आंदोलन के साये में हो रहे पंजाब निकाय चुनाव में कोई भी दल कृषि कानून पर बात करने से कतरा रहा
Punjab Municipal Election 2021 कैप्टन अमरिंदर सिंह आंदोलनकारियों की पीठ थपथपाते रहे हैं और यह आशंका भी जाहिर करते रहे हैं कि इसमें पाकिस्तान में बैठे अलगाववादी घुसपैठ करवा सकते हैं। वह आशंका अब सही भी साबित होने लगी है।
चंडीगढ़, विजय गुप्ता। Punjab Municipal Election 2021 पंजाब में आठ नगर निगमों और 109 नगर पालिकाओं के चुनाव की बिसात बिछ चुकी है। आतंकवाद के दौर के बाद ऐसा पहली बार है कि राज्य में इस चुनाव में वो रंगत नहीं है। जिस कृषि कानून विरोधी आंदोलन को सियासी दल अभी तक सींच रहे थे, वही आंदोलन अब उन्हें चुनावी मैदान में खुलकर पनपने की जमीन नहीं दे रहा। ऐसा नहीं है कि किसी भी राजनीतिक दल की रुचि चुनाव में नहीं है। भरपूर है। इसलिए भी, क्योंकि इन चुनावों को एक साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव की रिहर्सल या सेमीफाइनल माना जा रहा है। इसलिए यह हर दल के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बना हुआ है। दूसरी ओर हरेक के इर्द-गिर्द मजबूरी का एक घेरा है।
मजबूरी यह कि निकाय चुनाव में मुद्दे विकास के होने चाहिए, शहरों-कस्बों में सुविधाएं मुहैया करवाने के होने चाहिए, बात बिजली-पानी, सड़क, सीवरेज की होनी चाहिए, लेकिन कोई भी पार्टी किसी और मुद्दे की बात नहीं कर पा रही। मुद्दे होते हुए भी पार्टियां धर्मसंकट में हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि कोई भी मुद्दा अगर कृषि कानून विरोधी आंदोलन से बड़ा हुआ तो इससे किसान नाराज न हो जाएं। कहीं बैक फायर न हो जाए। जनता से जुड़े विषय ही नहीं, गैर कांग्रेसी उम्मीदवारों के नामांकन रद किए जाने, कई जगह हिंसा होने, यहां तक कि अकाली दल व भाजपा के नेताओं पर हमले तक होने के बावजूद पार्टियां इस पर भी सियासी तूफान खड़ा नहीं कर पा रहीं।
अकाली दल की दिक्कत यह है कि वह दोतरफा घिरा हुआ है। किसान संगठनों व सियासी दलों के दबाव में उसने राजग से किनारा यह सोच कर किया था कि इसका उसे फायदा होगा। हकीकत यही है कि इन कानूनों का विरोध करने वाले और अन्य सियासी दल खासकर कांग्रेस व आम आदमी पार्टी उसे बार-बार यह कहकर कठघरे में खड़ा कर रहे हैं कि वह तो इस कानून को बनाने वाली सरकार का हिस्सा रही है। अकाली दल से अलग होकर यह निकाय चुनाव अपने चिन्ह पर लड़ने का फैसला करने वाली भाजपा के नेताओं को भी इसी कारण विरोध का सामना करना पड़ रहा है। अकाली दल से कहीं ज्यादा हमले भाजपा पर हो रहे हैं। दोनों दल इसी को मैनेज करने में जुटे हुए हैं और चुनाव इसी पर केंद्रित हो गया है।
पिछले विधानसभा चुनाव में दूसरे नंबर की पार्टी बन गई आप पहली बार नगर परिषदों के चुनाव लड़ रही है और इसका ज्यादा जनाधार मालवा क्षेत्र में है, जहां से आंदोलन में भाग लेने वाले ज्यादातर किसान व किसान नेता भी हैं। निकाय चुनाव में भी आप ने किसान व कृषि कानूनों को ही मुद्दा बनाया हुआ है, क्योंकि वह इस पर आसानी से अकाली दल व भाजपा ही नहीं, कांग्रेस को भी घेर सकती है। कांग्रेस को इसलिए, क्योंकि उसने भी वर्ष 2013 में बने कांट्रैक्ट फार्मिग एक्ट को रद करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया।
यह हकीकत भी है कि जो कांग्रेस सरकार पहले रेल ट्रैक रोके रखने की इजाजत देती है, फिर दिल्ली में आंदोलन को समर्थन का एलान करती है, वह जब पंजाब के कांट्रैक्ट फार्मिग एक्ट के मुद्दे पर घिरती है, तब जाकर उसके अध्यक्ष सुनील जाखड़ कहते हैं कि हम वह कानून रद कर देंगे। पंजाब में जिसकी सरकार उसके स्थानीय निकाय वाली परंपरा रही है, इसलिए कांग्रेस दोनों हाथों में लड्डू मान रही है। सरकार होने का फायदा तो वह उठा ही रही है।
कांग्रेस कृषि कानूनों के मुद्दे पर अकाली दल व भाजपा को ही नहीं, आप को भी घेर रही है। आप को यह कहकर कि दिल्ली में उसने इन कानूनों को लागू करने की अधिसूचना जारी कर दी थी। फिर भी अंदरखाने कहीं न कहीं अब खुद कांग्रेस सरकार को भी लगने लगा है कि यह आंदोलन आग से खेलने वाला साबित हो सकता है। वह अपनी सरकार की उपलब्धियों की बात नहीं कर पा रही। विकास की बात पीछे छूट गई है।
यह सभी को मालूम है कि आंदोलन को हवा देने और अब उसके गलत दिशा में चले जाने पर सबसे बड़ा सवाल भी कांग्रेस पर ही खड़ा होता है। बावजूद इसके, आंदोलन के साये में हो रहे निकाय चुनाव में कोई भी दल इस विषय पर बात करने से डर रहा है। इसी बीच अब तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी जो चिंता जताई है, उस पर गौर करना जरूरी है कि किसानों, खासकर सिखों को गुमराह किया जा रहा है।
[वरिष्ठ समाचार संपादक, पंजाब]