Urmul: रेगिस्तान में जीवन को आसान बना रहा 'उरमूल', अकाल से जूझने वाले क्षेत्र में बदलाव की बयार
Urmul in desert. उरमूल रेगिस्तानी जिलों की 500 पंचायतों में 30 हजार से ज्यादा किसानों पशुपालकों बुनकरों और सामान्य परिवारों की जिंदगी को आसान बनाने की कोशिश में जुटा है।
जयपुर, मनीष गोधा। Urmul in desert. राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके में जीवन आसान नहीं है। पानी ही नहीं जीवन से जुड़ी लगभग हर चीज के लिए यहां संघर्ष करना पड़ता है। लोगों के इसी संघर्ष को कुछ हद तक आसान बना रहा है उरमूल यानी उत्तरी राजस्थान मिल्क यूनियन लिमिटेड। वर्ष 1972 में दूध उत्पादन करने वाले पशुपालकों की सहकारी समितियों से शुरुआत करने वाला यह संगठन 1984 में एक ट्रस्ट बना और राजस्थान के उत्तर-पश्चिमी हिस्से के रेगिस्तानी जिलों की 500 पंचायतों में 30 हजार से ज्यादा किसानों, पशुपालकों, बुनकरों और सामान्य परिवारों की जिंदगी को आसान बनाने की कोशिश में जुटा है।
अपने कार्यक्रमों के जरिये इसने बुनकरों और पशुपालकों की जिंदगी को तो बदला ही है, लेकिन सबसे बड़ा बदलाव हुआ है इस इलाके की 40 हजार बच्चियों की जिंदगी में। ये वो बच्चियां हैं जो उरमूल ट्रस्ट की ओर से लगाए गए बालिका शिविरों में रहीं और छह महीने में न सिर्फ पांच साल की पढ़ाई पूरी की, बल्कि नेतृत्व क्षमता हासिल कर खुद को आत्मनिर्भर भी बनाया। इनमें से कई बच्चियां बाद में इन्हीं के गांवों की सरपंच बनीं। ये आवासीय शिविर हुआ करते थे, जिनमें उन बच्चियों को प्रवेश दिया जाता था जो किसी कारण से पढ़ाई नहीं कर पाती थीं। इन बच्चियों को छह से सात महीने तक यहां रखकर पांचवीं तक की पढ़ाई करवाई जाती थी। उरमूल के इस प्रयास का सुपरिणाम अब यहां स्पष्ट देखा जा सकता है। शिक्षा और रोजगार के प्रति रुझान में आशातीत बढ़ोतरी हुई है।
उरमूल की शुरुआत 1972 में उस समय हुई जब देश को दूध के मामले में आत्मनिर्भर बनाने के लिए ऑपरेशन फ्लड का दूसरा चरण चल रहा था। राजस्थान के बीकानेर, चूरू, श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ का एक हिस्सा, ये देश के उन क्षेत्रों में गिने जाते थे जहां सबसे ज्यादा और सबसे अच्छी गुणवत्ता का दूध उत्पादन होता था। उरमूल ट्रस्ट की स्थापना के समय से ही इससे जुड़े अरविंद ओझा बताते हैं कि उस दौर में बीकानेर से रोजाना 12 रेल टैंकर दूध दिल्ली भेजा जाता था। उरमूल के जरिये यहां के दूध उत्पादकों को संगठित किया गया और उसी दौरान इससे जुड़े लोगों को लगा कि उरमूल दूध उत्पादकों के पशुओं के चारे-पानी और स्वास्थ्य की चिंता तो करती है, लेकिन दूध उत्पादकों यानी पशुपालकों के जीवन और स्वास्थ्य के बारे भी कुछ किया जाना चाहिए। यहां से कुछ लोग गुजरात के आणंद स्थित अमूल डेयरी गए, जो तब तक इस क्षेत्र का मॉडल संस्थान बन चुका था।
ओझा बताते हैं कि काम शुरू हुआ पशुपालकों के स्वास्थ्य और सुरक्षित प्रसव की गतिविधियों से, लेकिन इसी दौरान 1987 में पश्चिमी राजस्थान में जबरदस्त अकाल पड़ा। लोगों के पास न अनाज रहा, न पानी और न चारा। बड़ी संख्या में लोगों ने यहां से पलायन किया और उसी दौरान यह महसूस किया गया कि ऐसे हालात में लोगों के जीवनयापन के लिए भी कुछ किया जाना चाहिए। गांवों के दौरे किए तो कई घरों में हमें चरखे पड़े मिले। बातचीत की तो पता लगा कि यहां के लोग बुनकर भी हैं। उरमूल ने अकाल के उस दौर में लोगों को यह काम बड़े पैमाने पर करने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्हें तकनीकी सहयोग दिलाया, कातने के लिए ऊन दिलाया और काम शुरू हो गया।
महिलाओं के स्वयं सहायता समूह बनाए और इन परिवारों को जीवनयापन का एक जरिया मिला। इन गांवों की बुजुर्ग महिलाएं बहुत अच्छी कशीदाकारी जानती थीं। इस काम को भी बुनकरों के काम से जोड़ा गया और इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ डिजाइन से डिजाइनर और मार्केटिंग करने वाले लोगों को इनके सामान की डिजाइनिंग और मार्केटिंग के लिए लाया गया। आज ये परिवार अपने स्वयं सहायता समूहों के जरिए बेहतर ढंग से जीवनयापन कर पा रहे हैं।
बीकानेर से हुई थी शुरुआत
राजस्थान के बीकानेर जिले से इसकी शुरुआत हुई थी तो इसका मुख्य केंद्र बीकानेर जिला ही है। इसके लूणकरणसर, बज्जू, छत्तरगढ़ सहित चूरू के सरदारशहर, जोधपुर के फलौदी और जैसलमेर व नागौर के कुछ हिस्सों में यह ट्रस्ट अपनी विभिन्न सहयोगी संस्थाओं उरमूल सेतु, उरमूल सीमांत, बुनकर विकास समिति, उरमूल खेजड़ी, वसुंधर, उरमूल ज्योति और अभिव्यक्ति के माध्यम से यहां के लोगों के स्वास्थ्य, पशुओं की देखभाल, पशुओं की उन्नत नस्ल तैयार करना, बालिका शिक्षा, बाल विवाह प्रथा उन्मूलन जैसी कई गतिविधियां कर रहा है। ओझा कहते हैं, हमारी कोशिश रही है कि जटिल भौगोलिक-प्राकृतिक परिस्थितियों से जूझते यहां के लोगों की जिंदगी को कुछ हद तक आसान बनाया जाए।