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मिट्टी के दीयों की मांग घटने के बावजूद इनके लिए दिवाली लाती हैं खुशियां

पिछले दो-तीन दशकों से मिट्टी के दीयों की मांग घटती गई लेकिन कुछ सालों से लोग फिर से मिट्टी के दीये खरीदने लगे हैं।

By Bhupendra SinghEdited By: Published: Mon, 14 Oct 2019 12:30 AM (IST)Updated: Mon, 14 Oct 2019 12:30 AM (IST)
मिट्टी के दीयों की मांग घटने के बावजूद इनके लिए दिवाली लाती हैं खुशियां
मिट्टी के दीयों की मांग घटने के बावजूद इनके लिए दिवाली लाती हैं खुशियां

उदयपुर [ सुभाष शर्मा ]। दिवाली कई लोगों के लिए अतिरिक्त खुशियां लाती है, जिनमें मिट्टी के दीये बनाने वाले लोग भी शामिल हैं। किंतु इस साल 90 फीसदी गिरावट के बावजूद मिट्टी के दीये बनाने वाले निराश नहीं हैं। उनका कहना है कि पिछले कुछ सालों से मिट्टी के दीपकों के खरीदारों में वृद्धि हुई है जो उनके लिए संतोषजनक है।

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मिट्टी के दीये बनाने वालों की कमी

उदयपुर में मिट्टी के दीये बनाने वाले परिवारों की संख्या एक दशक में तेजी से गिरी है। मिट्टी के बर्तन बनाने वाले बुजुर्ग गौरीशंकर प्रजापत बताते हैं कि पिछले दो-तीन दशकों से मिट्टी के दीयों की मांग घटती गई, लेकिन कुछ सालों से लोग फिर से मिट्टी के दीये खरीदने लगे हैं। अब मिट्टी के दीये बनाने वाले परिवार एक दर्जन से अधिक भी नहीं रहे। पहले इनकी संख्या सैकड़ों में थी। वे मानते हैं जब से बाहर से रेडिमेड एवं आकर्षक दीये बाजार में आने लगे हैं, उनके द्वारा तैयार दीपक की मांग भी बढऩे लगी है। आयातित एक दीपक की कीमत में उनके द्वारा तैयार दस दीपक बिकते हैं।

मिट्टी नहीं मिलने से दस फीसदी दीये तैयार

उन्होंने बताया कि पिछले साल के मुकाबले इस साल महज दस फीसदी ही दीये तैयार किए जा रहे हैं। सावन की जगह भादों में हुई बारिश की वजह से उन्हें ऐसी मिट्टी नहीं मिल पाई जिससे दीये तैयार किए जा सके। जो स्टॉक उनके पास था, उसी से दीये बनाए गए हैं। मिट्टी के बर्तन या दीये के लिए तालाब के पैदें में पाई जाने वाली चिकनी मिट्टी चाहिए, जो इस बार नहीं मिल पाई। जो परिवार पहले खुद मिट्टी के दीये बनाकर बेचते थे, वह अब आयातित दीये बेचने लगे हैं।

दिवाली पर दीये बोनस हैं

मिट्टी से बर्तन तथा कई तरह के आकर्षक डिजाइन बनाने वाले परिवार बताते हैं कि दिवाली पर दीये बनाना तो उनके लिए बोनस हैं। उदयपुर पर्यटकों की नगरी है और यहां मिट्टी के कई आकर्षक डिजाइन पर्यटक अच्छे दामों में खरीदकर ले जाते हैं। जिनमें मोलेला का शिल्प भी शामिल हैं। ज्यादातर मृण शिल्पी अब बर्तन बनाने की बजाय ऐसे शिल्प तैयार करते हैं जिनकी बिक्री से उन्हें अच्छे दाम मिलें। इसलिए वह मानते हैं कि दिवाली पर दिए तो उनके लिए बोनस की तरह है। हालांकि, उन्हें इनकी बिक्री से उतना लाभ नहीं मिलता, लेकिन वह खुश हैं कि उनके प्रयासों से भारतीय परंपरा जीवित है।


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