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जो व्यक्ति क्षमा देता व क्षमा लेता व सच्चा आराधक : सुरेंद्र मुनि

एसएस जैन स्थानक किचलू नगर में राजस्थान प्रवर्तक राजेंद्र मुनि व सुरेंद्र मुनि सुखसात विराजमान है।

By JagranEdited By: Published: Thu, 13 Aug 2020 06:00 AM (IST)Updated: Thu, 13 Aug 2020 06:00 AM (IST)
जो व्यक्ति क्षमा देता व क्षमा लेता व सच्चा आराधक : सुरेंद्र मुनि
जो व्यक्ति क्षमा देता व क्षमा लेता व सच्चा आराधक : सुरेंद्र मुनि

संस, लुधियाना : एसएस जैन स्थानक किचलू नगर में राजस्थान प्रवर्तक राजेंद्र मुनि व सुरेंद्र मुनि सुखसात विराजमान है। इस अवसर पर राजेंद्र मुनि ने जीवन में त्याग, पचक्खान एंव मर्यादा नहीं, उसका जीवन पशु से भी निम्न स्तर का माना गया है। संयमी व्यक्ति भले शारीरिक दृष्टि से कुरूप भी क्यों न हो, पर उसके जीवन की अच्छाई उसकी बाध्य कुरुपता को दूर कर देती है।

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ऐसा कहा जाता है। महान दार्शनिक सुक्रात देखने में कुरूप थे। पर वे अच्छाई और सदगुणों के कारण आज भी याद किए जात हैं। भक्ति रस से परिपूर्ण भक्तांबर स्त्रोत सम्पुद का पारायण कराते हुए गुरुदेव ने कहा कि भक्तांबर स्त्रोत अनमोल खजाना और अनेक अलौकिक शक्ति युक्त महान फलदायी स्त्रोत है। जो भी भक्त श्रद्धा से इसका स्मरण करेंगे, उनके आधि-व्यधि सब दूर हो जाएंगे।

इस दौरान सुरेंद्र मुनि ने कहा कि क्षमा देना और लेना वीरों का काम होता है। अपने हृदय को शुद्ध करक अपने अंतर्मन से क्षमा याचना करनी चाहिए, जो व्यक्ति क्षमा देता है और क्षमा लेता है व ही सच्चा आराधक माना गया है। जो शुद्ध मन से क्षमा नहीं लेता और देता, मन में कपट रखता है। वह विराधक माना गया है। मनुष्य का पुरुषार्थ, ज्ञान या तप कोई महत्व नहीं रखता

भगवान महावीर के समय में ज्ञान और उपासना के स्थान पर कर्मकाण्ड की प्रधानता थी। आध्यात्मिक जगत में पुरुषार्थ के स्थान पर देवी-देवताओं के आह्मन को प्रश्रय दिया जाता था। और स्वयं का पुरुषार्थ नगण्य हो गया था।

व्यक्ति पूजा जोरों पर थी। वाम मार्गियों का समाज पर प्रभाव था। आंतरिक पवित्रता का स्थान पाखंड ने ले लिया था। तर्क शास्त्री केवल शुष्क तर्क द्वारा अपनी तथा-कथित मान्यताओं से लोगों में भ्रम फैला रहे थे। ऐसे समय में भगवान महावीर ने पुरुषार्थवाद की अवधारणा जन-मानस के समक्ष रखी। उन्होंने कहा कि हे जीव। उठो पुरुषार्थ करो, तुम स्वयं अपने निर्माता हो।

पुरुषार्थ का अर्थ है-सम्यग यत्न। महावीर की दृष्टि में पुरुषार्थ लौकिक अधिकार अथवा किसी एषणा (सांसारिक इच्छा) का घोतक नहीं है। परंतु बंधनों से मुक्ति का मार्ग है। भगवान महावीर के समकालीन आजीवक मत के संचालक मंखलिपुत्र गोशालक थे। जिनका सिद्धांत था- नियतिवाद। इस मत के अनुसार मनुष्य का पुरुषार्थ, ज्ञान या तप कोई महत्व नहीं रखता। जो होनहार है, वह होकर रहती है। परंतु भगान महावीर ने इस मत को एकांत रूप से स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा कि यदि नियति या होनहार ही सब कुछ है तो मनुष्य के शुभाशुभ कर्मों, उसके पुरुषार्थ, ज्ञान या तप का कोई प्रयोजन नहीं रह जाएगा।

प्रस्तुति:- विश्वा-नीलम जैन कंगारु ग्रुप, लुधियाना।


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