Agriculture Reforms Bill 2020: किसानों के हित में दूसरी हरित क्रांति की दरकार
Agriculture Reforms Bill 2020 इन कानूनों के जरिये सरकार कृषि क्षेत्र के आधारभूत ढांचे को मजबूत करना चाहती है जिससे छोटे किसान भी आधुनिक तकनीक व उपकरणों का इस्तेमाल कर उत्पादकता बढ़ा सकें। किसान उस फसल का उत्पादन करें जिसकी बाजार में मांग ज्यादा है।
नई दिल्ली, जेएनएन। पंजाब व हरियाणा में मंडियां प्रभावी हैं। इसका लाभ जितना किसानों को होता है, उससे कहीं ज्यादा कमीशन एजेंट (आढ़तियों) को। नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) के 70वें दौर के सर्वे में यह बात सामने आई थी कि केवल पंजाब में आढ़ती हर साल किसानों से 1,500 करोड़ रुपये की कमाई करते हैं। यह कमाई उन भूपतियों से होती है जो देश के छह फीसद बड़े किसानों में शामिल हैं। नए कानून से इन आढ़तियों को अपनी आमदनी खत्म होने का भय सता रहा है। लेकिन, यह दौर तो देश में दूसरी क्रांति लाने का है। दुनिया के कई देशों में किसान प्रति हेक्टयेर हमारे किसानों से दोगुना तक उत्पादन हासिल करते हैं। देश में प्रति हेक्टेयर उत्पादन बढ़ाना बेहद जरूरी है। सरकार ने कृषि सुधारों के तहत इस दिशा में कदम बढ़ा भी दिए हैं...
फायदा तभी जब उत्पादकता बढ़े: वर्ष 1950-51 में हमारे देश में 308 लाख हेक्टेयर भूमि में खेती होती थी और 206 लाख टन अनाज का उत्पादन होता था। तब प्रति हेक्टेयर हमारे देश की औसत उत्पादकता 668 किलोग्राम थी। फिर हरित क्रांति आई। खेती में विज्ञान व तकनीक का प्रवेश हुआ। उत्पादन, उत्पादकता और किसानों की आमदनी तीनों में वृद्धि हुई। वर्ष 2018-19 में करीब 438 लाख हेक्टेयर में खेती हुई और 1,164 लाख टन अनाज का उत्पादन हुआ। उत्पादकता बढ़कर 2,659 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गई। उत्पादकता के मामले में हमने छलांग तो लगाई, लेकिन यह दुनिया के औसत के साथसाथ कई देशों के मुकाबले अब भी काफी कम है। निश्चित तौर पर किसानों की आमदनी बढ़ानी है तो कृषि उत्पादकता को बढ़ाना ही होगा।
छोटे किसान को ज्यादा नुकसान: विशेषज्ञों का मानना है कि खेती-किसानी की पुरानी तकनीक और पहले के कानून का ज्यादा नुकसान छोटे किसानों को हुआ। देश के 80 फीसद से भी ज्यादा किसानों के पास दो हेक्टेयर से भी कम जमीन है। किसी भी कारोबार स्वरूप जब छोटा होता है तो मुनाफा कम होता है। यह खेती पर भी लूगा होता है। छोटे किसान बीज, खाद व तकनीक के मामले में इतने समृद्ध नहीं होते कि वे अधिकतम उत्पादन हासिल कर सकें। इसलिए, उन्हें खेती में ज्यादा नुकसान होता है।
एमएसपी से भी भला नहीं: न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी के जरिये किसानों के शोषण को तो रोका जा सकता है, लेकिन उनका भला नहीं किया जा सकता। कृषि मंत्रालय के कृषि सहकारिता एवं किसान कल्याण विभाग की तरफ से वर्ष 2019 में जारी रिपोर्ट पर गौर करें तो पाएंगे कि वर्ष 2016-17 में कृषि लागत का जिनता अनुमान किया गया, उससे कुछ ही ज्यादा एमएसपी घोषित हुई। उस साल धान के लिए 1,417 व गेहूं के लिए 1,525 रुपये प्रति क्विंटल एमएसपी की घोषणा की गई थी। इस प्रकार किसानों को प्रति हेक्टेयर लगभग 10 हजार रुपये का लाभ हुआ। यानी दो हेक्टेयर वाले किसान को महज 20 हजार रुपये का लाभ तब होगा जब वह अपना पूरा उत्पाद बेच दे। यह सिलसिला एमएसपी प्रणाली की शुरुआत से ही चल रहा है। इसलिए, किसान एमएसपी में वृद्धि की मांग लंबे समय से कर रहे हैं, लेकिन किसी भी सरकार के लिए शायद यह व्यावहारिक नहीं होगा।
ऐसे बढ़ेगा उत्पादन, होगा लाभ: गांव में एक कहावत है कि जिनता गुड़ डालेंगे खीर उतनी ही मीठी होगी। यह कहावत खेती-किसानी पर भी लागू होती है। अगर दुनिया के अन्य देशों के समान उत्पादन लेना है तो निश्चित तौर पर कृषि क्षेत्र में निवेश को भी बढ़ावा देना होगा। सवाल उठता है कि निवेश कौन करेगा? विशेषज्ञों का कहना है कि इसी सवाल का जवाब केंद्र सरकार ने कृषि कानूनों के जरिये तलाशा है।