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National Handloom Day : शमशाद के कंबल की कई राज्याें में डिमांड, कोरोना महामारी में भी चलाई खड्डी

National Handloom Day शमशाद को केवल यही चिंता है कि नई पीढ़ी आधुनिक मशीनों की चकाचौंध से प्रभावित है और वे इस धरोहर को आगे ले जाने को लेकर उत्साहित नहीं है।

By Vipin KumarEdited By: Published: Fri, 07 Aug 2020 02:48 PM (IST)Updated: Fri, 07 Aug 2020 02:48 PM (IST)
National Handloom Day : शमशाद के कंबल की कई राज्याें में डिमांड, कोरोना महामारी में भी चलाई खड्डी
National Handloom Day : शमशाद के कंबल की कई राज्याें में डिमांड, कोरोना महामारी में भी चलाई खड्डी

लुधियाना, [राजीव शर्मा]। लुधियाना ने गर्म कपड़ों के उत्पादन को लेकर विश्व में अपनी पहचान बनाई। शहर में दशकों पहले जहां घर-घर में हैंड निटिंग मशीनों से वूलन उत्पाद बनाए जाते थे, वहीं कंबल, दरी, शॉल के उत्पादन के लिए खड्डियां लगी थीं। हर गली मोहल्ले से निटिंग मशीनों और खड्डियों के स्वर सुनते थे।

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दौर बदला तो होजरी की मशीनें पूरी तरह से कंप्यूटराइज्ड हो गईं। खड्डियों की जगह पावरलूम ने ले ली। बावजूद इसके शहर में कुछ ऐसे बुनकर आज भी मौजूद हैं, जिन्होंने खड्डी की खट-खट को अब भी जिंदा रखा है। इससे उनको भले ही मोटी कमाई न हो रही हो, लेकिन सुकून है कि उन्होंने सदियों पुरानी धरोहर को संभाला हुआ है। ऐसे बुनकरों में शमशाद अहमद एक अहम नाम है।

हिमाचल के अलावा स्थानीय स्तर पर बिकते हैं कंबल

शहर के टिब्बा रोड स्थित गुलाबी बाग के शमशाद अहमद चालीस साल से खड्डी चला रहे हैं। उनकी पत्नी जुबैदा भी उनके साथ चरखा चलाकर पूरा सहयोग कर रही है। दोनों मिलकर एक दिन में आठ से दस एक्रेलिक, कैश्मीलॉन एवं शोडी के कंबल तैयार कर लेते हैं। ये कंबल वजन के हिसाब से तीन सौ से पांच सौ रुपये जोड़ा के हिसाब से बिक जाते हैं। लोग उनके घर से ही आकर कंबल खरीद लेते थे। पहले ज्यादातर कंबल जम्मू-कश्मीर के लोग ले जाते थे। पिछले साल वहां के हालात खराब होने, रास्ता बंद होने से यह मार्केट बंद हो गई। अब हिमाचल प्रदेश के अलावा स्थानीय स्तर पर कंबल बिक जाता है।

कोरोना महामारी के बावजूद खड्डी पर बिके कंबल

इसके अलावा कुछ पावरलूम कंपनियों के लिए भी जॉबवर्क पर कंबल तैयार करते हैं। शमशाद कहते हैं, में कंबल की मार्केटिंग के लिए कहीं जाना नहीं पड़ता। जितना माल बनता है लोग ले जाते हैं।कोरोना महामारी के बावजूद मेरी खड्डी और जुबैदा का चरखा लगातार चलता रहा।

आठ से बारह घंटे तक खड्डी पर करते हैं काम

शमशाद कहते हैं कि उन्हें भी पावरलूम लगाने एवं माडर्न मशीनरी लगाने के कई ऑफर मिले। वक्त के साथ शमशाद भी आधुनिक मशीनों को अपना कर कारोबार और कमाई और बढ़ा सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। 65 वर्षीय शमशाद दिन में आठ से बारह घंटे तक खड्डी पर काम करते हैं। उनको खड्डी चलाने में ही आनंद आता है। इतना ही नहीं, उन्होंने इस विरासत को और मजबूत करने के लिए शहर के गली मोहल्लों के घरों में चल रही खड्डियों के कारोबारियों को आपस में जोड़ा और एक संस्था हैंडलूम वीवर्स वेलफेयर सोसाइटी बनाई। बुनकरों की समस्याओं को लेकर शमशाद संजीदा हैं।

वे कहते हैं कि सरकार की योजनाओं के बावजूद बुनकरों को बैंक छोटे लोन नहीं देते। उन्होंने कहा कि संसाधनों की कमी के कारण कई बुनकर आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। बुनकरों को प्रोत्साहित करने के लिए उन्हें सस्ती ब्याज दर पर लोन दिए जाएं।

यूपी के कैराना से ताल्लुक रखते हैं शमशाद

शमशाद मूल रूप से उत्तर प्रदेश के जिला शामली के गांव कैराना से ताल्लुक रखते हैं। पांचवीं गांव से ही पास की। वे हिंदी एवं अरबी अच्छी जानते हैं, उर्दू कम ही आती है। गांव में ही पड़ोसी मोहम्मद रियासत से खड्डी का काम सीखा और पंद्रह साल की उम्र में खड्डी चलाना शुरू कर दिया। वर्ष 1978 में वे खड्डी पर जयकार्ड का काम सीखने के लिए लुधियाना आ गए और फिर यहीं के होकर रह गए। लुधियाना में पहले जयकार्ड का काम किया। शॉल भी बनाईं, लेकिन मन खड्डी में ही टिका था।

खाली हाथ आए थे लुधियाना

शमशाद पत्नी के साथ खाली हाथ लुधियाना आए थे, यहां पर पहले जमीन ली, अपना मकान बनाया। दो बेटियों एवं एक बेटे की शिक्षा पूरी करने के बाद उनके विवाह किए। दोनों बुजुर्ग खड्डी के कारोबार से संतुष्ट हैं। शमशाद को केवल यही चिंता है कि नई पीढ़ी आधुनिक मशीनों की चकाचौंध से प्रभावित है और वे इस धरोहर को आगे ले जाने को लेकर उत्साहित नहीं है। हालांकि उनका बेटा एसी का मैकेनिक है, लेकिन खाली वक्त में वह भी खड़्डी चला लेता है।

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