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परोपकार करने से आत्मा प्रफुल्लित होती है : स्वामी दिव्यानंद जी

स्वामी दिव्यानंद गिरि जी ने माघ महात्म्य कथा दौरान प्रवचनों की अमृतवर्षा की।

By JagranEdited By: Published: Sun, 28 Feb 2021 03:23 PM (IST)Updated: Sun, 28 Feb 2021 03:23 PM (IST)
परोपकार करने से आत्मा प्रफुल्लित होती है : स्वामी
दिव्यानंद जी
परोपकार करने से आत्मा प्रफुल्लित होती है : स्वामी दिव्यानंद जी

संवाद सूत्र, श्री मुक्तसर साहिब :

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स्वामी दिव्यानंद गिरि जी ने माघ महात्म्य कथा दौरान प्रवचनों की अमृतवर्षा करते हुए कहा कि जो कला आत्म साक्षात्कार करने से रोके, वह कला नहीं व्यापार है। कला वही है जो बाह्य नही बल्कि अंतर यात्रा तक ले जाए। परोपकार करने से मनुष्य की आत्मा उन्नत और प्रफुल्लित होती है। परोपकार करना बहुत अच्छा है, परोपकार न भी हो तो चलेगा पर जीवन में ऐसा कोई कर्म न हो जाए जिससे सामने वाला हमें बद्दुआ दे। परोपकारी व्यक्ति न ही किसी को दुखी देख सकता है और न ही स्वयं दुखी रह सकता है। दूसरों को सुखी करने की भावना भगवान की सच्ची भक्ति है। स्वामी जी ने ये विचार अबोहर रोड स्थित श्री मोहन जगदीश्वर दिव्य आश्रम में माघ महात्म्य कथा के दौरान प्रवचनों की अमृतवर्षा करते हुए श्रद्धालुओं के विशाल जनसमूह के समक्ष व्यक्त किए। स्वामी ने कहा कि इंसान की सबसे बड़ी ताकत उसकी सोच होती है। मनुष्य जैसी सोच रखेगा, वैसा ही बनेगा। बड़ी सोच का बड़ा जादू होता है। बड़ी सोच राम सेतु का काम करती है। सकारात्मक विचारधारा से परिवार, समाज में आनंद व संगठन बना रहता है। इस मौके बड़ी गिनती में श्रद्धालुओं ने पहुंचकर स्वामी दिव्यानंद गिरि जी एवं विवेकानंद जी से आशीर्वाद प्राप्त किया।

जब तक हृदय में नहीं उतरती, समझ नहीं आती कथा

भागवत कथा दौरान स्वामी विवेकानंद जी ने कहा कि लोग कथा में आकर तो बैठ जाते हैं, मगर कथा उनके ह्दय में नहीं बैठ पाती। जिस दिन कथा ह्दय में बैठ जाएगी, उस दिन जन्म-जन्मांतरों, कल्प-कल्पांतरों के पाप कर्म धुल जाएंगे। स्वामी जी ने कहा कि व्यक्ति में जैसे-जैसे विद्या का विकास होता है वह उतना ही नम्र होता जाता है। विद्या विहीन व्यक्ति का आचरण भी रुखा और शिष्टताविहीन होता है। विद्वान वहीं होता है जो शास्त्रों को पढ़ने के उपरांत उसके अनुसार कर्म करें। संसार में मनुष्य एक कर्म से छुटकारा पाने के लिए दूसरा कर्म करता है। यही दूसरा कर्म अन्य कर्मों को जन्म देता है और जीव के लिए बंधन तथा दु:ख का कारण बनता है। उन्होंने कहा कि एक बीज से वृक्ष की उत्पत्ति होती है। उस वृक्ष द्वारा कितने ही बीजों की उत्पत्ति होती है। फिर उन बीजों द्वारा कितने ही नए वृक्ष पैदा होते हैं परंतु अगर बीज को आग में डाल दिया जाए तो वह नष्ट हो जाएगा और फिर उसमें से वृक्ष पैदा होने का सवाल ही नहीं उठता। ठीक इसी प्रकार कर्मों के बंधन और दुखों से छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय है, सिर्फ प्रभु का नाम सिमरन करना। इसके जरिए ही जीव कर्मों और दुखों के बंधन से छुटकारा प्राप्त कर सकता है। विवेकानंद जी ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति में अच्छे और बुरे संस्कार होते हैं। बुरे संस्कारों के स्थान पर अच्छे संस्कारों को जगाने से व्यक्ति पाप से बचता है तथा आनंदमयी जीवन व्यतीत करता है।


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