विशेष हैं ये शिवधाम, जानें क्या हैं यहां की मान्यताएं
पंजाब व इससे सटे हिमाचल में कई शिवधाम हैं। जहां की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं। शिवरात्रि पर यहां श्रद्धा का सैलाब उमड़ता है।
कहा जाता है कि महाशिवारात्रि यानी फाल्गुन माह की चतुर्दशी के दिन से सृष्टि का प्रारंभ हुआ था। इसके अलावा महादेव शिव व माता पार्वती के विवाह का भी यही दिन था। इसीलिए विश्वभर के शिव मंदिरों में इस दिन विशेष आयोजन होते हैं। श्रद्धालु व्रत रखकर भोलेनाथ की पूजा-अर्चना करते हैं। प्रस्तुत है पंजाब व हिमाचल के प्रमुख शिवधामों की विशेषता व उनसे जुड़ी मान्यताओं पर आधारित आलेख...
काठगढ़ महादेव मंदिर
हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के इंदौरा उपमंडल में काठगढ़ महादेव का मंदिर स्थित है। यह विश्व का एकमात्र मंदिर है जहां शिवलिंग ऐसे स्वरूप में विद्यमान हैं जो दो भागों में बंटे हुए हैं। अर्थात मां पार्वती और भगवान शिव के दो विभिन्न रूपों को ग्रहों और नक्षत्रों के परिवर्तित होने के अनुसार इनके दोनों भागों के मध्य का अंतर घटता-बढ़ता रहता है। ग्रीष्म ऋतु में यह स्वरूप दो भागों में बंट जाता है और शीत ऋतु में दोबारा एक रूप धारण कर लेता है।
पौराणिक कथा
शिव पुराण की विधेश्वर संहिता के अनुसार पद्मकल्प के प्रारंभ में एक बार ब्रह्मा और विष्णु के बीच श्रेष्ठता का विवाद हो गया और दोनों दिव्यास्त्र लेकर युद्ध के लिए तैयार हो गए। यह भयंकर स्थिति देख शिव अचानक वहां आदि अनंत ज्योतिर्मय स्तंभ के रूप में प्रकट हुए, जिससे दोनों देवताओं के दिव्यास्त्र अपने आप ही शांत हो गए। ब्रह्मा और विष्णु दोनों उस स्तंभ के आदि-अंत का मूल जानने के लिए जुट गए।
विष्णु शुक्र का रूप धरकर पाताल गए मगर अंत न पा सके। ब्रह्मा आकाश से केतकी का फूल लेकर विष्णु के पास पहुंचे और बोले मैं स्तंभ का अंत खोज आया हूं, जिसके ऊपर यह केतकी का फूल है। ब्रह्मा का यह छल देखकर शंकर वहां प्रकट हो गए और विष्णु ने उनके चरण पकड़ लिए। तब शंकर ने कहा कि आप दोनों समान हैं। यही अग्नि तुल्य स्तंभ, काठगढ़ के रूप में जाना जाने लगा।
ईशान संहिता के अनुसार यह शिवलिंग फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात यानी शिवरात्रि को प्रकट हुआ था इसलिए लोक मान्यता है कि काठगढ़ महादेव शिवलिंग के दो भाग भी चन्द्रमा की कलाओं के साथ करीब आते और दूर होते हैं। शिवरात्रि का दिन इनका मिलन माना जाता है।
अद्र्धनारीश्वर स्वरूप
अर्धनारीश्वर का रूप दो भागों में विभाजित आदि शिवलिंग का अंतर ग्रहों एवं नक्षत्रों के अनुसार घटता-बढ़ता रहता है और शिवरात्रि पर दोनों का मिलन हो जाता है। यह पावन शिवलिंग अष्टकोणीय है तथा काले-भूरे रंग का है। शिव रूप में पूजे जाते शिवलिंग की ऊंचाई 7-8 फुट है जबकि पार्वती के रूप में अराध्य हिस्सा 5-6 फुट ऊंचा है। भारत की प्रिय पूजा-स्थल की मान्यता है। त्रेता युग में भगवान राम के भाई भरत जब भी अपने ननिहाल कैकेय देश (कश्मीर) जाते थे, तो काठगढ़ में शिवलिंग की पूजा किया करते थे।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
विश्वविजेता सिकंदर ईसा से 326 वर्ष पूर्व जब पंजाब पहुंचा, तो प्रवेश से पूर्व मीरथल नामक गांव में पांच हज़ार सैनिकों को खुले मैदान में विश्राम की सलाह दी। इस स्थान पर उसने देखा कि एक फ़कीर शिवलिंग की पूजा में व्यस्त था उसने फकीर से कहा आप मेरे साथ यूनान चलें। मैं आपको दुनिया का हर ऐश्वर्य दूंगा।
फकीर ने सिकंदर की बात को अनसुना करते हुए कहा आप थोड़ा पीछे हट जाएं और सूर्य का प्रकाश मेरे तक आने दें। फ़कीर की इस बात से प्रभावित होकर सिकंदर ने टीले पर काठगढ़ महादेव का मंदिर बनाने के लिए भूमि को समतल करवाया और चारदीवारी बनवाई। इस चारदीवारी के ब्यास नदी की ओर अष्टकोणीय चबूतरे बनवाए जो आज भी यहां हैं।
शिवरात्रि मेला
शिवरात्रि के त्यौहार पर प्रत्येक वर्ष यहां पर तीन दिवसीय भव्य मेला लगता है। इस बार मेले का उद्घाटन इन्दौरा की विधायक रीता धीमान 12 फरवरी को करेंगी ओर 14 फरवरी को समापन समारोह गगरेट के विधायक राजेश ठाकुर करेंगे।
महाकालेश्वर मंदिर
महाकालेश्वर मंदिर एक अनोखा धार्मिक आकर्षण है क्योंकि यह भारत का अकेला शिव मन्दिर है जहां का शिवलिंग लेटा हुआ है और इसका आकार चौकोर है। यह मंदिर गुरदासपुर से 23 किमी की दूरी पर स्थित कालनौर कस्बे में स्थित है।
यहां पर भगवान शिव की स्थापना नहीं की गई थी बल्कि वह यहां स्वयं प्रकट हुए थे। पौराणिक कथा के अनुसार लंका नरेश रावण शिव को भक्ति से प्रसन्न कर लंका आने के लिए विवश करना चाहता था, ताकि उसकी राक्षसी शक्ति में वृद्धि हो जाए। शिव यह जानते थे परन्तु वरदान के बंधन के कारण उन्होंने रावण से कहा कि यदि वह उन्हें नंगे पांव अपने कंधों पर उठा कर लंका ले जाएगा, तो शिव वहां रह जाएंगे। यदि मार्ग में रावण ने उन्हें कहीं भी धरती पर बैठाया तो वे उसी स्थान पर स्थित हो जाएंगे।
यात्रा में शिव की माया से रावण न चाहते हुए भी एक ब्राह्मण के कंधों पर शिव को बैठा कर निवृत्त होने चला गया। तब शिव ने अपना वजन इतना बढ़ा दिया कि व्याकुल होकर ब्राह्मण ने उन्हें धरती पर छोड़ दिया। जब रावण लौटा तो शिव ने उसे वचन स्मरण करवाया और दोहराया कि अब वह इसी स्थान पर रहेंगे। उसी स्थान पर आज कलानौर का महाकलेश्वर मंदिर है। लंबे समय तक इस स्थान लोगों की नजरों से ओझल रहा। बादशाह अकबर की ताजपोशी भी कलानौर में ही हुई थी।
कहते हैं कि अकबर का जो भी घोड़ा उस पवित्र स्थान के ऊपर से निकलता, वह लंगड़ा हो जाता और जब ऐसा अनेक घोड़ों के साथ हुआ तो कुछ सैनिकों ने उस स्थान की खुदाई की। इस खुदाई के दौरान 5-7 फीट नीचे समतल शिवलिंग प्रकट हुआ। अकबर को जैसे ही यह सूचना मिली तो उन्होंने तुरन्त मंदिर निर्माण का आदेश दिया। हर शिवरात्री पर इस स्थान पर भव्य मेला लगता है, जिसमें लाखों श्रद्धालु यहां पहुंच कर शीश नवांते हैं।
मुक्तेश्वर धाम
पठानकोट के कंडी क्षेत्र धार ब्लाक में शिवालिक की पहाड़ियों के बीच रावी नदी के किनारे बसा गांव डूंग अपने आप में कई प्राचीन गुफाएं और प्राचीन शिवलिंग के साथ प्राचीन इतिहास खुद में समेटे हुए है। महाभारत काल के समय पांडवों द्वारा बनाई गई गुफाएं आज भी लोगों की आस्था का केंद्र बनी हुई हैं। इन गुफाओं में से एक गुफा में महाकाल त्रिलोकी त्रिकालदर्शी भगवान शिव का प्राचीन शिवलिंग स्थापित है, जो 5509 वर्ष पुराना बताया जाता है।
लोकेशन
यह पवित्र स्थान धार तहसील में पठानकोट से 20 किलोमीटर दूर और शाहपुरकंडी से रणजीत सागर बांध परियोजना के मुख्य मार्ग पर सात किलोमीटर की दूरी पर है।
मेला
इस स्थान पर हर वर्ष चैत्र मास की अमावस्या के एक दिन पहले, अगले दिन और अमावस्या वाले दिन, सोमवती अमावस, महा शिवरात्री को मेला लगता है। वहीं इसकी मान्यता है कि जो व्यक्ति लगातार चैत्र मास की अमावस्या से पहले, उसके अगले दिन और अमावस के दिन रावी नदी मे स्नान कर जल से शिवलिंग का अभिषेक करता है उस की हर मनोकामना जरूर पूरी होती है।
पौराणिक कथा
शास्त्रों के अनुसार जब कौरवों ने जुए मे पाडवों से सब कुछ जीत लिया तो पाडवों को वनवास के साथ एक वर्ष का अज्ञातवास भी मिला था। अज्ञातवास के अंतिम समय में पांडव इरावती नदी, जो अब रावी नदी के नाम से प्रसिद्ध है, के पास स्थित पहाड़ों मे आ गए। पहाड़ को दूर से देखने से यह स्थान दिखाई नहीं देता। उस समय पाडवों ने इस अज्ञात स्थान पर समय बिताना ठीक समझा तथा पहाड़ों का सीना चीर कर गुफाओं का निर्माण किया था। बड़ी गुफा में बड़े भाई युधिष्ठिर के रहने का स्थान बनाया गया।
वही उसी गुफा में धर्मराज युधिष्ठिर के बैठने का उच्च्च स्थान बनाया गया है यहां बैठ कर धर्मराज अपने भाइयों के साथ दिन भर की चर्चा करते और उनका मार्गदर्शन किया करते थे। इसी गुफा की बगल मे द्रौपदी रसोई का निर्माण किया गया था। इसी बड़ी गुफा के अंदर पूर्व दिशा की ओर पाडवों द्वारा भगवान भोले नाथ के शिवलिंग की स्थापना की गई थी। यहां पाडवों की ओर से घोर अराधना कर भगवान को प्रसन्न किया और साक्षात भोले नाथ ने प्रकट हो कर पाडवों को इस धर्मयुद्ध में जीत प्राप्त करने का आशीर्वाद दिया।
द्रौपदी रसोई के समीप पानी की व्यवस्था के लिए अर्जुन ने तीर मार कर बाउली निकाली थी। इस बाउली की खासयीत यह है कि रावी नदी में जब पानी कम हो जाता है और पानी का स्तर काफी नीचे चले जाता है तब भी इस बाउली से पानी नहीं सूखता। इस स्थान के पीछे भीम का कोहलू था, यहां भीम तेल निकाला करते थे। जब एक बार कोहलू से तेल नही निकला तो गुस्से में आ कर भीम ने कोहलू उखाड़ दूर फैंक दिया, जो जम्मू-कश्मीर के कठूआ जिले में जा गिरा और आज भी साक्षात वही पर पड़ा है। वहां भी हर वर्ष मेला लगता है। मंदिर के पीछे की ओर भीम की हिडबा गुफा थी, जो रणजीत सागर बांध निर्माण के समय मलबे में दब गई। इसी प्रकार नकुल, सहदेव, अर्जुन की गुफाएं भी आस्था का केंद्र बनी हुई हैं।
बचानी होगी धरोहर
गौरतलब है कि रणजीत सागर बांध परियोजना की दूसरी इकाई शाहपुर कंडी बांध परियोजना के निर्माण के समय यह ऐतिहासिक धरोहर शाहपुर कंडी झील में समा जाएगी। इसे बचाने के लिए मुक्तेश्वर धाम प्रबंधक कमेटी अध्यक्ष भीम सिंह के नेत्तृव में प्रयास कर रही है। इन्हें कई धार्मिक और समाजसेवी संगठनों का समर्थन हासिल है तथा पंजाब के पूर्व डिप्टी स्पीकर और सुजानपुर के मौजूदा विधायक दिनेश सिंह बब्बू समेत लोक सभा हलका गुरदासपुर के एमपी सुनील जाखड़ सहित पंजाब सरकार इसे बचाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं।
(इनपुट : पप्पी धालीवाल, राजीव महाजन व कमल कृष्ण हैप्पी)
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