यह है जालंधरः मारवाड़ के सेठ परिवार ने शुरू की थी मंदिर नौहरियां की देखरेख Jalandhar News
नौहरी शब्द की उत्पत्ति नौहर से मानी जाती है। इसे घोड़ा या घोड़ा गाड़ी या गायें आदि रखने का स्थान कहा जाता था।
जालंधर, जेएनएन। गुरु नानक देव जी के निजधाम सचखंड गमन के बाद जब गुरु अंगद देव जी को गुरुगद्दी पर सुशोभित किया गया, तब गुरु नानक देव जी के पुत्र और महान तपस्वी बाबा श्रीचंद जी में उदासीन भावनाओं का संचार हुआ। इससे उनके उपासक उदासीन संप्रदाय से संबंधित संन्यासी कहलाए। बाबा श्रीचंद जी एक चमत्कारी महापुरुष थे और इस संप्रदाय का आरंभ सन 1539 के आसपास हुआ। जालंधर की चारदीवारी के अंदर यहां कई अन्य धार्मिक स्थल थे। उनमें से डेरा उदासियां को भी प्राचीनतम माना जाता है।
वर्ष 1847 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने पंजाब पर अपना आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास आरंभ किया। उस दौरान शहर के भीतर का यह उदासीन डेरा लगभग वीरान सा हो गया। उन्हीं दिनों मारवाड़ का एक सेठ परिवार कारोबार के संबंध में जालंधर आया। शिव लाल बुधिया का यह परिवार कपास का बहुत बड़ा व्यापारी था। वर्ष 1851 से उन्होंने आते ही इस मंदिर की देखरेख का दायित्व संभाला। तभी से सभी इसे मंदिर नौहरियां के नाम से पुकारने लगे।
नौहरी शब्द की उत्पत्ति नौहर से मानी जाती है। इसे घोड़ा या घोड़ा गाड़ी या गायें आदि रखने का स्थान कहा जाता था। अजीब बात यह है कि बुधिया परिवार पहले नौहर वाले परिवार कहलाते रहे और धीरे-धीरे नौहरियां हो गए। इस मंदिर में पूजा-अर्चना के लिए जोपट परिवार के पंडित भी मारवाड़ से ही आए थे।
जब अंग्रेज सार्जेंट हो गया बेहोश
इस मंदिर के चमत्कारों के बारे में कई कथाएं सुनने को मिलती हैं। उनमें से एक बहुत विख्यात है कि सन 1857 की क्रांति में कंपनी की सेना को यह संदेह था कि कुछ क्रांतिकारी इस मंदिर में छिपे हैं। जो अंग्रेज सार्जेंट अपनी सेना की टुकड़ी के साथ भीतर गया, वह अचेत हो गया। मंदिर के पुजारी ने उस पर जल का छींटा दिया और उसे जागृत करके समझाया कि भगवान के घर में शुद्ध हृदय से आना चाहिए। सार्जेंट ने क्षमा मांगी और बाहर निकल गया।
वर्ष 1938 में निकली थी पहली शोभायात्रा
इस मंदिर की मान्यता पूरे नगर में बहुत थी और कुछ त्योहारों पर यहां भारी भीड़ जुटा करती थी। मंदिर नौहरियां के सामने वाला बाजार भी अब नौहरियां बाजार कहलाता है। यहीं से श्रीरामनवमी के उत्सव पर शोभायात्र का आरंभ हुआ माना जाता है। यह पहली शोभायात्रा सन 1938 में जालंधर नगर के भीतरी भाग में ही सीमित रही थी। कुछ इतिहासकार कहते हैं यह मंदिर उदासियों का न होकर वैरागियों का था। लिहाजा इस पर शोधकार्य की आवश्यकता है।
(प्रस्तुतिः दीपक जालंधरी - लेखक शहर की जानी-मानी शख्सियत और जानकार हैं)
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