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पंजाब शिक्षा विभाग की सराहनीय पहल, बदलेंगे बेटों के बोल तो तंज-रंज से मुक्त होंगी बेटियां

पंजाब स्कूल शिक्षा विभाग के स्कूलों में बच्चों को महिलाओं के सम्मान का पाठ पढ़ाया जाएगा। शिक्षा विभाग ने लिंग संवेदनशीलता आधारित कार्यक्रम शुरू किया है। इसके लिए राज्य के 4500 अध्यापकों को प्रशिक्षित भी किया गया है।

By Kamlesh BhattEdited By: Published: Mon, 05 Jul 2021 09:27 AM (IST)Updated: Mon, 05 Jul 2021 09:27 AM (IST)
पंजाब शिक्षा विभाग की सराहनीय पहल, बदलेंगे बेटों के बोल तो तंज-रंज से मुक्त होंगी बेटियां
पंजाब के स्कूलों में लिंग संवेदनशीलता आधारित कार्यक्रम शुरू। सांकेतिक फोटो

इन्द्रप्रीत सिंह, चंडीगढ़। ‘बेटी, तुम क्या करोगी आगे पढ़कर... घर के कामकाज में अपनी मां का हाथ बंटाओ.. और फिर शादी के बाद भी तो तुम्हें ससुराल जाकर चूल्हा-चौका ही संभालना है। तुम्हारे भाई के एडमिशन के लिए ही साठ हजार रुपयों की जरूरत है। मुझसे तो वह भी नहीं हो पा रहा, तुम्हारी पढ़ाई के लिए तुम्हें कॉलेज की फीस कहां से दूंगा..।’

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‘इसको सिलाई - कढ़ाई का काम सिखाओ, शादी के बाद यह ससुराल जाएगी तो सही सब इसके काम आएगा।’

‘बस तुम महिलाओं की भी न, अक्ल चोटी के पीछे ही होती है।’

ये सब ऐसे वाक्य हैं जो हम बचपन से ही गाहे बगाहे सुनते रहते आए हैं। यह जाने बगैर कि इन वाक्यों के एक-एक शब्द का छोटी बच्चियों पर क्या असर पड़ता है। बड़े होने पर वे इस मानसिकता की शिकार हो सकती हैं और उनमें आगे बढ़ने की संभावनाएं क्षीण हो सकती हैं।

गुजरते वक्त के साथ समाज में महिलाओं के प्रति सोच बदलने की बात तो तमाम मंचों पर होती है, मगर समाज का सच कुछ और ही है। आज भी कहीं न कहीं महिलाओं के प्रति समानता की सोच का अभाव है। सवाल उठता है कि आखिर हमारे आस पास, समाज में इस तरह के शब्दों का उपयोग क्यों होता है? इन शब्दों के उपयोग को कैसे रोका जा सकता है? उनमें बदलाव लाने के क्या तरीके हो सकते हैं?

इन सभी पर ध्यान देते हुए इस अकादमिक सत्र से पंजाब स्कूल शिक्षा विभाग ने एक एनजीओ ‘ब्रेक थ्रू’ के साथ मिलकर लिंग संवेदनशीलता आधारित एक कार्यक्रम शुरू किया है। वह यह कि छठी से आठवीं तक के अंग्रेजी, पंजाबी, सोशल सांइस आदि विषयों के पाठ्यक्रम में ही बदलाव करके लड़कों को शुरू से ही लड़कियों के प्रति आदर भाव वाले शब्दों का इस्तेमाल करना सिखाया जाए। यह कहानियों के माध्यम से हो सकता है, लेख आदि के माध्यम से हो सकता है। एक्टिविटी के माध्यम से किया जा सकता है। इसके लिए 4500 अध्यापकों को प्रशिक्षित किया गया है। गर्मियों की छुट्टियों के बाद जैसे ही स्कूल खुलेंगे, प्रदेश के बच्चे इस नए पाठ्यक्रम से रूबरू होंगे।

आखिर इसकी जरूरत क्यों पड़ी? इस संबंध में स्कूल शिक्षा विभाग के सचिव कृष्ण कुमार का कहना है कि बच्चों की मानसिकता में बदलाव लाने का सबसे बड़ा हथियार या माध्यम शिक्षा ही है। खास तौर से बुनियादी स्तर पर इसकी पहल करने का प्रयास किया गया है। छोटी कक्षाओं के बच्चों को सही तरीके से सिखाया जाए तो इससे उनके व्यवहार में ही अंतर दिखाई देने लगेगा। कृष्ण कुमार इससे पहले लिंगानुपात व भ्रूण हत्या पर काम कर चुके हैं।

ब्रेकथ्रू की सीनियर डायरेक्टर सुनीता मेनन समाज की बदलती जरूरतों का विवरण देते हुए बताती हैं कि अब भी लड़कियों से पुरानी सामाजिक भूमिकाओं और अपेक्षाओं को पूरा करने की ही उम्मीद की जाती है। उनके व्यवहार में किसी भी तरह के विचलन का समाज और लड़कियों के परिवार द्वारा उनका विरोध किया जाता है। कई बार देखने में आया है कि इस तरह के व्यवहार से लड़कियों को अपनी शिक्षा बीच में ही छोड़नी पड़ती है या फिर अगर वह खेल में शामिल हैं तो लड़कियों के प्रति ‘सामाजिक-दृष्टिकोण’ के कारण उन्हें अपना खेल भी बीच में ही छोड़ना पड़ता है।

उन्होंने बताया कि ऐसे व्यवहार में बदलाव शिक्षा के जरिए ही लाया जा सकता है। पंजाब में इसे लागू करने के लिए ही छठी से आठवीं तक के पाठ्यक्रम को ऐसा बनाया गया है। इसे सरकार को मंजूरी के लिए भेज दिया गया है। इससे पहले कि स्कूल खुलें हम 280 मास्टर ट्रेनरों , 4500 अध्यापकों को प्रशिक्षित कर देंगे जो आगे 13 हजार अध्यापकों को प्रशिक्षित करेंगे।

शिक्षा विभाग में इंग्लिश के लेक्चरर के तौर पर काम कर रहे पुष्पेश कुमार मानते हैं कि लड़कियों को शिक्षा दिलाना गरीब अभिभावकों की प्राथमिकता में नहीं होता। बालमन में अगर हम अभी से लड़कों और लड़कियों के बीच समानता की बात डालेंगे तो बड़े होने पर उनका व्यवहार भी खुद ब खुद बदल जाएगा। सामाजिक बदलाव के लिए यह एक सार्थक प्रयास है।


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