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युद्ध में फाजिल्का का कवच बने थे मेजर नारायण सिंह

भारत-पाक के बीच 1971 के युद्ध की दास्तां शौर्य गाथाओं से भरी हुई है।

By JagranEdited By: Published: Tue, 07 Dec 2021 06:00 AM (IST)Updated: Tue, 07 Dec 2021 06:00 AM (IST)
युद्ध में फाजिल्का का कवच बने थे मेजर नारायण सिंह
युद्ध में फाजिल्का का कवच बने थे मेजर नारायण सिंह

मोहित गिल्होत्रा, फाजिल्का: वैसे तो भारत-पाक के बीच 1971 के युद्ध की दास्तां शौर्य गाथाओं से भरी हुई है। शौर्या गाथा की बात हो तो मेजर नारायण सिंह का नाम सबसे पहले आता है क्योंकि वह छह दिसंबर को फाजिल्का का कवच बनकर आए और आते ही दुश्मन सेना पर हमला करते हुए उनके हौसलों को पस्त कर दिया। मेजर नारायण इसलिए ज्यादा याद नहीं किए जाते कि उन्होंने देश की रक्षा में अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। बल्कि इसलिए कि दो माह के बच्चे को छोड़कर देश के लिए लड़ने के लिए उनके पैर नहीं डगमगाए। आज भी फाजिल्का का नौजवान जब शहीदों की समाधि आसफवाला में पहुंचता है तो वहां बनाई मेजर नारायण सिंह की प्रतिमा पर नमन करके उनके जैसी देश भक्ति अपने भीतर लाने की शपथ लेता है।

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बात पांच दिसंबर रात की है। दुश्मन सेना ने फाजिल्का के कई हिस्सों के अलावा साबूआना डिस्ट्रीब्यूटर के पास बेरीवाला पुल पर कब्जा जमा लिया। इसके बाद छह दिसंबर को जाट रेजिमेंट की चौथी बटालियन के मेजर नारायण सिंह की बी कंपनी को छह दिसंबर, 1971 की मध्यरात्रि में बेरीवाला पुल पर कब्जा करने का काम सौंपा गया था। यह हमले डिस्ट्रीब्यूटरी के बांध के साथ हावी हाइट्स पर तैनात एक अच्छी तरह से घुसे हुए दुश्मन के खिलाफ शुरू किया जाना था। छह दिसंबर की रात एक बजकर 20 मिनट पर बी कंपनी प्रमुख मेजर नारायण ने दुश्मन की भारी गोलाबारी के बीच कोई परवाह ना करते हुए अपने लक्ष्य पर हमला कर दिया। मेजर दुश्मनों पर भारी पड़ रहा था। उनका हौसला इतना बुलंद था कि वह दुश्मनों के शिविर तक जा पहुंचे। मेजर दुश्मनों के शिविर में कब घुसे उन्हें भी पता नही चला। मन में इच्छा थी सिर्फ दुश्मनों को मार गिराने की। उसके अदम्य साहस के आगे दुश्मन भी हैरान थे। दुश्मन की सेना की एक बड़ी टुकड़ी उसके पास से निकली तो वे बंकर में घुस गए। तब भी उसे पता न चला कि वह दुश्मन की सरजमीं पर है। बंदूक की गोलियां खत्म हो चुकी थी। अचानक दुश्मन की गोलियां उसके हाथ लगी और वह दुश्मन पर टूट पड़ा। तब दुश्मन की गोलियां उस पर बरसी और उसका शरीर छलनी हो गया। इस दौरान दुश्मन के कई जवानों के साथ अधिकारी को भी मार गिराने के बाद मेजर नारायण शहीद हो गए। इस अतुलनीय साहस, कर्तव्य के प्रति समर्पण और सर्वोच्च बलिदान साहस, कर्तव्य के प्रति समर्पण और राष्ट्र के लिए सर्वोच्च बलिदान के लिए मेजर नारायण सिंह को वीआरसी से सम्मानित किया गया। आज भी युवा इस बात के लिए उन्हें नमन करने के लिए पहुंचते हैं कि इस शहीद ने हमारे कल के लिए अपना आज न्यौछावर कर दिया।

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युद्ध से डेढ साल पहले ही हुई थी शादी

मेजर नारयण सिंह ने 1971 के युद्ध में अदम्य साहस का परिचय दिया। उसकी वीर गाथा के एक-एक शब्द के फाजिल्कावासी कर्जदार हैं। डेढ़ साल पहले शादी कर लाई पत्नी को घर के द्वार से ही अलविदा कह दिया। परिवार का मोह त्याग दिया। अगर मेजर नारायण सिंह या अन्य जवान फाजिल्का का कवच न बनते तो न जाने कितने ही बच्चे अनाथ हो जाते। कितनी ही बहनों का सुहाग उजड़ जाता। कितनी ही माताओं की कोख विरान हो जाती, लेकिन उस मेजर ने अपनी सुहागिन का सिदूर वार दिया ताकि फाजिल्का क्षेत्र की औरतों का सुहाग सलामत रहे। अपने बच्चे को घर में छोड़ दिया ताकि फाजिल्का की माताओं की गोद भरी रहे। इस लिए मेजर नारायण सिंह ने अपने रक्त का आखिरी कतरा तक यहां बहा दिया ताकि इस धरती का ओर पवित्र बनाया जा सके।


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