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अक्षय तृतीया जैन धर्म का प्रमुख पर्व : विनय आलोक

भगवान ऋषभ का जैन धर्म मे प्रमुख स्थान है। वे जैनियों के ही नहीं सभी धर्मों के प्रवर्तक माने जाते हैं। उन्होंने जैन धर्म के अलावा अन्य धर्मो की नींव रखी।

By JagranEdited By: Published: Fri, 14 May 2021 06:47 PM (IST)Updated: Fri, 14 May 2021 06:47 PM (IST)
अक्षय तृतीया जैन धर्म का प्रमुख पर्व : विनय आलोक
अक्षय तृतीया जैन धर्म का प्रमुख पर्व : विनय आलोक

संस, लुधियाना : भगवान ऋषभ का जैन धर्म मे प्रमुख स्थान है। वे जैनियों के ही नहीं, सभी धर्मों के प्रवर्तक माने जाते हैं। उन्होंने जैन धर्म के अलावा अन्य धर्मो की नींव रखी। तीर्थंकर का अर्थ होता है- जो तीर्थ की रचना करें। जो संसार सागर से मोक्ष तक के तीर्थ की रचना करें, वह तीर्थंकर कहलाते हैं। ऋषभदेव जी को आदिनाथ भी कहा जाता है। ये बात मनीषी संत मुनि श्री विनय कुमार आलोक ने कृष्णा यशपाल मित्तल के आवास पर जारी प्रवचन सभा में कहे।

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मुनि अभय कुमार ने कहा अक्षय तृतीया पर्व पर दान का विशेष महत्व है। इसदिन भगवान आदिनाथ को राजा श्रेयांस ने हस्तिनापुर में गन्ने के रस का आहार दिया था। उन्होंने आगे कहा कैलाश पर्वत पर ही ऋषभ को केवलय ज्ञान प्राप्त हुआ। एक वर्ष से कुछ अधिक समय तक उन्हें न भोजन मिला और न ही पानी मिला। वे चलते रहे और आज के दिन सश्रीयाश ने उन्हें रस बहराया और भगवान का पारना हुआ। इसलिए आज का दिन अक्षय है, कभी न टूटने वाला दिन है। भागवत पुराण में ऋषभदेव को जैन धर्म की परंपरा का संस्थापक बताया गया है।

उन्होंने आगे कहा कि महिला आज समाज के हर क्षेत्र मे प्रताडि़त होती है। उसे समानता का अभी तक दर्जा नही मिल पाया। इस संबंध मे भगवान ऋषभ ने कहा था कि स्त्री के कारण ही जीवन की उत्पत्ति हुई है। अगर जननी का जीवन ही शोषण से भरा हुआ है तो हम कभी भी उन बुंलदियो व ऊंचाईयों को ऊंचाइयां नही कह सकते। भगवान शिव और ऋषभदेव की वेशभूषा और चरित्र में लगभग समानता है। दोनों ही प्रथम कहे गए हैं अर्थात आदिदेव। दोनों को ही नाथों का नाथ आदिनाथ कहा जाता है। दोनों ही जटाधारी हैं। दोनों ही कैलाशवासी हैं। दोनों ही मयूर पिच्छिकाधारी हैं। दोनों की मान्यताओं में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी और चतुर्दशी का महत्व है। शिव चंद्रांकित है तो ऋषभ भी चंद्र जैसे मुखमंडल से सुशोभित है।

इस दौरान देश भगत यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर डा. वरिंदर मित्तल ने कहा कि वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन तीर्थंकर ऋषभदेव को सर्व प्रथम हस्तिनापुर के राजा सोम और श्रेयांस ने इक्षुरस का आहार दिया था।


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