अतिथि का न करें कभी अनादर
स्वामी कमलानंद गिरि जी ने कार्तिक महात्म्य सुनाते हुए कहा कि प्राचीन काल में कार्तिक महात्म्य श्रावण महात्म्य वैशाख महात्म्य एवं माघ महात्म्य केवल आमजन ही नहीं सुना करते थे बल्कि बड़े-बड़े चक्रवर्ती सार्वभौमिक सम्राट भी इन माह के महात्म्य का श्रवण करते थे।
संवाद सूत्र, श्री मुक्तसर साहिब : स्वामी कमलानंद गिरि जी ने कार्तिक महात्म्य सुनाते हुए कहा कि प्राचीन काल में कार्तिक महात्म्य, श्रावण महात्म्य, वैशाख महात्म्य एवं माघ महात्म्य केवल आमजन ही नहीं सुना करते थे बल्कि बड़े-बड़े चक्रवर्ती सार्वभौमिक सम्राट भी इन माह के महात्म्य का श्रवण करते थे। तुलसी, पीपल, आंवला लगाकर सभी लोग पुण्य अर्जित करते थे। स्वामी ने ये बातें श्री राम भवन में चल रहे वार्षिक कार्तिक महोत्सव के दौरान वीरवार को श्रद्धालुओं के विशाल जनसमूह के समक्ष प्रवचनों की अमृतवर्षा करते हुए कही।
स्वामी जी ने अतिथि सेवा का महत्व बताते हुए कहा कि अतिथि वह है जो अपरिचित हो एवं घर पर आकस्मिक आए। प्राचीन काल में अतिथि को विशेष रूप से भगवान का स्वरूप मानकर पूजा जाता था। ब्रह्म मुहूर्त में पूजा के समय, दोपहर भोजन के समय एवं रात्रि विश्राम काल में जो आए और आश्रय मांगे तो उसको ऐसा कुछ न कहें, जिससे उसकी आत्मा को ठोकर लगे और वो हमारे द्वारा किए गए पुण्यों को लेकर चला जाए। यदि हम आए अतिथि को कुछ दे नहीं सकते तो उसका अनादर भी नहीं करना चाहिए।
स्वामी जी ने कहा कि परमात्मा पदार्थो के नहीं प्रेम के भूखे हैं, सजावट के नहीं बल्कि श्रद्धा के भूखे हैं। महाराज जी ने कार्तिक महात्म्य के तहत एक दृष्टांत सुनाते हुए बताया कि पूर्व काल में चौल देश के राजा बड़े धर्मात्मा और भगवान नारायण की पूजा करने वाले थे। एक दिन बड़ी श्रद्धा के साथ वे ताम्रपर्णी नाम नदी में बने चक्ररथ मंदिर में स्वर्ण कमलों से भगवान की पूजा कर रहे थे। इतने में विष्णुदास नाम का एक ब्राह्मण तुलसी के पत्तों से राजा के स्वर्ण कमलों के ऊपर आच्छादित कर दिया। अर्थात राजा के चढ़ाए स्वर्ण कमलों के ऊपर अपने चढ़ाए तुलसी पत्र रख दिया। राजा ने क्रोधित होकर ब्राह्मण से कहा हे दरिद्र ब्राह्मण! तुम्हें भक्ति का अहंकार हो गया। इसलिए मेरे द्वारा चढ़ाए हुए रत्न मंडित कमल के पुष्पों को तुमने अपने तुलसी पत्तों से ढक दिया। तुम्हें पूजा तो आती नहीं तुम अभिमानी हो। विवाद बढ़ गया। राजा में और ब्राह्मण में शर्त लग गई कि किसको पहले भगवान दर्शन देंगे। राजा ने मुद्गल ब्राह्मण को आचार्य बनाकर बहुत सारे ऋषियों को बुलाकर अन्न-धन युक्त विराट यज्ञ प्रारंभ किया। जबकि विष्णुदास नामक ब्राह्मण उसी मंदिर में रहकर अंतर्मन से भगवान की स्तुति करने लगा। ब्राह्मण की भावना व श्रद्धा पूर्वक की गई स्तुति, प्रार्थना और पूजन से भगवान शीघ्र प्रसन्न हो गए और ब्राह्मण को मुक्ति देकर अपने लोक में ले गए। राजा ने भगवान के साथ ब्राह्मण को जाते हुए देखा तो मन में ग्लानि करते हुए पश्चाताप से राजा ने उसी यज्ञ कुंड में अपने शरीर को हवन कर दिया। इस महान त्याग को देखकर भगवान प्रकट हुए राजा को यज्ञ कुंड से निकालकर विमान में बिठाकर उसे भी बैकुंठ ले गए। दोनों को बैकुंठ का द्वारपाल बनाया। विष्णु दास का नाम पुण्यशील हुआ और चौल राजा सुशील नाम से भगवान के द्वारपाल प्रसिद्ध हुए।