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इस बाजार में सट्टा लगाने दूर-दूर से आते थे लोग, अंग्रेजों के जमाने से चल रहा कारोबार Ludhiana News

कभी यहां काफी चहल- पहल होती थी। धनतेरस के दिनों में काफी रौनक रहती थी। लोग खरीदारी करने आते थे। अब केवल पांच से दस फीसद कारोबार ही सराफा बाजार में हो रहा है।

By Sat PaulEdited By: Published: Sat, 19 Oct 2019 04:00 PM (IST)Updated: Mon, 21 Oct 2019 02:51 PM (IST)
इस बाजार में सट्टा लगाने दूर-दूर से आते थे लोग, अंग्रेजों के जमाने से चल रहा कारोबार Ludhiana News
इस बाजार में सट्टा लगाने दूर-दूर से आते थे लोग, अंग्रेजों के जमाने से चल रहा कारोबार Ludhiana News

लुधियाना, [राजीव शर्मा]। भारतीय संस्कृति पर सोने की गहरी छाप है। यह हमारी परंपराओं से जुड़ा है। बरसों की गुलामी के बावजूद भारतीयों ने अपनी परंपराओं को छोड़ा नहीं। लोगों ने सोने को निवेश का माध्यम माना और यह कभी घाटे का सौदा भी नहीं रहा। सोने के प्रति लोगों का लगाव देख कर हर शहर में सराफा बाजार स्थापित हुए। पंजाब की आर्थिक राजधानी लुधियाना में भी अंग्रेजों के जमाने का सौ साल से भी अधिक पुराना सराफा बाजार है। कभी इस बाजार में शहर के ही नहीं, बल्कि आसपास के शहरों, कस्बों और गांवों के दुकानदार एवं ग्राहक आते थे। यहां काफी चहल-पहल रहती थी।

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हर सराफा कारोबारी की एक दुकान है यहां

सराफा बाजार के पास साबुन बाजार की लक्ष्मी मार्केट में दशकों पहले सोने-चांदी की सट्टा मंडी थी। यहां पर दूर-दूर से लोग सोने का सट्टा लगाने आते थे, लेकिन 1962 में गोल्ड कंट्रोल एक्ट लागू होने के बाद हुई सख्ती के चलते सट्टा मंडी बंद हो गई। इसके बाद सराफा बाजार ही सोने के कारोबार का मुख्य केंद्र रहा। फिर वक्त ने करवट ली। आबादी बढ़ी और बाजार की संकरी गलियों में लोगों का आना-जाना मुश्किल हो गया। इसके अलावा ट्रैफिक की समस्या पैदा हो गई और यहां के ज्वेलर्स ने विस्तार के लिए बाहरी एवं पॉश इलाकों का रूख किया। आज सराफा बाजार के अलावा कॉलेज रोड एवं रानी झांसी रोड में नई मॉडर्न सराफा स्ट्रीट बन गई है। बावजूद इसके कारोबारियों ने अपनी मिट्टी को नहीं छोड़ा और आज भी उनकी एक-एक दुकान सराफा बाजार में भी है।

पाक से आए कारोबारियों ने जमाया था काम

20वीं सदी की शुरुआत में लुधियाना के सराफा बाजार में महज पांच से सात दुकानें कारोबारियों की थीं। उनके साथ 30 मील के दायरे में आने वाले शहरों और कस्बों के दुकानदार एवं ग्राहक सोने-चांदी के आभूषणों एवं बर्तनों की खरीदारी के लिए आते थे। इसके बाद वर्ष 1947 में देश का बंटवारा हुआ और पाकिस्तान से पलायन करके कई सराफा कारोबारी यहां आकर बस गए। उन्होंने भी सराफा बाजार में अपना काम जमा लिया। बंटवारे के वक्त भागमभाग में लोग अपने साथ ज्यादातर सोना-चांदी ही ला पाए। उस वक्त सोने चांदी का कारोबार एकदम से बढ़ा, क्योंकि लोगों के पास पैसा नहीं था। सोना-चांदी बेच कर ही उन्होंने अपने पैर जमाए।

लाइसेंस प्रणाली लागू होने पर 50 फीसद ने छोड़ा था कारोबार

वर्ष 1962 में जब भारत और चीन के बीच लड़ाई हुई, तब सरकार ने गोल्ड कंट्रोल एक्ट लागू करके सोने पर प्रतिबंध लगा दिया। सरकारी लाइसेंस प्रणाली और बेतहाशा सख्ती के चलते करीब 50 फीसद कारोबारी सोने का कारोबार छोड़ गए और यह ट्रेड का एक तरह से काला दौर माना जाता है। उस दौर में सराफा बाजार की रौनक भी खत्म सी हो गई। वर्ष 1962 से लेकर 67 तक केवल 14 कैरेट सोने के ही आभूषण बनाए जा सकते थे। इसके बाद इंदिरा गांधी ने 22 कैरेट सोने के आभूषण बनाने की छूट दी, तब सराफा बाजार फिर से अपने पैरों पर खड़ा होने लगा। वर्ष 1990 में सरकार ने गोल्ड कंट्रोल एक्ट खत्म किया, तो सराफा कारोबारियों को पूरी तरह से आजादी मिली। इसके बाद सराफा बाजार फिर से गुलजार हुआ। सोने पर किसी भी तरह की रोक न होने के कारण बाजार में कारोबार बढ़ता गया। लोगों की रुचि भी सोने में और ज्यादा हो गई।

1971 से कर रहे कारोबार, मंदी और तेजी के देखे कई दौर

कारोबारी सतीश धीर यहां पर सन 1971 से कारोबार कर रहे हैं। उनकी धीर ज्वेलर्स के नाम से सन 1938 से दुकान स्थापित है। वह बताते हैं कि बाजार में मंदी और तेजी के कई दौर हमने देखे हैं। कभी यहां काफी चहल- पहल होती थी। धनतेरस के दिनों में काफी रौनक रहती थी। लोग खरीदारी करने आते थे। अब केवल पांच से दस फीसद कारोबार ही सराफा बाजार में हो रहा है। आज भी पुरानी दुकानें देखने को मिल जाती हैं। यहां पर सत्तर फीसद तक दुकानें छोटी ईंट की बनी हुई हैं।

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