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'साधना' की 'अग्नि परीक्षा' पर 'नंगे पैरां दा सफर', थोड़े शब्दों में बहुती बात कहने में माहिर थीं टिवाणा

दलीप कौर टिवाणा का साहित्यक सफर 1961 में कहानियों संग्रह साधना से शुरू हुआ। अग्नि परीक्षा उनका पहला उपन्यास था। टिवाणा की स्व जीवनी नंगे पैरां दा सफर भी काफी चर्चित रहा।

By Kamlesh BhattEdited By: Published: Sat, 01 Feb 2020 01:12 PM (IST)Updated: Sat, 01 Feb 2020 01:12 PM (IST)
'साधना' की 'अग्नि परीक्षा' पर 'नंगे पैरां दा सफर', थोड़े शब्दों में बहुती बात कहने में माहिर थीं टिवाणा
'साधना' की 'अग्नि परीक्षा' पर 'नंगे पैरां दा सफर', थोड़े शब्दों में बहुती बात कहने में माहिर थीं टिवाणा

जालंधर। पंजाब की नामचीन साहित्यकार दलीप कौर टिवाणा का गत दिवस लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला की आजीवन फेलो रहीं पद्मश्री से सम्मानित टिवाणा पंजाबी साहित्य की प्रमुख उपन्यासकार थीं। उनका साहित्यक सफर 1961 में कहानियों संग्रह 'साधना' से शुरू हुआ। 'अग्नि परीक्षा' उनका पहला उपन्यास था। टिवाणा की स्व जीवनी 'नंगे पैरां दा सफर' भी काफी चर्चित रहा।

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पंजाबी साहित्य जगत में वह पहली महिला थीं, जिनकी रचना 'कथा कहो उर्वशी' को केके बिरला फाउंडेशन की तरफ से सरस्वती सम्मान दिया गया। भाषा विभाग पंजाब का शिरोमणि साहित्य सम्मान, पंजाबी साहित्य अकादमी लुधियाना का करतार सिंह धालीवाल पुरस्कार और पंजाबी अकादमी दिल्ली का (1980-90) सर्वोत्तम उपन्यासकार पुरस्कार भी डॉ. टिवाणा को मिला। इसके इलावा उनकी बच्चों के लिए रचित पुस्तक 'पंचा विच परमेश्वर' को शिक्षा और समाज भलाई मंत्रालय की तरफ से सम्मान दिया गया। टिवाणा की स्व जीवनी 'नंगे पैरां दा सफर' को भाषा विभाग पंजाब की तरफ से गुरमुख सिंह मुसाफिर अवॉर्ड दिया गया। 

डॉ. टिवाणा पंजाबी यूनिवर्सिटी में लेक्चरर के तौर पर नियुक्ति पाने वाली पहली महिला थीं। इसके बाद वे भाषा विभाग की डीन बनीं। जालंधर दूरदर्शन ने टिवाणा की शख्सियत और सृजन प्रक्रिया के बारे एक डॉक्यूूमेंट्री फिल्म बनाई। इतनी प्राप्तियों और सम्मानों के बावजूद वह बहुत सहज थे। नि:संदेह टिवाणा का जीवन आने वाली पीढिय़ों के लिए एक आदर्श बना।

दलीप कौर टिवाणा का जन्म 4 मई 1935 को जिला लुधियाना के गांव रब्बों में पिता काका सिंह और माता चंद कौर के घर पर हुआ। पालन-पोषण पटियाला में हुआ, जहां टिवाणा के फूफा सरदार तारा सिंह सिद्धू जेलों के इंस्पेक्टर जनरल थे। डॉ. टिवाणा को बचपन से ही किताबें पढ़ने का शौक था। यही शौक बाद में साहित्य रचने की प्रेरणा बना।

एमए की पढ़ाई यूनिवर्सिटी से पहली पोजीशन में पूरी की। एमए के बाद पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ से पीएचडी की डिग्री हासिल की। लंबे समय तक उन्होंने अध्यापक के तौर पर सेवाएं दीं। विद्यार्थियों के साथ उनका रिश्ता हमेशा ही परिवार जैसा रहा। मोहन सिंह दीवाना और प्रीतम सिंह जैसे दरवेश पुरुषों की संगत ने उनको जिंदगी में कुछ बड़ा करने और बनने के लिए प्रेरित किया।

टिवाणा ने 30 उपन्यासों, सात कहानी-संग्रह और स्व जीवनी की रचना भी की। इसके अलावा तीन आलोचन पुस्तकें, तीन पुस्तकें बच्चों के लिए और दो गद्य संग्रह भी लिखे। डॉ. टिवाणा का साहित्यक सफर 1961 में कहानियों की किताब 'साधना' से शुरू हुआ। उनकी इस पहली किताब को ही भाषा विभाग की तरफ से साल की सर्वोत्तम किताब का पुरस्कार प्राप्त हुआ। प्रबल वहिण, तू भरीं हुंगारा, इक कुड़ी, तेरा कमरा मेरा कमरा उनके कुछ और कहानी संग्रह हैं।

डॉ. टिवाणा का पहला उपन्यास 'अग्नि परीक्षा' (1967) में डॉ. महेंदर सिंह रंधावा की प्रेरणा के साथ छपा। एही हमारा जीवन (1968) उनका दूसरा उपन्यास था, जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया। इस उपन्यास का अंग्रेजी और हिंदी समेत कई भाषा में अनुवाद हुआ और दूरदर्शन जालंधर ने इस उपन्यास पर आधारित एक टीवी धारावाहिक का निर्माण किया। इसके माध्यम से टिवाणा ने महिलाओं की समस्याओं की बात करते हुए बुरी सामाजिक व्यवस्था पर तीखा व्यंग्य कसा।

तीली दा निशान (1970), दूसरी सीता (1975), हस्ताक्षर (1982), ऋण पितरां दा (1986), ऐर वैर मिल्देयां (1986), लंघ गए दरिया (1990), कथा कुकनुस दी (1990) और कथा कहो उर्वशी (1999) उनके कुछ प्रसिद्ध उपन्यास हैं। उनके उपन्यास उस महिला की कथा कहती है, जो अपने लिए आदर्श घर और मान सम्मान दोनों की तलाश में है। इस तलाश के सफर पर वह कहीं भी समाज की ओर से स्थापित महिला की ऊंची कदरों से किनारा नहीं करती।

टिवाणा के गल्प में महिला रिश्तों के आदर्श रूप का प्रतीक है। वह पारंपरिक ऊंची कदरों और आधुनिक सोच दोनों के साथ एक ही समय पर जुड़ी हुई हैं। उनके उपन्यासों में जीवन क्या है, क्यों है, हम कहां से आए हैं, कहां जाना है, रिश्ते क्या हैं और ऐसे ही अनेक सवालों के जवाब मिलते रहे। इस रास्ते पर चलते हुए पुरातन इतिहास, पुराण और धर्म उनके रास्ते में आते रहे। इस प्रसंग में उनका चर्चित उपन्यास 'कथा कहो उर्वशी' जिंदगी और मौत के भेद की लंबी दास्तान है। थोड़े शब्दों में बहुती बात कहनी और वह भी कावि के अंदाज में यह टिवाणा की उपन्यास कला की प्रमुख पहचान थी। लोकोक्तियों और लोक कथाओं का प्रयोग उसके उपन्यासों को रोचक बनाते थे और गहरे अर्थ भी प्रदान करते थे। (प्रस्तुतिः गुरभजन गिल, प्रसिद्ध पंजाबी लेखक) 

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