ये दौलत भी ले लो, ये शौहरत...लिखने वाले सुदर्शन 'फाकिर' के जीवन के बारे में जानें अहम पहलू
फिरोजपुर में जन्मे सुदर्शन फाकिर कॉलेज के दिनों में ही जालंधर चले आए थे। यहां आकर अपनी समंदर की गहराइयों सी शायरी में ऐसे डूबे कि उनकी लिखी गजलों ने सफलता की नई इबारत लिख दी।
जालंधर [वंदना वालिया बाली]। ये दौलत भी ले लो, ये शौहरत भी ले लो... जैसी खूबसूरत गज़ल लिखने वाले सुदर्शन फाकिर की प्रतिभा जितनी विलक्षण थी, व्यक्तित्व उतना ही साधारण व सरल। फिरोजपुर में जन्मे सुदर्शन फाकिर कॉलेज के दिनों में ही जालंधर चले आए थे। यहां आकर अपनी समंदर की गहराइयों सी शायरी में ऐसे डूबे कि उनकी लिखी गजलों ने सफलता के आसमां पर इबारत लिखी। बहुत ही सीधे सरल शब्दों में भावनाओं को व्यक्त करने का उनका हुनर उन्हें विशिष्ट शायर का दर्जा देता है। 18 फरवरी को उनकी पुण्यतिथि थी। जानिये उनके जीवन के कुछ अहम पहलू।
ये दौलत भी ले लो, ये शौहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो
बचपन का सावन
वो कागज की कश्ती,
वो बारिश का पानी...
सुदर्शन फाकिर की यह वो रचना है, जो आज भी गजलों के हर कार्यक्रम में गाई-सुनी जाती है। जगजीत सिंह ने ‘द लेटेस्ट’ एलबम केवल फाकिर की लिखी गजलों की निकाली थी। सालों बाद भी वह कहा करते थे कि यह एलबम हमेशा मेरी ‘लेटेस्ट’ रहेगी। यानी उसकी गजलें तब भी सभी की पसंदीदा थीं और आज दोनों (जगजीत व फाकिर) के जाने के बाद भी ‘लेटेस्ट’ ही हैं। हालांकि जगजीत सिंह की सबसे लोकप्रिय गजलों की रूह सुदर्शन फाकिर की शायरी थी लेकिन उन दोनों की शौहरत में जमीं-आसमां का अंतर रहा। फाकिर एक गुमनाम शायर की तरह लिखते रहे। उनकी विनम्रता ऐसी थी कि लाइमलाइट में आना तो दूर अपनी फोटो तक नहीं खिंचवाते थे।
उनकी पुण्यतिथि पर उनसे जुड़ी यादों को कुछ करीबियों ने यूं साझा किया
वो ‘आषाढ़ का एक दिन’
सुदर्शन फाकिर की पत्नी सुदेश फाकिर कहती हैं, ‘मोहन राकेश के लिखे नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ का स्व. सुदर्शन फाकिर के जीवन से एक अनोखा नाता रहा है। 1960 के दशक में फाकिर साहब ने जालंधर के ‘अर्जुन’ नामक एक उर्दू अखबार में बतौर उप-संपादक काम किया तो साथ ही आल इंडिया रेडियो से भी जुड़े रहे। वह वहां उद्घोषक एवं लेखक थे। उसी दौरान उन्होंने रेडियो पर प्रसारित नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में भी भाग लिया था। मैं तब डीएवी कॉलेज में एमए हिंदी के फाइनल इयर में थी। वहां हम स्टूडेंट्स भी यही नाटक स्टेज पर प्रस्तुत करने की तैयारी में जुटे थे।
मेरा एक क्लास फेलो विनोद छाबड़ा भी आलइंडिया रेडियो जाया करता था। उसी के जरिए कॉलेज वालों ने फाकिर साहब को नाटक के निर्देशन के लिए कॉलेज बुलाया था। एक दिन जब स्टेज पर मैैं प्रैक्टिस कर ही रही थी तो कानों में आवाज पड़ी, ‘फाकिर साहब आ गए हैैं।’ नाटक में मैं मां का किरदार निभा रही थी, जो काफी अहम था। उनके आने पर मैं रुकी नहीं और अपने डायलॉग बोलती रही। नर्वस होने कि बजाए एक्टिंग और बढ़िया करने की कोशिश की।
उन्होंने मेरा वह रोल देखा तो काफी प्रभावित हुए थे। मेरी प्रशंसा की। यह हमारी पहली मुलाकात थी। चूंकि उन्होंने भी वह नाटक रेडियो के लिए खेला था तो अगले कुछ दिन उसके डायलॉग ही हमारे संवाद का जरिया बने। हालांकि बाद में मुझे कहा करते थे कि ‘जैसी एक्टिंग तुमने उस दिन की थी, वैसी फिर कभी नहीं की।’ मुलाकातें बढ़ी। मैं भी उनकी शायरी की मुरीद थी। कुछ शेअर याद कर के उन्हें सुनाने लगी। तब कई बार मुझे कहते ‘इन शब्दों का मतलब भी समझती हो?’ मैं उनसे जिद किया करती कि मुझे भी उर्दू सिखाओ। तो हंस कर टाल देते और कहते ‘कुछ तो प्राइवेसी रहने दो। 1964 में हुई पहली मुलाकात के 10 साल बाद हमारी शादी हुई।’
आज भी चमकते हैं उन यादों के जुगनू
वरिष्ठ साहित्यकार दीपक जालंधरी, जो सुदर्शन फाकिर मेमोरियल सोसायटी से भी जुड़े हैं, उनकी यादों को ताजा करते हुए बताते हैं कि ‘एक बार मैं मुंबई गया तो उनके ठिकाने राज गेस्ट हाउस में पहुंचा। उस दिन वह बहुत खुश थे। फिरोज खान ने उन्हें अपनी अगली फिल्म के गीत लिखने का काम सौंपा था। वह फिल्म थी ‘यलगार’। ‘आखिर तुम्हें आना है, जरा देर लगेगी। बारिश का बहाना है, जरा देर लगेगी...’ जैसे इस फिल्म के गीतों के अलावा नाम ‘यलगार’ भी उन्हीं का दिया हुआ था। मुझे याद है, उन्होंने ‘हे राम’ भजन लिखा और जगजीत सिंह ने उसे गाया तो पहले पहल वह नहीं चला लेकिन बाद में 1984 में एचएमवी ने पुन: केवल उस एक भजन का पूरा रिकार्ड रिलीज किया तो उसकी एक करोड़ रिकार्ड कापी बिकी थीं।
जब वह मुंबई छोड़ कर जालंधर लौट आए तो एक दिन मेरे पास आकर बैठा। मैंने पूछा, ‘यह तुमने क्या किया? लोग तो मुंबई की ओर दौड़ते हैं, तुम लौट आए।’ तो कहने लगे, ‘पत्थर के सनम, पत्थर के खुदा, पत्थर के इंसां पाए हैैं, तुम शहर-ए-मुहब्बत कहते हो, हम जान बचा के आए हैं...’। वह कहते थे वह शहर किसी से प्यार नहीं करता। साधारण शब्दों में ऐसी गहरी बात कह जाते थे कि अरसे तक उनके शब्द जहन में गूंजते रहते। बीमार हुए, उन्हें गले के कैंसर ने घेर लिया था, तो एक दिन बोले... ‘चंद मासूम से पत्तों का लहू है फाकिर, जिसे मेहबूब के हाथों की हिना कहते हैं।’ आज भी उन्हें याद करता हूं तो उनके शब्द जुगनू बन जाते हैं।
स्पोट्र्समैन भी थे सुदर्शन
सुदेश फाकिर की शिष्या व फाकिर की मुंहबोली बहन अरुणा शर्मा के अनुसार ‘फाकिर साहब को बैडमिंटन और क्रिकेट का बहुत शौक था। डीएवी कॉलेज में उन्हें दाखिला भी बैडमिंटन प्लेयर होने के नाते मिला था। उन्होंने वहां बैडमिंटन क्लब भी बनाया था। साथ ही वह क्रिकेट के भी शौकीन थे। सुदेश दीदी बताती थीं कि पहले जब टीवी नहीं था तो मैच की कमेंट्री सुनने के लिए रेडियो को कान से लगाए रखते थे। बाद में जब टीवी आया तब मैंने भी उनके क्रिकेट प्रेम को देखा है। उनके घर जाती तो जब तक मैच में ब्रेक नहीं होती थी, तब तक वह चाय तक नहीं पीते थे। दीदी (अपनी पत्नी) को भी साथ बिठाए रखते थे। कभी मैच देख रहे होते, तो मैच के बारे में कुछ न कुछ भविष्यवाणी करते रहते। जो अधिकतर सही होती थी। ’
उनका हर शब्द अफसाना था
डीएवी कॉलेज के हिंदी विभाग की पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. ऊषा उप्पल कहती हैं, 'फाकिर साहब से जब मुलाकात होती तो उनका एक-एक शब्द कहानी जैसा लगता था। ‘जिंदगी तुझको जिया है अफसोस नहीं, जहर खुद मैंने पिया है अफसोस नहीं।’ जैसे साधारण शब्दों में वो जिंदगी की कितनी गहराइयों को बयां कर देते थे। कितना दर्द भी था उनके शब्दों में। इतने बड़े शायर थे लेकिन कितना सरल व्यक्तित्व था उनका। ‘कागज की कश्ती’ हो या ‘बुढ़िया की कहानी’, उनके शब्दों में ढल कर अफसाना जैसी बन जाती थी। उनके घर जाती तो वह चाय पीने हमारे साथ तो बैठते लेकिन कुछ ही देर में अपनी ही दुनिया में खो जाया करते थे।’
बड़ा अपनापन था उनकी शायरी में
एडवोकेट शशि शुक्ला और उनके पति फाकिर के बड़े मुरीद रहे हैं। वे कहती हैैं, 'मेरे पति स्व. डॉ. उमेश और मैं फाकिर साहब के बड़े फैन रहे हैं। खालसा कालेज के दिनों में सुदेश जी से जान पहचान हुई तो उनके घर आना-जाना भी हुआ। फाकिर साहब के शब्दों में अपनी ही बात लगती थी। फिल्म ‘दूरियां’ के गीत ‘मेरे घर आना, आना जिंदगी... मेरे घर का का बस इतना पता है, मेरे घर के बाहर मुहोब्बत लिखा है, न आवाज देना, न दस्तक जरूरी...’ जैसे गीत में उन्होंने प्रेम के अपनेपन को इतनी खूबसूरती से प्रस्तुत किया है और जिंदगी के ऐसे मायने समझाए कि सुन कर कानों में मिश्री घुल जाती है। ‘मेरा कातिल ही मेरा मुंसिफ है, क्या मेरे हक में वो फैसला देगा’ जैसी गहरी शायरी के कारण ही आज भी वो लोगों के दिलों में बसते हैं। हम उनके घर जाते तो अक्सर उन्हें अपने पसंदीदा पीले रंग की कमीज पहने पाते और भाभी ने भी घर का हर कोना इसी रंग से सजाया था। ’
सुदर्शन यूं बन गया ‘फाकिर’
फक्कड़ मिजाज और शब्दों की दौलत के मालिक सुदर्शन 19 दिसंबर 1934 को फिरोजपुर स्थित रत्तेवाली गांव में डॉ. बीहारी लाल व लाजवंती के घर जन्मे। वह युवावस्था में फिरोजपुर से जालंधर चले आए। सहपाठी से नाकाम इश्क की चोट ने इस शायर को एक ‘फकीर’ सा बना दिया था। वह फैज अहमद ‘फैज’ व निदा फाजली की शायरी के कायल थे। उन्हें ‘फ’ अक्षर भी आकर्षित करता था, इसीलिए उन्होंने अपने नाम के साथ ‘फाकिर’ जोड़ा। फकीर से प्रेरित इस शब्द का अर्थ है ‘सोचने वाला’। सरल शब्दों में गंभीर बातें लिख उन्होंने नाम को सार्थक किया।
सुदर्शन फाकिर की कुछ गजलें
‘जिंदगी मेरे घर आना...’ और
‘जिंदगी में जब तुम्हारे गम नहीं थे...’ - दोनों फिल्म ‘दूरियां’ से
‘जिंदगी तुझको जिया है कोई अफसोस नहीं...’
‘तेरी आंखों में हमने क्या देखा...’
‘किसी रंजिश को हवा दो कि मैं जिंदा हूं अभी...’
‘कुछ तो दुनिया की इनायत ने दिल तोड़ दिया...’
‘फिर आज मुझे तुमको बस इतना बताना है’- फिल्म ‘आज’
‘हो जाता है कैसे प्यार’- फिल्म ‘यलगार’
‘अगर हम कहें और वो मुस्करा दें...’
‘मेरे दुख की कोई दवा न करो...’
‘आदमी आदमी को क्या देगा...’
‘शायद मैं जिंदगी की सहर ले के आ गया...’