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पीजीआइ चंडीगढ़ में 15 साल की रिसर्च में हुई बैक्टीरिया की नई प्रजाति सेपिलिया की खोज

15 साल की रिसर्च के तहत पीजीआइ चंडीगढ़ के मेडिकल माइक्रोबायोलॉजी विभाग ने सीएसआइआर और इमटेक के साथ मिलकर बैक्टीरिया की एक नई प्रजाति की खोज की है। इस पैथोजेनिक बैक्टीरियल स्पीसेज (बैक्टीरिया) का नाम सेपिलिया रखा गया है।

By JagranEdited By: Published: Fri, 27 Aug 2021 06:00 AM (IST)Updated: Fri, 27 Aug 2021 06:00 AM (IST)
पीजीआइ चंडीगढ़ में 15 साल की रिसर्च में हुई बैक्टीरिया 
की नई प्रजाति सेपिलिया की खोज
पीजीआइ चंडीगढ़ में 15 साल की रिसर्च में हुई बैक्टीरिया की नई प्रजाति सेपिलिया की खोज

विशाल पाठक, चंडीगढ़

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15 साल की रिसर्च के तहत पीजीआइ चंडीगढ़ के मेडिकल माइक्रोबायोलॉजी विभाग ने सीएसआइआर और इमटेक के साथ मिलकर बैक्टीरिया की एक नई प्रजाति की खोज की है। इस पैथोजेनिक बैक्टीरियल स्पीसेज (बैक्टीरिया) का नाम सेपिलिया रखा गया है। सेपिलिया से मानव शरीर में सेप्सिस नाम का इंफेक्शन होता है। सेपिलिया की खोज का श्रेय पीजीआइ के मेडिकल माइक्रोबायोलॉजी विभाग के प्रोफेसर विकास गौतम और सीएसआइआर-इंस्टीट्यूट आफ माइक्रोबियल टेक्नोलॉजी (इमटेक) की प्रमुख वैज्ञानिक डा. प्रभु पाटिल को जाता है।

प्रोफेसर विकास गौतम और डॉ. प्रभु पाटिल ने बताया कि 15 साल की रिसर्च में सामने आया है कि यह बैक्टीरिया आइसीयू वार्ड में एडमिट मरीजों में सबसे ज्यादा इंफेक्शन फैलाता है। कोरोना महामारी से पहले पीजीआइ के आइसीयू वार्ड में एडमिट मरीजों पर किए गए शोध में सेपिलिया का पता चला। डा. प्रभु ने बताया इस बैक्टीरिया को इसलिए सेपिलिया नाम दिया गया है क्योंकि यह रक्त संक्रमण के जरिये मरीज के पूरे शरीर में संक्रमण का कारण बनता है। इस बीमारी को मेडिकल टर्म में सेप्सिस कहा जाता है। सेपिलिया से मरीजों की मृत्यु दर 20 से 60 फीसद तक

प्रोफेसर विकास गौतम ने बताया कि सेपिलिया की वजह से मरीजों में 20 से 60 फीसद तक मृत्यु दर पाई गई। सेपिलिया से संक्रमण का समय पर पता न लगने की स्थिति में एंटीबायोटिक चिकित्सा प्रणाली भी कारगर नहीं होती। आइसीयू वार्ड में भर्ती मरीजों में इस्तेमाल होने वाली सामान्य हाई-एंड एंटीबायोटिक्स इस बैक्टीरिया पर काम नहीं करती है। सबसे पहले इस बैक्टीरिया की सही पहचान करनी होती है और फिर परीक्षण प्रयोगशाला की रिपोर्ट के आधार पर रोगी को सही प्रकार का एंटीबायोटिक देना होता है। वर्ष 2005 में श़ुरू की गई थी रिसर्च

प्रोफेसर विकास गौतम और डा. प्रभु पाटिल ने बताया कि उन्होंने वर्ष 2005 में रिसर्च शुरू की थी। वर्ष 2009 में इस बैक्टीरिया की पहचान के लिए डा. विकास गौतम और बेल्जियम के कुछ शोधकर्ताओं के सहयोग से लैब में कुछ टेस्ट किए गए थे। इसमें इसकी पहचान हो सकी। दूसरी तरफ डा. प्रभु पाटिल ने भी इस बैक्टीरिया की खोज पर काम करना शुरू कर दिया था। वर्ष 2012 में पहली बार उन्होंने पर्यावरण में इस बैक्टीरिया के नमूनों पर खोज की थी। वर्ष 2018 में दोनों ने इसकी नई जीनोम(प्रजातियों) के बारे में अवगत कराया। इस नई प्रजाति में जीव की प्रमुख प्रजातियों को बदलने की क्षमता है। पीजीआइ में आठ रोगियों में इस बैक्टीरिया की पहचान की गई है। उन्होंने बताया कि बैक्टीरिया की कुछ और नई प्रजातियों के बारे में जानकारी मिली है। उनका दावा है कि यह अपने आप में देश की पहली ऐसी रिपोर्ट है, जिसमें मानव शरीर में संक्रमण का कारण बनने वाली नई बैक्टीरिया का पता चला है। इस रिसर्च को हाल ही में एल्सेवियर की प्रमुख पत्रिका न्यू माइक्रोब्स एंड न्यू इंफेक्शन में प्रकाशित किया गया।


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