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पुश्तैनी व्यवसाय की पहचान को रखना चाहते है कायम

दीपावली पर्व को मुख्य रखते हुए मिट्टी के घड़े सुराहीयां व दीये बनाने वाले कारीगर इन दिनों काफी परेशानी भरा जीवन जीने को मजबूर है। पहले जहां दीपावली का पर्व आते ही उनके परिवार वालों के चेहरों पर रोनक आ जाती थी। अब आधुनिक तकनीक से आ रहे इलेक्ट्रोनिक समान ने इन का कारोबार पूरी तरह चौपट कर के रख दिया है। प्रशासन से भी इनको कोई मदद नही मिल रही।

By JagranEdited By: Published: Mon, 26 Oct 2020 11:55 PM (IST)Updated: Mon, 26 Oct 2020 11:55 PM (IST)
पुश्तैनी व्यवसाय की पहचान को रखना चाहते है कायम
पुश्तैनी व्यवसाय की पहचान को रखना चाहते है कायम

संस, राजपुरा (पटियाला) : दीपावली पर्व को मुख्य रखते हुए मिट्टी के घड़े, सुराहीयां व दीये बनाने वाले कारीगर इन दिनों काफी परेशानी भरा जीवन जीने को मजबूर है। पहले जहां दीपावली का पर्व आते ही उनके परिवार वालों के चेहरों पर रोनक आ जाती थी। अब आधुनिक तकनीक से आ रहे इलेक्ट्रोनिक समान ने इन का कारोबार पूरी तरह चौपट कर के रख दिया है। प्रशासन से भी इनको कोई मदद नही मिल रही।

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जगदीश चंद पिछले पचीस वर्ष से मिट्टी के बर्तन, दिये व अन्य समान बनाने का कार्य कर रहा है। इससे उनके चार परिवार मेहनत से उनके व्यवसाय में हाथ बंटाते हैं। बाजार में नए नए उपकरण आने से उनका व्यवसाय दम तोड़ता नजर आ रहा है। जगदीश कुमार ने बताया कि पिछले पांच दशकों से हमारे परिजन मिट्टी के घड़े बर्तन आदि बनाने का कार्य कर रहें हैं। इसमें दीये गमले, गोलक, तंदूर कसोरे, आदि के अलावा अब आधुनिक तकनीक से घड़े भी तैयार कर रहे हैं।

पाकिस्तान से उजड़ कर आए उक्त परिवार जो राजपुरा में बस गया व अपने पुस्तैनी व्यवसाय को समाप्त होते नहीं देखना चाहता। इसके चलते कड़ी मेहनत के बावजूद भी उन्हें पूरा मेहनताना नही मिल पाता। इनके परिवार की बुजुर्ग महिला का कहना है कि हमारे परिवार के मुखिया ग्यासी राम ने देश विदेश में मिट्टी के बरतनों का कारोबार कर अपनी विशेष पहचान बनाई थी। अब वह काफी थक चुकी हैं। उसके बच्चे इस कार्य को अभिशाप समझने लगे है।

कारोबार में अब फायदा नहीं रहा : शीला देवी

शीला देवी का कहना है कि पिछले बीस वर्ष से यह कारोबार कर रहें है। कोई फायदा ना होने से हम अपना कारोबार बंद करने के बारे में सोच रहें है। किरण का कहना है कि आज से दो दशक पहले मिट्टी के दीये, करवे, गड़बड़े, हटड़े, बनाने के लिए हमे छह माह पहले ही कार्य शुरू कर देना पड़ता था। दस परिवार एक साल तक रोजी रोटी अच्छी तरह से कमा लेते थे। मिट्टी की ट्राली हमे पहले पांच सौ से 1000 रुपये तक मिलती थी अब वह हमे 5000 से लेकर 8000 रुपये तक खरीदनी पड़ रही है। ग्राहक हमें सही दाम नही दे पाता ।


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