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महज दो फसलों तक सीमित हो गया पंजाब का किसान, विविधता से बनेगी बात

धान की फसल 99-145 दिनों में तैयार होती है। इसलिए किसान जल्द ही धान की रोपाई कर देते हैं ताकि उसकी जल्द कटाई करके गेहूं की बोआई कर सकें। इसके कारण उन्हें भीषण गर्मी के दौर में ज्यादा पानी की जरूरत होती है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 17 Dec 2020 09:41 AM (IST)Updated: Thu, 17 Dec 2020 03:32 PM (IST)
महज दो फसलों तक सीमित हो गया पंजाब का किसान, विविधता से बनेगी बात
सरकार को भी इन फसलों की उचित कीमत पर खरीद की व्यवस्था करनी चाहिए।

नई दिल्ली, जेएनएन। किसी दौर में पंजाब में सभी प्रकार की फसलें होती थीं। लेकिन, 1960 के आसपास खेती का पैटर्न बदला। राज्य के किसान गेहूं की खेती तो पहले से कर रहे थे, सरकारी प्रोत्साहन के साथ धान की खेती का तेजी से विस्तार हुआ। आज करीब 85 फीसद रकबे में धान व गेहूं की खेती होती है। कैसे गेहूं व धान की फसलों ने अन्य फसलों के लिए रास्ता बंद किया, एक फसली खेती का पंजाब के किसानों पर क्या प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है और किस प्रकार फसल विविधीकरण अपनाकर पंजाब के साथ-साथ देश के अन्य हिस्सों के किसानों की आमदनी बेहतर हो सकती, पढ़िए यह रिपोर्ट...

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सबसे ज्यादा बढ़ा धान का रकबा : वर्ष 2018-19 के दौरान पंजाब में कुल 78.30 लाख हेक्टेयर में खेती हुई। इसमें 35.20 लाख हेक्टेयर में गेहूं व 31.03 लाख हेक्टेयर में धान की खेती शामिल थी। यानी, तकरीबन 85 फीसद जमीन पर केवल धान व गेहूं की खेती हुई। 1960-61 यह प्रतिशत 32 व 1970-71 में 47.4 था। 1970-71 में धान की खेती सात फीसद जमीन पर होती थी, जबकि गत वर्ष तक करीब 40 फीसद पर पहुंच गई। गेहूं का रकबा भी ठीकठाक बढ़ा।

एक ही फसल की खेती से नुकसान : किसी भूमि पर एक ही फसल की लगातार खेती करते रहने से फसलों में कीट लगने व बीमारियों की आशंका बढ़ जाती है। अगर उस भूमि पर अलग-अलग प्रकार की फसलें लगाई जाएं तो कीट व बीमारियों का खतरा कम हो जाता है, क्योंकि फसलों की प्रतिरोधी क्षमता अलग-अलग होती है। दलहनी फसलों की जड़ों में राइजोबियम बैक्टीरिया पाए जाते हैं जो उनके साथ सहजीवी संबंध बनाकर वायुमंडलीय नाइट्रोजन का मिट्टी में स्थिरीकरण कर देते हैं। इस प्रकार मिट्टी की उर्वरा क्षमता में विकास होता है। लेकिन, धान व गेहूं ऐसा नहीं करतीं। इसलिए, दलहन की फसलों के उत्पादन से कृत्रिम उर्वरकों की जरूरत भी कम पड़ती है।

विध्य क्षेत्र के लिए गेहूं उपयुक्त : पंजाब में गेहूं की खेती के लिए मिट्टी व वायुमंडलीय स्थितियां सापेक्ष हैं। पंजाब ही नहीं बल्कि पूरे विधांचाल क्षेत्र में मार्च तक 30 डिग्री सेल्सियस के आसपास तापमान बना रहता है, जो गेहूं की खेती के लिए उपयुक्त है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के लिहाज से भी पंजाब में गेहूं की खेती को बढ़ावा दिया गया। यहां प्रति हेक्टेयर पांच टन गेहूं का उत्पादन होता है, जबकि राष्ट्रीय औसत 3.4-3.5 टन है।

धान की खेती पर अंकुश जरूरी : धान की खेती अपेक्षाकृत गर्म मौसम में होती है। अधिक तापमान का भी इस पर बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। धान की खेती पूर्वी, मध्य व दक्षिण भारत में भी हो सकती है। पंजाब से वर्ष 2019-20 के दौरान 1.27 करोड़ टन गेहूं व 1.08 करोड़ टन चावल की खरीद हुई। जबकि, केंद्रीय पुल की कुल खरीदारी क्रमश: 3.89 व 5.20 करोड़ टन रही।

रसातल में जा रहा भूगर्भ जल : गेहूं की सिंचाई अधिकतम पांच बार करनी पड़ती है, जबकि धान की 30 बार और उससे ज्यादा। पंजाब का भूगर्भ जलस्तर हर साल आधा मीटर गिर रहा है। ऐसे में सरकार पंजाब में धान की उन प्रजातियों के उत्पादन पर जोर देती रही है, जिन्हें पानी की जरूरत कम पड़ती है। 

सरकार के प्रयास : भूगर्भ जल संरक्षण के लिए पंजाब सरकार वर्ष 2009 में कानून लेकर आई। इसके तहत 15 मई व 15 जून से पहले धान की रोपाई नहीं की जा सकती। अब समस्या यह हुई कि अगर धान की पूसा-44 नस्ल को मध्य जून में रोपा जाता है तो वह अक्टूबर के अंत तक तैयार होगी। इसके बाद गेहूं की बोआई की तैयारी के लिए किसानों के पास समय बहुत कम बचता है और उन्हें पराली जलानी पड़ती है, जिससे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में स्मॉग की समस्या पैदा हो जाती है।

रास्ता क्या है : किसानों को धान व गेहूं की खेती कम करने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। पारंपरिक धान की खेती को कम करना होगा। बासमती की खेती को बढ़ावा देना होगा, जिसे अपेक्षाकृत कम पानी की जरूरत होती है। उसकी विदेश में मांग ज्यादा है, जिससे किसानों को अच्छी कीमत भी मिल सकती है। इसके अलावा कपास, मक्का, मूंगफली, अरहर, मूंग व उड़द आदि के उत्पादन को बढ़ावा देना चाहिए तथा सरकार को भी इन फसलों की उचित कीमत पर खरीद की व्यवस्था करनी चाहिए।

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