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अमृत-पुत्र अमर गुरुदेव को कोटि-कोटि नमन

सुमेरु सृष्टि का सर्वोच्च गिरि है जिसके शैल-शिखर को स्पर्श करना संभव नहीं है।

By JagranEdited By: Published: Tue, 18 Aug 2020 05:00 AM (IST)Updated: Tue, 18 Aug 2020 05:00 AM (IST)
अमृत-पुत्र अमर गुरुदेव को कोटि-कोटि नमन
अमृत-पुत्र अमर गुरुदेव को कोटि-कोटि नमन

लुधियाना : सुमेरु सृष्टि का सर्वोच्च गिरि है जिसके शैल-शिखर को स्पर्श करना संभव नहीं है। स्वयंभूरमण ब्रह्माण्ड में विद्यमान समस्त सागरों में गहरा है जिसके अतल की थाह पाना संभव नहीं है। क्षीरोदधि क्षीर अमृत का अक्षय अवधि है जिसके माधुर्य के समक्ष जगत के समस्त माधुर्य फीके हैं। आकाश अनंत है, जिसके ओर-छोर को नापा नहीं जा सकता।

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जीवन और जगत में सदगुरु का अस्तित्व और व्यक्तित्व भी सुमेरु सा उच्च, स्वयंभूरमण सा गहन, क्षीरोदधि सा मधुतम और आकाश सा अनंत है। सदगुरु परमतत्व- परमात्मा का संदेश वाहक है। उसके व्यक्तित्व से परमात्मा का अस्तित्व उद्गीत होता है। इसलिए जड़-जगत के उच्चतम उपमान भी उसकी महिमा के समुख बहुत बौने हैं। सद्गुरुओं की शाश्वत परपंरा में सद्गुरु अमर मुनिश्वर से जैन जगत भली-भांति परिचित है। उनमें अवतरित परमात्मा-छवि को देखकर जगत श्रद्धा से अभिभूत हुआ। उस अमृत पुत्र से प्रकट अमृत-सागर में अवगाहन कर लाखों उपासक आत्म अमृत के अभिप्सु बने।

साहित्य सम्राट, वाणी के जादूगर, श्रृताचार्य उत्तर भारतीय प्रवर्तक आराध्य गुरुदेव श्री अमर मुनि महाराज अपनी ही कोटि के विरल मुनिराज थे। संयम और श्रृत के अक्षय कोष थे। सरस्वती के अतिजात सुपुत्र थे। उनके वरद वचन पुष्पों से असंख्य आत्माएं सुरभित हुई जिन्होंने उनके दर्शन किए। उनके नयन अन्यत्र रम न सके। जिन्होंने उनको सुना वे अश्रुतपर्व श्रृत से स्नान हो गए। जिन पर उनकी कृपा बरसी, वे कृतकाम हो गए। -श्रमणराज अमर- अनंत उपकारी उत्तर भारतीय भंडारी श्री पदमचंद म. के सर्व- गुणनिधान शिष्य थे। श्री भंडारी महाराज अकसर कहते थे कि अमर मुनि तो मेरा विवेकानंद है। सच में अमर मुनिश्वर अपने गुरुदेव के सपनों के सच्चे भाष्यकार थे। अपने गुरुदेव के सपनों को साकार करते हुए उन्होंने आगम साहित्य को हिदी, अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रकाशित करवाकर महावीर वाणी को विश्वव्यापी रूप प्रदान किया। उनका यह कार्य इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है।

आराध्य गुरुदेव अमर मुनिश्वर का जन्म भाद्रपद सुदी पंचमी सन 1936 में हुआ। इसी तिथि को सन 1951 में वे अर्हत धर्म में प्रवजित हुए। तदनुसार आराध्य गुरुदेव की 85वीं जन्म जयंती तथा 71वीं दीक्षा जयंती का पुण्य पर्व उपस्थित है। नि:संदेह आराध्य अमर गुरुदेव के शिष्यों और उपासकों के लिए उनकी जन्मतिथि सर्वोच्च पुण्य पर्व है। इस दिवस पर सहस्त्रों अमर-उपासक जप, तप और दान पुण्य आदि विविध अनुष्ठानों द्वारा अपने परम सद्गुरु की भावभीनी अर्चना अभिवंदना करते हैं। सदगुरु अमर हर पल, हर क्षण हमारे आपके अंग-संग है। यह अनुभव तथ्य है कि देव-दीप से विदा होकर भी वह चिन्मय ज्योति हमारे अंतस् को, हमारी राहों को हर क्षण उज्जवलित कर रही है। उनकी उजास से सर्वत्र उजास है। आराध्य गुरुदेव की जन्म एवं दीक्षा जयंती के पुण्य पर्व पर पावन पादाम्बुजों में कोटि कोटि नमन।

-प्रस्तुति : डॉ. वरुण मुनि।


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