जागरण संस्कारशाला: बच्चों को स्वार्थ से दूर रहकर इंसानियत व परोपकार की भावना सिखाएं
बच्चों में परमार्थ के संस्कार डालने से ही वह आगे चलकर युग निर्माता देशभक्त समाज सुधारक बनता है। ऐसा मानव सर्व कल्याण की भावना से परिपूर्ण होकर न केवल अपना बल्कि पूरे समाज का उद्धार भी करता है।
लुधियाना, जेएनएन। प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चे के लिए अच्छा भोजन, अच्छे वस्त्र, ऊंची शिक्षा, शादी, चिकित्सा, मनोरंजन आदि सुविधाएं जुटाने के लिए प्रयास करते हैं, लेकिन बहुत कम लोग अपने बच्चों को स्वार्थ से दूर रहकर सोचना सिखाते हैं। स्वार्थ से दूर का मतलब है- दया, प्रेम, सहानुभूति, सेवा, त्याग, समर्पण, इंसानियत और परोपकार की भावना। जब मनुष्य निस्वार्थ होता है तो वह केवल देना जानता है, मांगता कुछ भी नहीं। जब स्वार्थ समाप्त हो जाता है तो मनुष्य खुद ही कल्याण मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित हो जाता है। काम-क्रोध, लोभ-मोह, ईर्ष्याद्वेष, अहंकार खुद ही नष्ट हो जाते हैं।
बच्चों में परमार्थ के संस्कार डालने से ही वह आगे चलकर युग निर्माता, देशभक्त, समाज सुधारक बनता है। ऐसा मानव सर्व कल्याण की भावना से परिपूर्ण होकर न केवल अपना, बल्कि पूरे समाज का उद्धार करता है। मनुष्य को कदम-कदम पर उसे एक-दूसरे के सहयोग एवं समर्थन की आवश्यकता पड़ती है। पारस्परिक सहयोग एवं समर्थन देना, एक-दूसरे की सहायता करना, परोपकार एवं आपसी सुख-दुख की भावनाओं में सम्मिलित होना ही वास्तव में मनुष्यता है।
कवि मैथिलीशरण गुप्त ने कितना सार्थक लिखा है-
यही पशु प्रवृति है कि आप-आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।
परोपकार प्रकृति के कण-कण में समाया हुआ है। वृक्ष कभी अपना फल नहीं खाता है, नदी अपना पानी नहीं पीती और सूर्य और चंद्र हमें रोशनी देते हैं। इनसे मानव को स्वार्थ से दूर सोचने की प्रेरणा मिलती है। भारतीय संस्कृति भी दया, प्रेम, करुणा, सहानुभूति, अनुराग और परोपकार के मूल सिद्धांतों पर टिकी हुई है। यदि हम इतिहास पर नजर डालें तो हमें ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जिसमें लोगों ने परमार्थ के लिए अपनी धन-संपत्ति तो क्या अपने घर-द्वार, राज-पाठ और आवश्यकता पडऩे पर अपने शरीर तक अर्पित कर दिए हैं। महर्षि दधीचि के उस अवदान को कैसे भुला सकते हैं, जिसमें उन्होंने देवताओं की रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। दानवीर कर्ण, भगवान बुद्ध, महावीर स्वामी, गुरु नानक देव जी, महर्षि दयानंद, विनोबा भावे, महात्मा गांधी आदि अनेक महापुरुष इसके उदाहरण हैं।
कोविड काल में भूखे-प्यासे, पैदल चलते प्रवासी मजदूरों को पानी पिलाने वालों, खाना खिलाने वालों, उनके घावों पर मरहम लगाने वालों, रात गुजारने के लिए छत देने वालों को जो सुकून और शांति मिली होगी उसे वही जान सकते हैं, जिसने वो अनुभव प्राप्त किया है। ऐसे मनुष्य के लिए जरूरतमंदों की सेवा ही इबादत होती है।
'इबादत नहीं किसी मंदिर या मस्जिद में सिर झुका देना
इबादत है किसी भूखे को भोजन करा देना ,
इबादत है किसी वस्त्रहीन को वस्त्र पहना देना ,
इबादत है किसी मजलूम का कर्ज चुका देना,
इबादत है किसी रोते हुए को हंसा
शिक्षकों और अभिभावकों को चाहिए कि वे बच्चों में ऐसे संस्कार डाले कि वे स्वार्थ से दूर होकर मानवता की भलाई के लिए सोचें। अगर उनके पास धन है तो उससे गरीबों का कल्याण करना चाहिए। अगर उसके पास शक्ति है तो उसे कमजोरों का अवलंबन बनना चाहिए। अगर उसके पास शिक्षा है, तो उसे अशिक्षितों में बांटनी चाहिए। अपने बच्चों को डाक्टर या इंजीनियर बनाने से पहले एक अच्छे इंसान के गुण विकसित करें। सबके जीवन का एक ही लक्ष्य होना चाहिए, 'मैं पूरे समाज को खुश देखना चाहता हूं, तो फिर कोई परेशानी नहीं होगी, कोई दुखी नहीं होगा।'
डीपी गुलेरिया, प्रिंसिपल बीसीएम स्कूल सेक्टर-32, चंडीगढ़ रोड