने की रिकार्डिंग और पिक्चराइजेशन और कैरेक्टर को पेश करने का तरीका सब कुछ शामिल होता है। इन्हीं सबसे फिल्म और निर्देशक की एक अलग पहचान बनती है। मेरी फिल्मों में टाइमलेस इमोशन रहता है। मुझ पर जिन मूल्यों और गुणों का असर है, वह कला निर्देशन, संवाद और संगीत में भी नजर आता है। ऐसी फिल्में बनाने की कोशिश करता हूं, जिन्हें लोग वर्षों तक याद रखें, पर सारा काम अकेले कर पाना असंभव है। अपने प्रोजेक्ट को लेकर मेरा जो सपना होता है, उसे साकार करने वाली टीम मेरे साथ होती है। जहां लेखक और निर्देशक ने फिल्म बनाने से पहले पूरी गहराई से रिसर्च किया हो वहां आपसी मतभेद की आशंका नहीं होती। मेरे खयाल से सही मायने में अच्छे कलाकार वही होते हैं जो डायरेक्टर के विजन को पूरी तरह समझते हुए उसके साथ मिलकर काम करें।

एक-दूसरे पर करें भरोसा

नवाजुद्दीन सिद्दीकी, अभिनेता

टीम भावना के संदर्भ में मैं अपनी नई फिल्म 'बदलापुर' की मिसाल देना चाहूंगा। निर्देशक श्रीराम राघवन ने फिल्म की कहानी सुनाने के बाद मुझे उसके किरदारों के बारे में समझा दिया था। उसके बाद सिर्फ दृश्य बताकर वह कलाकारों को खुद ही सिचुएशन के अनुसार संवाद बोलने की आजादी देते थे। पहले से कुछ भी लिखा नहीं होता था। श्रीराम के सुझाव और मेरी समझ से ही शूटिंग के दौरान संवाद रचे गए। निर्देशकों को अमूमन अपने ऐक्टरों पर ऐसा भरोसा नहीं होता। सभी जानते हैं फिल्म मेकिंग महंगी प्रक्रिया है। अगर मनपसंद शॉट न मिले तो मेहनत और पैसों की बर्बादी होती है। मुझे कैरेक्टर मालूम था। सिचुएशन और सीन मिलने पर श्रीराम के बताए भाव के अनुसार मैं जो कुछ भी बोलता था, उसे ही संवादों के रूप में रख लिया गया। 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' के दौरान भी यही तरीका अपनाया गया था। अनुराग कश्यप कलाकारों को कभी भी स्क्रिप्ट नहीं देते थे। संवादों में जो कुछ भी बदलाव लाना होता है, वह सेट पर ही होता था। इस तरह क्रिएटिविटी के आदान-प्रदान से संवाद अदायगी में सहजता आई। फिर इन दोनों फिल्मों ने क्या इतिहास रचा, वह आपके सामने है।

टीम पर टिका है आपका हौसला

अरबाज खान, निर्माता एवं निर्देशक

जिंदगी के हर पडाव पर मैंने टीम की अहमियत को महसूस किया है। शादी के बाद शुरुआती दिनों में ऐसा लगा कि जीवन को चलाने के लिए दो लोग ही काफी हैं, पर धीरे-धीरे अपने अनुभव से जाना कि यदि आपके पास सपोर्टिव हैंड्स न हों तो एक कदम भी आगे बढाना मुश्किल है। मलायका के साथ मिलकर घर की सारी जिम्मेदारियों को मैं इसी सपोर्ट सिस्टम की मदद से पूरा कर पाता हूं, वरना इतनी व्यस्तता के बीच हम अपने बच्चे को अच्छी परवरिश कैसे दे पाते? फिल्म निर्माण के मामले में भी यही बात लागू होती है। कोई फिल्म निर्देशक अकेला कहां होता है? उसके साथ कई असिस्टेंट्स, कलाकार, मेकअप आर्टिस्ट और कैमरामैन जैसे तमाम लोग मौजूद होते हैं। टीम पर ही हमारा हौसला टिका होता है। उसी की वजह से हमें प्रशंसा मिलती है। वही हमारी ताकत है। उसे सहेजना और संवारना टीम लीडर की जिम्मेदारी है।

इंटरव्यू : अमित कर्ण मुंबई से, सीमा झा एवं विनीता दिल्ली से


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