दमन से मुक्त होवें हम
<p>हिंदी साहित्यकारों में सबसे अधिक पढे जाने वाले नामों में शुमार डॉ. नरेंद्र कोहली सबसे अधिक रायल्टी भी पाते हैं। सौ से अधिक किताबें लिखने का रेकॉर्ड बना चुके डॉ. कोहली से हमने पूछा कि इसके आगे का क्या लक्ष्य निर्धारित किया है तो मुस्कराते हुए उन्होंने कहा </p>
हिंदी साहित्यकारों में सबसे अधिक पढे जाने वाले नामों में शुमार डॉ. नरेंद्र कोहली सबसे अधिक रायल्टी भी पाते हैं। सौ से अधिक किताबें लिखने का रेकॉर्ड बना चुके डॉ. कोहली से हमने पूछा कि इसके आगे का क्या लक्ष्य निर्धारित किया है तो मुस्कराते हुए उन्होंने कहा, इस उम्र में अब क्या टारगेट तय करूंगा! हां, जब तक शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ हूं, हाथ-पैर चल रहे हैं, तब तक लिखते रहने का इरादा है। उससे आगे ऊपर वाले की मर्जी।
इन दिनों डॉ. कोहली अपनी महत्वाकांक्षी उपन्यास श्रृंखला तोडो कारा, तोडो के सातवें खंड को फिनिशिंग टच देने में लगे हुए हैं, जिसके जरिए विवेकानंद देशवासियों को संदेश देते हैं कि हमें हर तरह के दमन से खुद को मुक्त करना है, वह चाहे पारिवारिक स्तर पर हो रहा हो, सामाजिक या सत्ता के स्तर पर। दमित जीवन जीने से बेहतर है कि हम अनुशासित जीवन जीने की कोशिश करें।
डॉ. कोहली बताते हैं कि तोडो कारा, तोडो के सातवें खंड में विवेकानंद के जीवन का सन् 1896 और उसके बाद का वह काल खंड रूपायित हुआ है, जिसमें वे यूरोप जाकर वहां के जर्मन विद्वानों-मैक्समुलर और डायसन से मुलाकात करते हैं, जो संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और वेदांत पर भी जिनकी गहरी पकड थी। अपनी इस यात्रा में विवेकानंद इंग्लैंड से स्विट्जरलैंड, जर्मनी और नीदरलैंड तक जाकर पश्चिम के आध्यात्मिक जीवन को समझने की कोशिश करते हैं।
डॉ. कोहली हिंदी के लेखकों में सबसे अलग और ऊपर दिखते हैं। अपनी इस महत्वाकांक्षी उपन्यास श्रृंखला के साथ डॉ. कोहली छोटी-मोटी टिप्पणियां, संस्मरण और व्यंग्य आदि भी लिखते रहते हैं। समकालीन लेखकों के बीच अपनी उपस्थित बनाए रखने के लिए डॉ. कोहली नए-पुराने लेखकों की महत्वपूर्ण किताबें पढते रहते हैं ताकि खुद को समसामयिक सृजन और विचार-विमर्श से जोडे रख सकें। पिछले दिनों उन्होंने कई किताबें पढीं, जिनमें से कश्मीर की सुप्रसिद्ध रचनाकार क्षमा कौल का भारतीय ज्ञानपीठ से छपा उपन्यास दर्दपुर पढकर वे हतप्रभ रह गए। सीमा पार से प्रेरित आतंकवादी घटनाओं से घबराकर भागे कश्मीरी पंडितों की यातना का जो बेबाक चित्रण क्षमा कौल ने अपने इस उपन्यास में किया है, वह पाठक को दांतों तले अंगुली दबा लेने के लिए विवश कर देने वाला है। इसी तरह डॉ. कोहली किताबघर से छपे कविता सुरभि के उपन्यास सिद्धार्थ की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए बोले कि इधर स्त्री रचनाकारों ने लेखन में नई चमक बिखेरी है। देह के इर्द-गिर्द भटकते स्त्री विमर्श से परे और पार जाते हुए कविता सुरभि ने अपने इस उपन्यास में एक लडकी द्वारा पढाई-लिखाई के दौरान झेली जाने वाली यातना का तो मार्मिक चित्रण किया ही है, नौकरी पा जाने के बाद घर और बाहर की दोहरी योतना को भी समग्रता में पेश किया है। इस सबके बीच खुद को पतन की राह पर डाल देने के प्रलोभनों में फंसने की बजाय उपन्यास की नायिका ऊंचे आदर्शो की अटारी पर चढने की कोशिश करती है, जो समकालीन साहित्य परिदृश्य में रेखांकित किए जाने योग्य बात है। ऐसी रचनाएं ही स्त्री लेखन को आगे ले जाएंगी।
एक नजर में
6 जनवरी, 1940 को अविभाजित भारत के स्यालकोट (पंजाब) में जन्मे डॉ. नरेंद्र कोहली की शिक्षा-दीक्षा रामजस कॉलेज में हुई, जहां से उन्होंने हिंदी में एमए किया और फिर पीएचडी भी हासिल की। प्राध्यापक के रूप में पहले डीएवी कॉलेज से जुडे और फिर मोतीलाल नेहरू कॉलेज से संबद्ध रहकर छात्रों का ज्ञानवर्धन करते रहे। साथ में सृजनात्मक लेखन भी करते रहे। और फिर पचपन वर्ष की उम्र में प्राध्यापकी से स्वैच्छिक अवकाश ग्रहण कर पूर्णकालिक लेखक हो गए। डॉ. कोहली के नियमित लेखन-प्रकाशन का सिलसिला फरवरी, 1960 में प्रकाशित कहानी दो हाथ से शुरू हुआ, जो इलाहाबाद से छपने वाली श्रीपतराय की पत्रिका कहानी में छपी थी। उपन्यास, कहानी, नाटक, व्यंग्य और निबंध आदि सभी विधाओं में लिखते रहे हैं नरेंद्र कोहली। पारिवारिक और सामाजिक विषयों पर आधारित उपन्यासों का सृजन डॉ. कोहली करते जरूर रहे, लेकिन जब रामकथा पर आधारित उपन्यास अभ्युदय लिखा तो हिंदी पाठकों के बीच उसका अभूतपूर्व स्वागत हुआ। फिर कृष्णकथा पर आधारित अभिज्ञान आया, जिसकी कथा धार्मिक कम, राजनीतिक ज्यादा है, जिसमें निर्धन सुदामा को सामर्थ्यवान कृष्ण द्वारा सार्वजनिक रूप से मित्र स्वीकार किए जाते ही सामाजिक क्षेत्र में सुदामा की साख अपने आप बढ गई। महाभारत की कथा को आधार बनाकर डॉ. कोहली ने महासमर जैसा महाआख्यान सृजित किया, जो भारतीय जीवन दर्शन और व्यवहार को पूरी तरह से पाठक के सामने साकार कर देता है।
[बलराम]