लोकसभा चुनाव 2019: सियासी तारामंडल में गुम होती दो बड़े सितारों की चमक
राजनीति के दो बड़े सितारे शत्रुघ्न सिन्हा और कीर्ति आजाद की चमक सियासत के आसमान में फीकी पड़ती दिख रही है। भाजपा से अलग होकर दोनों ने कांग्रेस का हाथ थामा है।
पटना [मनोज झा]। सितारे आसमान के हों या जमीन के, वे अपनी चमक बेशक खो सकते हैं, लेकिन धूमकेतु तो कतई नहीं बनते। जहां तक सियासत में सितारों की बात है तो ऐसे कई उदाहरण हैं, जब उन्होंने राजनीति के डगमग रास्तों और अंधेरी सुरंग को रोशनी से जगमगाया है। कुछ ऐसे भी हुए, जो उगे, चमके और अस्त हो गए। इनमें से कुछ अति महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़े, कुछ बड़बोलेपन के शिकार हुए, कुछ स्टारडम और सियासत का फर्क नहीं समझ पाए तो कुछ खुद को सियासत से ऊपर मान बैठे।
धुंधली पड़ती दिखाई दे रही चमक
बिहार के भी ऐसे दो सितारों की बात करें तो कभी बॉलीवुड और क्रिकेट की दुनिया में स्टार का रुतबा रखने वाले शत्रुघ्न सिन्हा और कीर्ति आजाद की रोशनी सियासत के आसमान में धुंधली पड़ती दिखाई दे रही है। एक सवाल यह भी कि जिन गिले-शिकवों को लेकर दोनों सितारे भाजपा से अलग हुए, क्या नए ठौर-ठिकाने में वे दूर हो गए? क्या वहां उनकी आवाज नये परिवार का मुखिया या नेतृत्व एक पैर पर खड़े होकर सुन रहा है? क्या वहां उन्हें पूरा सम्मान, अधिकार और लायक ओहदा मिल गया है?
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राहुल कर गैर मौजूदगी में शॉटगन ने थामा कांग्रेस का हाथ
मौजूदा आम चुनाव में शत्रुघ्न सिन्हा बेशक पटना की प्रतिष्ठित सीट से कांग्रेस के प्रत्याशी घोषित किए गए हैं, लेकिन यह सवाल तो सबकी जुबान पर है ही कि उनकी चमक और धमक आखिर कहां खो गई है। शनिवार को दिल्ली में शत्रुघ्न के कांग्रेस में शामिल होने के समय का नजारा कम से कम शॉटगन के स्तर का तो कतई नहीं था।
कहां तो उम्मीद थी कि कांग्रेस में शत्रुघ्न के शामिल होने के मौके पर सोनिया, राहुल, प्रियंका आदि के अलावा कुछ अन्य कद्दावर नेताओं की मौजूदगी रहेगी। लेकिन हाल यह था कि कार्यक्रम में सबसे बड़ा नाम पार्टी प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला थे। सुरजेवाला का कांग्रेस में अपना कद और रुतबा हो सकता है। वे राहुल के करीबी भी माने जाते हैं, लेकिन परिवार तो परिवार है। कांग्रेसी कुनबे में नेहरू-गांधी परिवार की मौजूदगी की अपनी एक अलग अहमियत है, जो शत्रुघ्न को फिलवक्त तो नहीं ही मिली।
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मंत्री पद न मिलने से नाराज थे शॉटगन
शत्रुघ्न ने भाजपा छोडऩे से बहुत पहले भाजपा नेतृत्व पर कभी परोक्ष तो कभी सीधा निशाना साधते हुए बड़ी-बड़ी बातें की थीं, बड़े-बड़े डॉयलाग बोले थे। उनकी मर्जी में जब जो भी आया, वह बोले। फिर भी पार्टी चुप रही। कई लोगों का मानना था कि शॉटगन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में मंत्री पद न मिलने से नाराज थे।
तब उनकी कुर्सी पर जा बैठा था डुप्लीकेट
हालांकि, उन्होंने खुद कभी इस बात पर विचार करने की जहमत नहीं उठाई कि आखिर पार्टी के नये नेतृत्व ने उनको हाशिये पर रखा क्यों? कभी अपने अंतर्मन में नहीं झांका कि जब अटल सरकार में उन्हें मंत्री पद से नवाजा गया था तो उनकी उपलब्धि क्या रही? संप्रग के 10 साल के शासनकाल में उन्होंने पार्टी को वक्त कितना दिया? याद करें कि अटल सरकार में शत्रुघ्न के स्वास्थ्य मंत्री रहते हुए उनके डुप्लीकेट के मंत्रालय में उनकी कुर्सी पर जा बैठने का किस्सा बड़ा चर्चित हुआ था। माना गया था कि शत्रु का अपने मंत्रालय में चूंकि बेहद कम आना-जाना है, इसलिए स्टाफ डुप्लीकेट को पहचान नहीं पाया।
भाजपा को खुद ही कह दिया अलविदा
बहरहाल, उस दौर के बाद भी भाजपा ने उन्हें पटना साहिब जैसी प्रतिष्ठित और सुरक्षित मानी जाने वाली सीट से बार-बार मैदान में उतारा, लेकिन शॉटगन थे कि थमे नहीं। बोलते रहे, कोसते रहे और आखिरकार भाजपा को खुद अलविदा कह दिया।
अब ठंडे माहौल में कांग्रेस में शामिल
बहरहाल, दो बार टलने के बाद आखिरकार जिस तरह ठंडे माहौल में उन्हें कांग्रेस में शामिल किया गया है, उससे कुछ सवाल तो उठ ही रहे हैं। यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा कि नई जगह पर वह कितना बोल पाएंगे और कितने सुने जाएंगे?
त्रिशंकु जैसी हो गई कीर्ति आजाद की हालत
उधर, कीर्ति आजाद की स्थिति तो फिलहाल त्रिशंकु जैसी है। शत्रु तो कम से कम कांग्रेस से टिकट पाने में सफल भी रहे, लेकिन कीर्ति का अभी कुछ तय नहीं हो पाया है। कभी दरभंगा तो कभी बेतिया और अब झारखंड में धनबाद। बिहार में महागठबंधन के गुणा-गणित में लालू प्रसाद से मात खाने के बाद कीर्ति की दरभंगा सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लडऩे की आस टूट ही गई। फिर बेतिया की उम्मीद जगी तो वहां लालू ने रालोसपा के मोहरे से शह देकर कांग्रेस को मात दे दी।
बंद हो चुके सभी रास्ते
इस प्रकार बिहार में कीर्ति के रास्ते लगभग बंद हो चुके हैं। नई चर्चा धनबाद सीट को लेकर चल रही है, लेकिन वहां अभी पूरी तरह अनिश्चय का वातावरण बना हुआ है। इस खींचतान से खीझकर कीर्ति ने एक दिन कह भी दिया था कि दरभंगा, बेतिया से नहीं तो क्या वह विशाखापत्तनम से चुनाव लड़ेंगे। विशाखापत्तनम सीट से वह बेशक चुनाव न लड़ें, लेकिन बिहार में तो फिलहाल जगह बची नहीं है। और यह सिर्फ चुनावी अरमान टूटने की बात नहीं है। जिस तरह ताबड़तोड़ आरोप और पार्टी नेतृत्व की लानत-मलानत करते हुए उन्होंने भाजपा छोड़ी थी, उससे उनकी निष्ठा तो घेरे में है ही।
आज धूमकेतु जैसे दिखने लगे ये बड़े सितारे
ध्यान रहे कि राजनीति में निष्ठा और अनुशासन का अपना महत्व होता है। जब आप इन्हें एक जगह तोड़ते हैं तो फिर हर जगह आप संदेह के दायरे में रहते हैं।फिर पुरानी जगह को छोड़कर नये ठौर पर पैर ज़माना हमेशा मुश्किल भी होता है। यह बात शत्रु और कीर्ति आज भलीभांति समझ रहे होंगे। बहरहाल, कारण चाहे जो भी हो, कल के ये दोनों सितारे सियासी तारामंडल में आज धूमकेतु जैसे दिखने लगे हैं।
(लेखक दैनिक जागरण के बिहार के स्थानीय संपादक हैं)