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मास्टर स्ट्रोक या स्ट्रैटजिक ब्लंडर, क्या आगामी चुनाव में भी होंगे चरणजीत सिंह चन्नी सीएम पद का चेहरा!

Punjab Political Crisis इन तमाम संभावित परिणामों के मद्देनजर अब तो वक्त ही यह बताएगा कि कांग्रेस हाईकमान का यह फैसला मास्टर स्ट्रोक होगा या स्ट्रेटेजिक ब्लंडर। जो भी होगा उसका पंजाब ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर भी कांग्रेस की राजनीति पर गहरा असर होगा।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 21 Sep 2021 09:52 AM (IST)Updated: Tue, 21 Sep 2021 04:30 PM (IST)
मास्टर स्ट्रोक या स्ट्रैटजिक ब्लंडर, क्या आगामी चुनाव में भी होंगे चरणजीत सिंह चन्नी सीएम पद का चेहरा!
चरणजीत सिंह चन्नी: क्या आगामी चुनाव में भी होंगे सीएम का चेहरा। फाइल फोटो

अमित शर्मा। Punjab Political Crisis अंतर्कलह से जूझती पंजाब कांग्रेस में लगातार बदलते अंदरूनी सियासी समीकरणों के बीच पार्टी आलाकमान ने अंतत: रविवार को कैप्टन अमरिंदर सिंह की कैबिनेट में मंत्री रहे दलित विधायक चरणजीत सिंह चन्नी को राज्य का मुख्यमंत्री घोषित कर दिया। पार्टी के वरिष्ठ नेता और पंजाब मामलों के प्रभारी हरीश रावत द्वारा ट्विटर पर इस अप्रत्याशित फैसले की सूचना मिलते ही तमाम पार्टी नेताओं समेत राजनीतिक विश्लेषकों में तो मानों गांधी परिवार के इस निर्णय को ‘मास्टर स्ट्रोक’ बताने की होड़ ही लग गई हो।

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कुछ ने तो यहां तक कह डाला कि चुनाव से महज कुछ माह पहले चन्नी को राज्य का पहला दलित मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस ने विपक्षी पार्टियों के दलित मुख्यमंत्री या उप मुख्यमंत्री बनाने के एजेंडे की धार को पूरी तरह से कुंद कर दिया है। इस फैसले को सटीक मानने वाले राजनेताओं और विश्लेषकों का तर्क है कि एक दलित विधायक को मुख्यमंत्री बनाते ही न सिर्फ पार्टी ने राज्य की सबसे बड़ी करीब 32 फीसद दलित आबादी को ही साध लिया है, बल्कि इससे पार्टी के अंदर चल रही बगावत और अंतर्कलह का भी ‘सटीक’ पटाक्षेप हो गया है।

अल्पकालीन परिप्रेक्ष्य में यह फैसला कुछ हद तक सटीक ठहराया भी जा सकता है, लेकिन अगर पांच महीने बाद होने वाले चुनावों के परिप्रेक्ष्य में देखें तो इसमें कोई संदेह नहीं कि आने वाले समय में यह फैसला पंजाब ही नहीं कांग्रेस के लिए एक बहुत बड़ा ‘स्ट्रेटेजिक ब्लंडर’ (रणनीतिक गलती) साबित होने वाला है। पंजाब में फरवरी में विधानसभा चुनाव होने हैं और यह चुनाव पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू जो एक गैर-दलित नेता हैं, उनकी अगुआई में लड़े जाने हैं।

सिद्धू और उनकी टीम द्वारा पार्टी में बगावत का झंडा बुलंद करवा कर जिस तरह हाईकमान ने कैप्टन अमरिंदर सिंह से शनिवार को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा लिया उससे पूरी तरह स्पष्ट है कि 2022 चुनावों में अब नवजोत सिंह सिद्धू ही पार्टी की अगुआई करेंगे। अमरिंदर के इस्तीफे के बाद सिद्धू की जोरदार दावेदारी को छोड़ चन्नी को मुख्यमंत्री बनाए जाने पर किसी को संशय न पैदा हो जाए इसी कारण हरीश रावत ने स्वयं ही तुरंत ट्वीट कर यह स्पष्ट किया कि अगला चुनाव सिद्धू की अगुआई में ही लड़ा जाएगा।

सो जाहिर है कि सीएम चेहरा भी सिद्धू ही होंगे, जो जट्ट सिख परिवार से हैं। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि साढ़े पांच महीने बाद मुख्यमंत्री पद के लिए पार्टी का शीर्ष नेतृत्व किस तरह एक दलित चेहरे (चरणजीत सिंह चन्नी) को एक जट्ट सिख चेहरे (नवजोत सिंह सिद्धू) से रिप्लेस करेगा? पार्टी के भीतर दलित नेताओं की महत्वाकांक्षाओं और पार्टी के बाहर दलित समुदाय के वोटरों की अपेक्षाओं को सुलगाने के बाद क्या पार्टी हाईकमान 2022 का चुनाव एक गैर-दलित मुख्यमंत्री के नाम पर लड़ने का जोखिम उठा पाएगी? हां, ऐसा हो सकता था, मगर केवल उस स्थिति में जब यह गैर दलित चेहरा नवजोत सिंह सिद्धू के इतर कोई और होता, लेकिन चूंकि अब अमरिंदर या किसी अन्य टकसाली कांग्रेसी नेता को छोड़ गांधी परिवार ने उस सिद्धू पर दांव लगाया है जिसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं किसी से भी छिपी नहीं हैं।

सो वर्तमान संदर्भ में गांधी परिवार का यह फैसला, जिसे आज ‘मास्टर स्ट्रोक’ माना जा रहा है, आने वाले महीनों में उन्हीं के गले की फांस बनेगा। गले की फांस इसलिए क्योंकि चुनावी माहौल में सिद्धू, जिन्हें अपनी शर्तो पर फैसले करवाने की आदत है, उन्हें पार्टी आलाकमान नाराज नहीं कर पाएगा। पार्टी यदि सिद्धू को अघोषित मुख्यमंत्री के रूप में भी प्रोजेक्ट करती है तो न सिर्फ दलित समुदाय की नाराजगी मोल लेनी होगी, बल्कि एक दलित मुख्यमंत्री को गैर दलित चेहरे से बदलने पर विपक्षी दलों द्वारा लगाए जाने वाले जाने वाले ‘दलित विरोधी’ टैग का भी सामना करना होगा। विरोधी दलों ने तो इस रणनीति के संकेत पहले ही दे दिए हैं। बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने तो चन्नी को भेजे अपने बधाई संदेश में रावत द्वारा सिद्धू के नेतृत्व में अगला चुनाव लड़ने की बात का जिक्र तक करते हुए कह दिया कि कांग्रेस का दलितों पर यह भरोसा केवल पांच महीने के लिए है। ऐसे में अहम यह है कि पंजाब को एक दलित मुख्यमंत्री देकर इस फैसले को भुनाने में जुटी कांग्रेस को उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और गुजरात के विधानसभा चुनाव में फायदा मिले न मिले, लेकिन पांच महीने बाद एक दलित मुख्यमंत्री को गैर-दलित चेहरे से रिप्लेस करने का खामियाजा जरूर भुगतना पड़ सकता है।

आलाकमान के इस फैसले को यदि पार्टी की राज्य इकाई के नेताओं के बीच चल रही अंदरूनी खींचतान के मद्देनजर भी देखा जाए तो भी इस फैसले से न तो कैप्टन अमरिंदर सिंह और सिद्धू खेमे की लड़ाई का कोई स्थायी समाधान हुआ है और न ही अन्य किसी भी तरह की गुटबंदी थमी है। थोड़ी बेबाकी से कहें तो इस फैसले से न सिर्फ अंदरूनी गुटबंदी बढ़ी है, बल्कि पार्टी के भीतर एक बड़ा तबका (38 विधायक) जो खुलेआम एक हिंदू चेहरे (सुनील जाखड़) को मुख्यमंत्री पद का सबसे प्रबल दावेदार देख रहा था, वह भी नाराज हो गया है।

इसके बाद नाराज सुनील जाखड़ ने तो एक ट्वीट के जरिये पार्टी प्रभारी हरीश रावत पर सीधे सवाल ही दाग दिए। अमरिंदर सिंह के इस्तीफे के बाद मुख्यमंत्री पद के दूसरे सबसे प्रबल दावेदार सुखजिंदर सिंह रंधावा ने बेशक उपमुख्यमंत्री पद स्वीकार कर लिया है, लेकिन तमाम विधायकों और हाईकमान की हामी के बावजूद केवल सिद्धू द्वारा उनकी मुखालफत कर मुख्यमंत्री पद की दौड़ के अंतिम चरण में पीछे धकेलने का जो गुबार है वह किसी भी समय नई बगावत का धुरा बन सकता है।

[स्थानीय संपादक, पंजाब]


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