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अब नई तकनीक से कम पानी में भी लहलहाएगा धान, दोगुना होगा उत्पादन Ludhiana News

पंजाब में कम रेनफाल वाले इलाकों में होशियारपुर फिरोजपुर मुक्तसर मानसा व बठिंडा आते हैं। यहां प्रति वर्ष 320 से 500 मिलीमीटर तक बारिश होती है।

By Edited By: Published: Wed, 16 Oct 2019 06:30 AM (IST)Updated: Wed, 16 Oct 2019 02:16 PM (IST)
अब नई तकनीक से कम पानी में भी लहलहाएगा धान, दोगुना होगा उत्पादन Ludhiana News
अब नई तकनीक से कम पानी में भी लहलहाएगा धान, दोगुना होगा उत्पादन Ludhiana News

लुधियाना [आशा मेहता]। पंजाब में भूजल स्तर तेजी से गिर रहा है। खेती किसानी के जानकार गिरते भूजल स्तर के लिए धान की खेती को जिम्मेदार मान रहे है। ऐसे में सूबे के वैज्ञानिक कम पानी से धान की खेती को लेकर अलग विकल्प तलाश रहे हैं। ऐसा ही एक कारगर विकल्प लेकर आठवीं एशियन आस्ट्रेलिएशन कांफ्रेंस में पहुंचे हैं मध्यप्रदेश के बालाघाट स्थित जवाहर लाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर के सॉयल एंड वॉटर इंजीनियरिंग विभाग के वैज्ञानिक। जो कि कम बीज और कम पानी में धान का अधिक उत्पादन प्राप्त करने को लेकर सिस्टम ऑफ राइस इंटेंसीफिकेशन (एसआरआइ) तकनीक को प्रोत्साहित कर रहे हैं।

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छिंदड़वाड़ा में आए अच्छे परिणाम

वैज्ञानिकों का कहना है कि इस तकनीक को जब उन्होंने छिंदड़वाड़ा जिले में पहली बार इंटरड्यूस किया, तो उसके काफी अच्छे परिणाम आए हैं। धान के उत्पादन में दो गुणा वृद्धि देखी गई। वैज्ञानिकों का कहना है कि पंजाब में यह तकनीक अपलैंड एरिया जहां पर कम रेनफाल होती है और जहां लाइट सॉयल है, वहां पर यह कारगर हो सकती है।

एसआरआइ तकनीक से लगाए धान में कम लगता है पानी

जवाहर लाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर के सॉयल एंड वॉटर इंजीनियरिंग विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. घनश्याम देशमुख ने बताया कि एसआरआइ तकनीक में ट्रांसप्लांटिंग का मैथड़ व समय महत्वूपर्ण है। इसमें पौधे से पौधा 25 सेंटीमीटर और कतार से कतार 25 से 25 सेंटीमीटर रखते हैं।  सही दूरी व सही कतार पर ही धान की ट्रांसप्लांटिंग हो, उसे सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने जवाहर पैडी प्लांट मार्कर भी बनाया है। इस तकनीक में ट्रांसप्लांटिंग महत्वपूर्ण है। पनीरी लगाने के 14 से 18 दिन के अंदर ट्रांसप्लांटिंग करनी होती है। इससे अधिक टिलर्स मिलते हैं। एक पौधे से जो दूसरे मदर प्लांट निकलते हैं, उसे टिलर्स कहते हैं। एसआरआइ तकनीक से रोपित किए गए धान के एक पौधे से तीस से चालीस टिलर्स प्राप्त होते हैं। जबकि ट्रेडिशनल तरीके से रोपित किए गए धान के एक या दो पौधे से केवल 10 से 12 टिलर्स ही मिलते हैं। यानी टिलर्स जितने अधिक होंगे, धान की बालियां उतनी ही ज्यादा आएंगी तो उपज अधिक होगी। कोनोवीडर व रोटरी वीडर की सहायता से जब ट्रांसप्लांटिंग के बीस से पच्चीस दिन के अंदर निराई-गुड़ाई की जाती है, तो इससे धान के पौधो में अच्छा एयर सरकुलेशन होता है। जिससे धान के पौधे की ग्रोथ अच्छी होती है। इस तकनीक का सबसे बड़ा फायदा यह है कि धान की रोपाई के बाद खेत में बहुत ज्यादा पानी खड़ा रखने की जरूरत नहीं होती। खेत में केवल उतना पानी होना चाहिए, जिससे जमीन में नमी बनी रहे। जिससे पानी की बहुत बचत होती है।

एसआरआइ से बीज भी लगता है कम

डॉ. घनश्याम देशमुख के अनुसार एसआरआइ से धान की खेती करने पर बीज कम लगता है। शोध में देखा है कि जब एसआरआइ में प्रति एकड़ दो से पांच किलोग्राम धान का बीज लगता है। जबकि ट्रेडिशनल तकनीक से धान लगाने में प्रति एकड़ 12 से 20 किलोग्राम बीज चाहिए होता है। ऐसे में इस तकनीक से बीज की भी बचत होती है। एसआरआइ तकनीक से लगाए धान की उत्पादकता अधिक डॉ. घनश्याम ने कहा कि एसआरआइ तकनीक को प्रोत्साहित कर रहे हैं। इस समय मध्यप्रदेश के छिंदड़वाड़ा और सहडोल में करीब 600 से अधिक किसानों ने एसआरआइ तकनीक अपनाई है। छिंदड़वाड़ा में 120 किसानों से एकत्रित किए गए डेटा की माने तो एसआरआइ तकनीक में धान की औसत उत्पादकता 35.54 क्विंटल प्रति हेक्टेयर रही। जबकि ट्रेडिशनल तरीके से लगाई गई धान की जिला स्तर पर औसत उत्पादकता 22.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर थी। किसानों की औसत लागत 15127.68 रुपये प्रति हेक्टेयर थी, जबकि आमदनी 42796.25 रुपये रही।

पंजाब में इन जिलों में होती है कम बरसात

इंडिया मेट्रोलॉजिकल डिपार्टमेंट चंडीगढ़ के डायरेक्टर डॉ. सुरिंदरपाल के अनुसार पंजाब में कम रेनफाल वाले इलाकों में होशियारपुर, फिरोजपुर, मुक्तसर, मानसा व बठिंडा आते हैं। यहां प्रति वर्ष 320 से 500 मिलीमीटर तक बारिश होती है। दूसरी तरफ पीएयू के वैज्ञानिकों की माने तो पंजाब में ज्यादातर जगहों पर लाइट (हल्की) सॉयल है।

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