पिता डांटकर कहते थे जो काम शुरू करो पूरा करके लौटो
पीजीआइ के डायरेक्टर प्रो. जगतराम के पिता दयानुराम अनपढ़ होने के कारण घर में किसानी का काम करते थे।
सुमेश ठाकुर, चंडीगढ़
पीजीआइ के डायरेक्टर प्रो. जगतराम के पिता दयानुराम अनपढ़ होने के कारण घर में किसानी का काम करते थे। दिन-रात एक करके खेतों में काम करते थे और घर में रोटी जुटाने से लेकर हर खर्च को चलाते थे। वह हमेशा कहते थे कि जो भी काम शुरू किया है उसे पूरा करो। काम पूरा करने की हिम्मत न हो तो बेहतर है कि उसे शुरू मत करो। यह कहना है पीजीआइ चंडीगढ़ के डायरेक्टर प्रो. जगतराम का।
फादर्स-डे पर डा. जगतराम ने बताया कि पिता अनपढ़ थे, इसलिए उनके लिए 12वीं तक पढ़ाई काफी थी, लेकिन मेरी जिद्द थी कि मैंने डाक्टरी करनी है और जो लोग बिना इलाज के मर जाते हैं उनके लिए कुछ करना है। उस समय पिता ने कहा कि ठीक है अगर तुम्हें डाक्टर बनना है तो बनो। ऐसा न हो कि पढ़ाई बीच में छोड़ दो या फिर जब नौकरी मिले तो उसे बीच में छोड़ दो। पिता के शब्दों का डर भी था और प्रेशर भी। इसके चलते मैंने पहले पढ़ाई पूरी की और उसके बाद पीजीआइ चंडीगढ़ में आकर काम करना शुरू कर दिया। डा. जगतराम ने बताया कि 12वीं कक्षा की पढ़ाई तक मैंने पापा के साथ खेतों में काम किया है और देखा था कि थकान होने पर भी वह कभी घर नहीं लौटते थे, बल्कि थोड़ी देर खेत में बैठकर आराम करते और दोबारा काम पर जुट जाते। खुले में रात गुजारना पिता के शब्दों का असर
डा. जगतराम ने बताया कि जब मैं पहली बार पीजीआइ में ज्वाइनिग के लिए आया तो मेरे पास पैसे नहीं थे और न ही चंडीगढ़ की ज्यादा जानकारी थी। मुझे सुबह ड्यूटी ज्वाइन करनी थी, लेकिन रात को रुकने के लिए कोई जगह नहीं मिली। उस समय भी मुझे पिता के शब्द याद आए कि यदि डाक्टर बनना है तो पूरे किए बिना मत लौटना। मैं उसी सोच के साथ पहली बार पेड़ों के नीचे खुले में सो गया और उस समय मेरे पास रोटी खाने के भी पैसे नहीं थे। सुबह उठकर ड्यूटी भी ज्वाइन कर ली। उसके बाद भी मुझे तीन से चार दिन तक रहने और खाने का प्रबंध नहीं हुआ, लेकिन मैंने एक भी बार वापस जाने की नहीं सोची। मुझे डर था कि मैं वापस गया तो पापा मुझे घर नहीं घुसने देंगे। डाक्टर के पेशे के साथ पापा की नसीहत को रखता हूं हमेशा याद
प्रो. जगतराम ने बताया कि डाक्टरी की पढ़ाई जब कर रहे होते हैं तो हमें बताया जाता है कि मरीज और जरूरत के आगे दिन-रात नहीं देखा जाता। उस समय सिर्फ मरीज देखा जाता है। उसी के साथ मैं अपने पापा की बातों को भी याद रखता हूं कि हमेशा काम पूरा करके वापस आना है। आज मैं डायरेक्टर बन चुका हूं, लेकिन यदि आज भी मुझे कभी फील्ड में उतरना पड़े तो वह मेरे लिए कोई परेशानी या शर्म की बात नहीं है, बल्कि पिता की दी हुई जिम्मेदारी है कि तूने मरीज को इलाज के बिना मरने नहीं देना।