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पिछले 17 सालों से समानता के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं अशोक महिद्रा

करीब 49 वर्षीय अशोक महिदरा ने बताया कि लोगों के बीच असमानता उन्हें चैन से नहीं बैठने देती है।

By JagranEdited By: Published: Sun, 23 Jan 2022 04:58 PM (IST)Updated: Sun, 23 Jan 2022 04:58 PM (IST)
पिछले 17 सालों से समानता के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं अशोक महिद्रा
पिछले 17 सालों से समानता के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं अशोक महिद्रा

जागरण संवाददाता, श्री मुक्तसर साहिब : अशोक महिद्रा किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था, भीम क्रांति, दलित महापंचायत जैसी अनेक संस्थाओं को साथ जुड़कर वह पिछले करीब 17 सालों से दबे-कुचले, गरीब एवं अन्य जरूरतमंद लोगों के लिए समानता के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं। बेशक इस संघर्ष के दौरान उन्हें अनेक बार दिक्कतों का सामना भी करना पड़ता है, लेकिन इसके बावजूद वह कभी अपने उद्देश्य से नहीं भटकते और अपना संघर्ष निरंतर जारी रखते हैं।

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करीब 49 वर्षीय अशोक महिदरा ने बताया कि लोगों के बीच असमानता उन्हें चैन से नहीं बैठने देती है। आजादी के इतने सालों के बाद भी रोटी, कपड़ा और मकान एक समस्या ही बनी हुई। अमीर और अमीर होता जा रहा है, गरीब और गरीब होता जा रहा है। इस असमानता को दूर करने के लिए ही देश में आरक्षण लागू किया गया था। यह आरक्षण हालांकि कुछ वर्षों के लिए ही लागू किया गया था, ताकि असमानता दूर हो सके। लेकिन इतने सालों से लगातार आरक्षण लागू होने के बावजूद असमानता ज्यों कि त्यों बनी हुई है। गरीबों और अमीरों के बीच पड़ा हुआ बहुत बड़ा गैप खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। जबकि इस देश में रोटी, कपड़ा और मकान प्रत्येक व्यक्ति का एक मौलिक अधिकार है। लेकिन वह भी उसे नहीं मिल पा रहा है। हालांकि देश की हर सरकार की ओर से इस पाड़े को खत्म करने के लिए योजनाएं चलाई जाती हैं, लेकिन हालात वैसे ही बने हुए हैं। दरअसल यह योजनाएं कागजों में ही रह जाती हैं, जमीनी स्तर पर सही ढंग से लागू ही नहीं हो पाती हैं।

अशोक महिद्रा कहते हैं कि महिलाओं को बराबरी के अधिकार दिए जाने की बातें की जाती है। बेशक महिलाएं पुरुषों के बराबर हरेक ऊंचे मुकाम तक पहुंच रही हैं, लेकिन इसके बावजूद बहुतेरी महिलाएं आज भी हमारे देश में बेचारी ही हैं।

उन्होंने कहा कि महिलाएं चाहे सरपंच बन रही हैं, पार्षद बन रही हैं। लेकिन यह चुने जाने के बाद भी केवल स्टैंप बनकर रह जाती हैं। पंचायतों में व नगर पालिका दफ्तरों में उनके पति ही प्रतिनिधित्व करते हैं। अशोक महिद्रा का कहना है कि दबे-कुचले, गरीब और अन्य जरूरतमंद लोगों के लिए संघर्ष के दौरान वह कई बार अकेले पड़ जाते हैं, लेकिन इसके बावजूद उन्हें कभी निराशा नहीं होती। वह इंसाफ मिलने तक अपना संघर्ष निरंतर जारी रखते हैं।


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