Move to Jagran APP

...और यहां बैर कराती मधुशाला!, बैर भी ऐसा जो थमने की बजाय बढ़ता ही जा रहा

सरकार आस लगाए बैठी थी कि प्रदेश में मधुशालाएं यानी शराब ठेके खुलते ही वित्तीय स्थिति में कुछ बेहतरी होगी मगर यहां तो सब उलट गया।

By Kamlesh BhattEdited By: Published: Wed, 27 May 2020 09:19 AM (IST)Updated: Wed, 27 May 2020 09:19 AM (IST)
...और यहां बैर कराती मधुशाला!, बैर भी ऐसा जो थमने की बजाय बढ़ता ही जा रहा
...और यहां बैर कराती मधुशाला!, बैर भी ऐसा जो थमने की बजाय बढ़ता ही जा रहा

जालंधर [अमित शर्मा]। बैर कराते मंदिर-मस्जिद, मेल कराती मधुशाला! सुप्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्चन की मशहूर कृति मधुशाला की इस एक पंक्ति में सिमट गया था तीन मई की सुबह का वह तमाम घटनाक्रम को जो लॉकडाउन के तीसरे चरण में 41 दिन बाद पहली बार शराब की बिक्री आरंभ होते ही देशभर में शराब की दुकानों पर देखने को मिला था। लॉकडाउन के दौरान केंद्र से शराब बिक्री के लिए इजाजत मांगने वाले पहले और एक मात्र राज्य पंजाब में भी शराब की दुकानें खुलते ही कुछ ऐसे नजारों की उम्मीद थी। सरकार आस लगाए बैठी थी कि प्रदेश में मधुशालाएं यानी शराब ठेके खुलते ही वित्तीय स्थिति में कुछ बेहतरी होगी, मगर यहां तो सब उलट गया। सूबे में ठेके शुरू करने के लिए नीति निर्धारण को लेकर राज्य मंत्रिमंडल के सदस्यों और प्रदेश के मुख्य सचिव के बीच ऐसा 'बैर' हुआ कि मधुशाला पर उपरोक्त पंक्ति के मायने ही बदल गए। बैर भी ऐसा जो थमने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है।

prime article banner

पहले तो एकजुट हो मंत्रिमंडल के सदस्य और अफसरशाही से उलझे, फिर मंत्रिमंडल ही आपसी गुटों में ऐसा बंटा कि मंत्री ही मंत्री के बैरी हो गए और बात एक दूसरे पर एफआइआर कराने की सार्वजनिक धमकियां देने तक आ पहुंची। सरकारी स्पष्टीकरणों के बीच प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने तो मंत्रियों, विधायकों और सूबे के वरिष्ठतम आइएएस अफसर करण अवतार सिंह के बीच पनपे इस बैर को एक 'जंग' बताते हुए सरेआम एलान कर डाला कि यह 'जंग' अभी थमी नहीं है और अबकी बार यह अपने निहित अंत तक पहुंच कर ही रुकेगी'।

उधर, लाइसेंसी ठेकेदारों ने एक्साइज विभाग से ऐसा पेंच फंसाया कि केंद्र और राज्य सरकार की अनुमति मिलने के आठ दिन बाद भी शराब की दुकानें खुल न सकीं। 14 मई को जब एक्साइज विभाग द्वारा दुकानें 'जबरन' खुलवाई भी गईं तो उन पर सन्नाटा देख ऐसा लगने लगा मानो पंजाब में जनता कर्फ्यू की तरह अब यहां की जनता ने शायद स्वत: शराबबंदी भी लागू कर ली है। विभागीय आंकड़ों में बात करें तो शराब की बिक्री को लेकर हमेशा अपनी एकमुश्त बढ़त बनाए रखने वाले पंजाब में अब आलम यह है लॉकडाउन के बाद पिछले सालों की तुलना में शराब की आधिकारिक बिक्री औसतन 60 फीसद नीचे आ गई है। खैर, लॉकडाउन के बाद से राज्य में बिकने वाली शराब के नीति निर्धारण को लेकर पैदा हुए इस बैर विरोध ने एक बात तो साबित कर दी है कि शराब को लेकर हो रही बदमगजी राज्य सरकार के वित्तीय घाटे को लेकर कम और इस कारोबार से जुड़े नेताओं और अफसरों के निजी हितों को लेकर अधिक है ।

पंजाब में इस समय 15 डिस्टलरीज चल रही हैं, जो या तो राजनीतिक हस्तियों की ही हैं या फिर उनकी इस शराब के कारोबार में हिस्सेदारी है। प्रदेश के कई विधायक सीधे तौर पर शराब के ठेके लेने लगे हैं। यानी यूं मान कर चलें कि कुछ समय से राज्य में शराब का कारोबार पूर्णत: राजनीतिक व्यक्तियों के हाथ में जा चुका है। शराब व्यवसाय के इसी राजनीतिकरण का फायदा उठाते हुए प्रदेश के आला अफसर भी अब बहती गंगा में जमकर हाथ धो रहे हैं। शायद यही एक अहम वजह बनी मुख्य सचिव करण अवतार सिंह और वित्त मंत्री मनप्रीत सिंह बादल समेत कैबिनेट के कुछ वरिष्ठ मंत्री के बीच शुरू हुई जंग की।

दरअसल, हाल ही में मुख्य सचिव द्वारा मंत्रिमंडल की बैठक में कैबिनेट की सहमति लिए बिना ही नई शराब नीति पेश कर दी गई। अफसरशाही को 'निजी हितों' के लिए ऐसी नीतियां न बदलने की सलाह देते हुए मंत्रियों ने अफसरशाही पर तय लक्ष्य से कम राजस्व आने की जिम्मेदारी उन्हीं पर डालने की बात की। जवाब में मुख्य सचिव ने राजस्व की कमी का कारण 'राजनीतिक दखलंदाजी' बताते हुए वित्त मंत्री मनप्रीत बादल के ही गृह जिले बठिंडा का उदारहण दे डाला। उसे लेकर शिरोमणि अकाली दल के प्रमुख सुखबीर बादल भी वित्त मंत्री के एक नजदीकी रिश्तेदार पर लगातार शराब, रेत और ट्रांसपोर्ट आदि के कारोबार में दखलअंदाजी का आरोप लगाते रहे हैं। चूंकि मुख्य सचिव द्वारा पेश की गई शराब पॉलिसी ठेकदारों को लॉकडाउन के समय को लेकर वित्तीय राहत प्रदान करने के लिए थी, इसलिए मुख्यमंत्री के सलाहकार और भारतीय युवा कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष अमरिंदर सिंह राजा वडि़ंग ने ट्विटर के जरिये मुख्य सचिव के बेटे पर शराब बेचने वाली कुछ बड़ी कंपनियों के साथ उनकी हिस्सेदारी के आरोप मढ़ तमाम सुबूत सार्वजनिक करने की घोषणा कर दी।

अब तक केवल शराब पॉलिसी तक सीमित आपसी बैर उस समय राज्य में अवैध शराब की सरेआम बिक्री तक आ पहुंचा जब पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद प्रताप सिंह बाजवा ने सूबे में नाजायज शराब माफिया को मुख्मंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और उच्चतम प्रशासनिक अधिकारियों का खुला संरक्षण हासिल होने का आरोप लगाकर एक नया अध्याय खोल दिया। इसी बीच मुख्यमंत्री के गृह जिले पटियाला में कुछ कांग्रेस नेताओं के कथित संरक्षण में चल रही शराब की अवैध फैक्ट्रियां पकड़े जाने के तुरंत बाद सूबे की सियासत का शराब के मुद्दे में सरोबार होना स्वाभाविक था। विपक्ष तो विपक्ष, बाजवा समेत अनेक कांग्रेसियों ने स्वयं ही कहना शुरू कर दिया कि हमारी (कांग्रेस) सरकार में पनपा शराब माफिया राज्य में शासनतंत्र पर इस कदर हावी है कि यहां के हालात पिछली अकाली-भाजपा गठबंधन सरकार से भी बुरे हो गए हैं।

आज जब शराब के कारोबार, इसमें राजनीतिक और प्रशासनिक दखलंदाजी और राजस्व में भारी गिरावट को लेकर विपक्ष के साथ-साथ सत्ताधारी दल के नेता और मंत्रिमंडल के अहम सदस्य भी सवाल खड़े कर रहे हैं तो जरूरी है कि मुख्यमंत्री उन तमाम सुधारों और घोषणाओं को तुरंत अमल में लाने की प्रक्रिया शुरू करें जो अब तक अलग-अलग स्तर पर राजनीतिक दबाव के चलते ठंडे बस्ते में पड़ी हैं। एक विधायक द्वारा मुख्य सचिव और कुछ अन्य प्रशासनिक आधिकारियों के बेटों और रिश्तेदारों पर शराब कारोबार में कथित संलिप्तता का खुलासा किए जाने पर मुख्य सचिव से एक्साइज विभाग का चार्ज छीन मुख्यमंत्री कुछ दिन के लिए मसले को ठंडा तो कर सकते हैं लेकिन उन्हेंं समझना होगा कि इसका स्थायी हल उन्हीं के उसी एलान में है जब मार्च 2017 में सत्ता संभालते ही उन्होंने पहली कैबिनेट मीटिंग में 'कनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट बिल' लाने की बात की थी। इस बिल के तहत उन्होंने प्रस्तावित किया था कि जिन लोगों ( राजनीतिक अथवा प्रशासनिक) के अपने कारोबार हैं उन्हेंं संबंधित महकमों से पूरे कार्यकाल में दूर रखा जाएगा। अगर वाकई में ऐसा हुआ होता तो आज इस तरह के 'बैर और जंग' की नौबत ही न आती।

अब रही बात शराब के कारोबार में घटते राजस्व की तो इसका समाधान भी मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की उन घोषणाओं में ही है जो उन्होंने चुनाव से ठीक पहले अपने 'विजन फॉर पंजाब' डाक्यूमेंट में शराब कारपोरेशन जैसी संस्था गठित करने को लेकर की थी। यह अलग बात है कि इस विवाद के बीच अब जबकि चौथी आबकारी नीति घोषित हो चुकी है और शराब कारपोरेशन का दूर-दूर तक कोई पता नहीं है। ऐसे में सवाल उठना वाजिब है कि इसी कारपोरेशन सिस्टम के तहत शराब ठेकों की जगह सीधे बेचकर जब तमिलनाडु जैसे राज्य 30 हजार करोड़ रुपये का राजस्व कमाने के इतर 28 हजार से अधिक लोगों को रोजगार मुहैया करवा चुके हैं तो यदा-कदा राजस्व और शराब माफिया का मसला उठा मंत्री, विधायक या अफसर एकजुट हो मुख्यमंत्री को तुरंत कनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट बिल और शराब कारपोरेशन बनाने के लिए मजबूर क्यों नहीं कर देते? यह इन सभी को सोचना चाहिए, नहीं तो 'मधुशालाएं' बच्चन साहब की पंक्तियों के उलट बैर ही बढ़ाती जाएंगी। (लेखक दैनिक जागरण पंजाब के स्थानीय संपादक हैं)


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.