आधुनिकता की दौड़ में पिछड़ा 100 साल पुराना लुधियाना का सराफा बाजार, भारत-चीन युद्ध ने छीना था रुतबा
पंजाब की आर्थिक राजधानी लुधियाना में सौ साल से भी अधिक पुराना अंग्रेजों के जमाने का सराफा बाजार है। कभी इस बाजार में शहर के ही नहीं बल्कि आसपास के शहरों कस्बों गांवों के दुकानदार एवं ग्राहक आते थे।
लुधियाना, राजीव शर्मा। भारतीय परंपराओं में सोने की गहरी छाप है, यह हमारी संस्कृति से जुड़ा है। लोगों ने सोने को निवेश का माध्यम माना और यह कभी घाटे का सौदा भी नहीं रहा। सोने के प्रति लोगों का लगाव देखकर हर शहर में सराफा बाजार स्थापित हुए। पंजाब की आर्थिक राजधानी लुधियाना में भी सौ साल से भी अधिक पुराना अंग्रेजों के जमाने का सराफा बाजार है। कभी इस बाजार में शहर के ही नहीं, बल्कि आसपास के शहरों, कस्बों, गांवों के दुकानदार एवं ग्राहक आते थे और यहां काफी चहल-पहल रहती थी। वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान सरकार ने गोल्ड कंट्रोल कानून लागू कर दिया। उसके बाद से लुधियाना के सराफा बाजार का रुतबा कम होता जा रहा है।
सराफा बाजार के पास साबुन बाजार की लक्ष्मी मार्केट में दशकों पहले सोने-चांदी की सट्टा मंडी थी। यहां पर दूर-दूर से लोग सोने का सट्टा लगाने आते थे, लेकिन 1962 में गोल्ड कंट्रोल एक्ट लागू होने के बाद हुई सख्ती के चलते सट्टा मंडी बंद हो गई। इसके बाद सराफा बाजार ही सोने के कारोबार का मुख्य केंद्र रहा। फिर वक्त ने करवट ली। आबादी बढ़ी और बाजार की संकरी गलियों में लोगों का आना-जाना मुश्किल हो गया।
इसके अलावा ट्रैफिक की समस्या पैदा हो गई और यहां के ज्वैलर्स ने विस्तार के लिए बाहरी व पाश इलाकों का रूख किया। आज सराफा बाजार के अलावा कालेज रोड एवं रानी झांसी रोड में नई माडर्न सराफा स्ट्रीट बन गईं, बावजूद इसके सराफा कारोबारियों ने अपनी मिट्टी को नहीं छोड़ा और आज भी उनकी एक-एक दुकान सराफा बाजार में भी है। बाजार में आज भी पुरानी दुकानें देखने को मिल जाती हैं, यहां पर सत्तर फीसद तक दुकानें छोटी ईंट की बनी हुई हैं।
पाकिस्तान से आए लोगों ने भी खोली दुकानें
बीसवीं सदी की शुरुआत में लुधियाना के सराफा बाजार में महज पांच से सात दुकानें कारोबारियाें की थी। उनके साथ तीस मील के दायरे में आने वाले शहरों, कस्बों के दुकानदार एवं ग्राहक सोने, चांदी के आभूषणों एवं बर्तनों की खरीदारी के लिए आते थे। इसके बाद वर्ष 1947 में भारत का बंटवारा हुआ और पाकिस्तान से पलायन करके कई सराफा कारोबारी यहां आकर बस गए और उन्होंने भी सराफा बाजार में अपना काम जमा लिया। इसके साथ ही बंटवारे के वक्त भागमभाग में लोग अपने साथ ज्यादातर सोना-चांदी ही ला पाए। उस वक्त सोने चांदी का कारोबार एकदम से बढ़ा, क्योंकि लोगों के पास पैसा नहीं था, सोना चांदी बेच कर ही उन्होंने अपने पैर जमाए। इसके बाद सराफा बाजार में भी एकदम से रौनक बढ़ गई। सराफा कारोबार काफी अच्छा चलता रहा।
भारत-चीन युद्ध ने तोड़ी थी कारोबार की कमर
वर्ष 1962 में जब भारत और चीन के बीच लड़ाई हुई, तब सरकार ने गोल्ड कंट्रोल्ड एक्ट लागू करके सोने पर प्रतिबंध लगा दिया। सरकारी लाइसेंस प्रणाली और बेतहाशा सख्ती के चलते करीब पचास फीसद कारोबारी सोने का कारोबार छोड़ गए और यह ट्रेड का एक तरह से काला दौर माना जाता है। उस दौर में सराफा बाजार की रौनक भी खत्म सी हो गई। वर्ष 1962 से लेकर 67 तक केवल 14 कैरेट सोने के ही आभूषण बनाए जा सकते थे। इसके बाद इंदिरा गांधी ने 22 कैरेट सोने के आभूषण बनाने की छूट दी, तब सराफा बाजार फिर से अपने पैरों पर खड़ा होने लगा। वर्ष 1990 में सरकार ने गोल्ड कंट्रोल एक्ट खत्म किया तो सराफा कारोबारियों को पूरी तरह से आजादी मिली। इसके बाद सराफा बाजार फिर से गुलजार हुआ। सोने पर किसी भी तरह की रोक न होने के कारण बाजार में कारोबार बढ़ता गया। लोगों की रूचि भी सोने में और ज्यादा हो गई।
तंग बाजार में अब पांच से दस फीसद ही कारोबार
नब्बे के दशक में शहर में आबादी बढ़ी, बाजार की संकरी गली छोटी साबित होने लगी। ट्रैफिक की समस्या ने परेशान करना शुरू कर दिया। तब यहां के सराफा कारोबारियों ने बाहर निकलने की शुरुआत की। आज बाजार के तमाम दुकानदारों ने विस्तार के तहत अपने नए एवं आधुनिक शोरूम कालेज रोड, रानी झांसी रोड एवं माल रोड पर बना लिए हैं। लेकिन सराफा बाजार से उनका मोह बना हुआ है। अंग्रेजों के जमाने के इस बाजार में भी उनकी दुकानें चल रही हैं। बाजार में दिक्कतों के चलते अब केवल पांच से दस फीसद कारोबार ही सराफा बाजार में हो रहा है। बाकी कारोबार माडर्न सराफा स्ट्रीट में शिफ्ट हो गया है।