आत्म स्वरूप को जानने वाला ही सच्चा पंडित: डा. राजेंद्र मुनि
जैन सभा के प्रवचन हाल में संत डा. राजेंदर मुनि ने प्रवचन किए।
संस, बठिडा: जैन सभा के प्रवचन हाल में संत डा. राजेंदर मुनि ने प्रवचन करते हुए कहा कि किसी भी कार्य में जब तक मन के भाव साथ में नहीं जुड़ते तब तक वो कार्य पूर्ण रूपेण सफल नहीं कहा जा सकता।
इस दौरान मुनि ने प्रशस्त शुभ भावों का जिक्र करते हुए उसके बारह भेदों का उल्लेख किया जिसमें प्रथम भावना का नाम है अनित्य भावना। संपूर्ण संसार में मुख्यत दो प्रकार के तत्व नजर आते हैं जिसे नित्य एवं अनित्य कहा जाता है। नित्य जो सदा शाशवत मौजूद रहता है जिसे आत्मा कहा जाता है। पर्याय की दृष्टि से आत्मा अदलती बदलती रहती है। नरक में गया तो नारकीय त्रियंच में गया तो तिरंचीय मनुष्य में मानवीय देव में देवकीय आत्मा बन जाती है। मुलत्या रूप एक ही आत्मा का, प्रभु महावीर ने इसका विवेचन करते हुए एक सूत्र दिया कि अपेक्षा की ²ष्टि से आत्मा जन्मता मरता भी है कितु अखंड बना रहता है। हमारे जीवन का सार है आत्मा, हमारी नींव है आत्मा, जीवन का आधार है आत्मा मगर आश्चर्य है आज के इस युग में दुनिया भर की हम जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं पर हमारी अपनी ही जानकारी से हम अनजान है।
उन्होंने कहा कि दूसरों के घरों के नाम पता जानते हो पर अपने घर के अतेपते का ज्ञान न हो। भगवान महावीर ने आत्मज्ञान को सर्वश्रेष्ठ ज्ञान घोषित करते हुए वास्तविक विद्वान पंडित ही वही होता है जिसे आत्मा का परिज्ञान हो। यह रूप रस गंध स्पर्श से पृथक है। इसे इस देह की आंख, कान, नाक, जीभ से नहीं जाना जाता है। श्रद्धा से इसे जाना जा सकता है। जैन आगम में राजा परदेसी का वर्णन आता है, जो आत्मा को जानने के बाद परम दयालु व अहिसक जीवन जीता है।
सभा में साहित्यकार सुरेंद्र मुनि द्वारा अरिहंत सिद्ध का स्वरूप समझाया गया जो हमारे लिए प्रतिपल प्रति क्षण वंदनीय पूज्यनीय है। जिनका स्मरण मात्र पापों से मुक्ति दिला देता है। महामंत्री उमेश जैन ने सूचनाएं प्रदान कर आभार व्यक्त किया।