घर का चिराग बुझा तो बुजुर्ग एडवोकेट चन्द्रभान ने ज्ञान से रोशन की झुग्गी बस्ती
। 25 साल की उम्र में ही अपने होनहार केमिकल इंजीनियर बेटे को खो देने के गम ने 84 साल के एडवोकेट चन्द्रभान खेड़ा की जिंदगी ही बदल दी।
सत्येन ओझा.मोगा
25 साल की उम्र में ही अपने होनहार केमिकल इंजीनियर बेटे को खो देने के गम ने 84 साल के एडवोकेट चन्द्रभान खेड़ा की जिंदगी ही बदल दी। परिवार का चिराग बुझा तो झुग्गी बस्ती में अज्ञानता के अंधियारे में ज्ञान की शमां रोशन कर दी। खेड़ा साल 2002 से
कचरा बीनने वाले झुग्गी बस्ती के बच्चों के लिए सूरजपुर उत्तरी में 'द विदरिग रोजेज चाइल्ड केयर सेंटर' के नाम से स्कूल चला रहे हैं। करीब 200 बच्चे उनके स्कूल में पढ़ रहे हैं, जिनकी पढ़ाई के साथ ही उनकी ड्रेस, मिड-डे मील, दूध सहित सब कुछ खेड़ा उपलब्ध कराते हैं।
बुजुर्ग एडवोकेट का ये जज्बा देख अब डा.सैफुद्दीन किचलू सीनियर सेकेंडरी स्कूल, कैंब्रिज इंटरनेशनल स्कूल, आरकेएस पब्लिक सीनियर सैकेंडरी स्कूल ही नहीं यहां डीसी रह चुके संदीप हंस भी खेड़ा के स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के मददगार बन चुके हैं। पांचवी कक्षा से आगे की पढ़ाई इन्हें शहर के तीनों माडल व पब्लिक स्कूल करवा रहे हैं। उनकी प्रतिभा को निखारने का काम करते हैं। 20 साल के इस सफर में कुछ बच्चे, बच्चियां बीएससी, बीएससी नर्सिंग डिग्री हासिल कर अपने करियर की शुरूआत कर रहे हैं।
आंखों में भरे ऊंची उड़ान के सपने
कचरे में ही अपने सपने की जिदगी बुनने वाली आंखों में कभी आसमान की उड़ान भरने के ख्वाब भी आएंगे, झुग्गी बस्ती के इन बच्चों के लिए खेड़ा ने ये कर दिखाया। इस मुकाम तक पहुंचने के लिए चन्द्रभान खेड़ा के लिए पहले दो साल बहुत कठिन थे। खेड़ा झुग्गी बस्ती में बच्चों को स्कूल भेजने के लिए झुग्गी में जाते थे तो वहां लोग या तो उनकी बात नहीं सुनते थे, या फिर बच्चों को स्कूल भेजने से साफ मना कर देते थे, लेकिन खेड़ा ने हिम्मत नहीं हारी, वे बार-बार झुग्गी में जाते रहे। एक बार तो झुग्गी बस्ती के लोगों ने खेड़े पर हमला करने का भी प्रयास किया, लेकिन वे बच गए, फिर भी कोशिश में जुटे रहे। आखिर दो साल बाद उन्हें सफलता मिली और बच्चों का स्कूल में आना शुरू हो गया। उसके बाद शुरू हुआ शिक्षा दिलाने का सिलसिला आज भी जारी है। डीसी संदीप हंस यहीं मनाते थे जन्मदिन
स्कूल में अब करीब 200 के करीब बच्चे हो चुके हैं। आइएएस संदीप हंस जब तक यहां डीसी रहे, वे अपना हर जन्मदिन इन्हीं झुग्गी बस्ती के बच्चों के संग परिवार के साथ आकर मनाया करते थे, उन्हें उपहार भेंट करते थे। दीवाली भी हंस की यहीं मनती थी। एक बुजुर्ग एडवोकेट का जज्बा ही था कि इन्हीं झुग्गी बस्तियों से निकलीं दो बेटियों मधु व पुनीता ने तो आरक्षण की बैसाखियों को ठुकराकर रिजर्व कोटे से होकर भी सामान्य वर्ग के रूप में दो साल पहले भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय की 'नेशनल मींस कम मेरिट स्कालरशिप' की परीक्षा देकर क्वालीफाई किया था। मधु ने साइंस कालेज जगराओं में बीएससी की, जबकि पुनीता भी ग्रेजुएशन कर रही हैं। कैसे शुरू हुआ सफर
चन्द्रभान खेड़ा के बेटे अमित खेड़ा केमिकल इंजीनियर थे, वह पुणे की एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करते थे। पेनक्रियाज में इन्फेक्शन के चलते महज 25 साल की उम्र में 28 मार्च 2000 को उनका निधन हो गया था। जवान बेटे के निधन के बाद पूरा परिवार सदमे में था। तब बेटे का संस्कार करने के बाद एडवोकेट चन्द्रभान खेड़ा ने अपने परिवार के दूसरे सदस्यों की सहमति पर फैसला लिया कि जवान बेटे के चले जाने का गम वे समाज के सबसे कमजोर वर्ग में शिक्षा का उजियारा बिखेरकर दूर करेंगे।
आरक्षण की बैसाखी तोड़ खुद को साबित किया
खेड़ा के स्कूल में आने वाले बच्चे ज्यादातर रिजर्व कैटगरी से आते हैं, लेकिन खेड़ा का जुनून है कि वे उन्हें स्कूल में योग्य बनाकर अपनी प्रतिभा के बल पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं, उसी का परिणाम था यहां के बच्चे आगे की पढ़ाई के लिए नेशनल स्कॉलरशिप का टेस्ट रिजर्व कोटे से नहीं जनरल कोटे से देते हैं। चन्द्रभान खेड़ा बताते हैं कि बच्चों को पूरे जीवन ये न लगे कि आरक्षण की बैसाखी पर चलकर आगे बढ़े हैं, यही वजह है कि उन्हें सामान्य वर्ग से ही स्कालरशिप के लिए आवेदन कराते हैं।