लंबी हेक की मल्लिका स्व. गुरमीत बावा को पदम भूषण, जानें बेटी ने क्या कहा..
देश के साथ-साथ पंजाबी संस्कृति को संभालने वाले नामों का जब भी जिक्र होगा तो उनमें गुरमीत बावा का नाम भी जरूर होगा।
जासं, अमृतसर: देश के साथ-साथ पंजाबी संस्कृति को संभालने वाले नामों का जब भी जिक्र होगा तो उनमें गुरमीत बावा का नाम भी जरूर होगा। लंबी हेक की मल्लिका स्वर्गीय गुरमीत बावा को कला के क्षेत्र में पद्म भूषण देने की घोषणा से परिवार ही नहीं बल्कि उनके हर चाहने वालों में खुशी है। गुरमीत का 18 फरवरी 1944 को गुरदासपुर के गांव कोठे में जन्म हुआ था। पिछले साल 21 नवंबर को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया था।
अपनी सांस्कृतिक व विरासत को ताउम्र संभालने के लिए लोक गायिका गुरमीत बावा शुरू से ही जुटी रहीं। उन्होंने बताया था कि जब वह छोटी थीं तो वह किसी भी घर में होने वाले शादी समारोह से पहले लेडीज संगीत सुनने के लिए अपनी मां और दादी के साथ जरूर जाती थीं। साल 1968 में किरपाल बावा के साथ शादी होने के बाद भी वह अपनी सांस्कृति के साथ जुड़ी रहीं। लोक गायकी को सुनने के साथ-साथ गायन भी जारी रखा, क्योंकि किरपाल बावा खुद एक गीतकार थे और बतौर अध्यापिका सरकारी स्कूल में नौकरी करते हुए किरपाल बावा के साथ उन्होंने अपनी सांस्कृतिक गायकी को जारी रखा। मा खुद पद्म भूषण हासिल करती तो खुशी दोगुनी होती: ग्लोरी बावा
कला के क्षेत्र में लोक गायकी के जरिए पंजाबी मा बोली को समर्पित रहीं लंबी हेक की मल्लिका स्वर्गीय गुरमीत बावा को पद्म भूषण देने की घोषणा से परिवार ही नहीं बल्कि उनके हर चाहने वालों में खुशी है। ग्लोरी बावा ने कहा कि जितनी खुशी उन्हें अपनी मा गुरमीत बावा को पद्म भूषण मिलने पर है। हालांकि यदि उनकी मा आज जिंदा होती और वह खुद यह सम्मान हासिल करती तो उनके परिवार को ही नहीं बल्कि कला क्षेत्र से जुड़े सभी लोगों में खुशी दोगुनी होती। हालांकि इसके लिए उन्होंने और पति किरपाल बावा ने भी केंद्र सरकार का आभार जताया है। गुरमीत बावा का लोक गीत मिर्जा सुनने के लिए हर कोई बेताब होता था
गुरमीत बावा ने गांव-गांव जाकर बुजुर्ग महिलाओं से विवाह-शादियों में गाए जाने वाली घोड़ियां, सुहाग, सिठनियां व टप्पे आदि एकत्रित करके उसी धुन में पेश करके अपनी गायकी का लोहा मनवाने में सफल रही। पंजाब के 12,700 से भी अधिक गांवों में से कोई ऐसा गांव नहीं होगा, जहां गुरमीत बावा ने अपनी गायकी के जौहर न दिखाए हों। गुरमीत बावा धरातल लोक साज चिमटा, अलगोजे व ढोलक के साथ ही अंतिम समय तक अपना कार्यक्रम पेश करती रही हैं। भले ही एक लड़की के डोली विदा करने के समय या फिर लड़के का विवाह समारोह हो, जिसमें गुरमीत बावा से कुहारो डोली न चाइओ लोक गीत सुनने की श्रोता फरमाइश नहीं करते थे। जब भी वे गुरमीत बावा स्टेज पर खड़ी होकर लोक गीत मिर्जा सुनातीं, तो वहां से गुजरने वाला हर कोई उन्हें सुनने के लिए बेताब हो जाता था। अकसर ही लोग कहते हैं कि लोक कथा में साहिबा का मिर्जा नहीं बल्कि मिर्जा तो गुरमीत बावा का होना चाहिए था। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री से मिला था सम्मान
किरपाल बावा ने बताया कि साल 1965 में भारत-पाकिस्तान के युद्ध के बाद सेना में मनोरंजन के लिए कोई कलाकार नहीं था। इसके बाद ही भारत सरकार ने देश भर से विभिन्न कलाकारों का चयन किया था। उनमें गुरमीत बावा का नाम भी शामिल था। गुरमीत बावा को देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी, तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री बेअंत सिंह और प्रकाश सिंह बादल समेत कई सामाजिक व राजनीतिक शख्सियतों से सम्मान मिल चुका है। पंजाब भाषा विभाग द्वारा शिरोमणि गायिका पुरस्कार, राष्ट्रीय देवी अहिल्या पुरस्कार और पंजाब सरकार द्वारा राज्य पुरस्कार भी उन्हें हासिल हुआ था। साल 1991 में पंजाब सरकार ने केंद्रीय अवार्ड से उन्हें नवाजा था जबकि पंजाब नाटक अकादमी ने भी उन्हें संगीत पुरस्कार दिया था।