एक अफसर की मनमानी ने छीना था 17 जातियों का हक, फिर उम्मीदों के मुहाने पर यह मांग
अति पिछड़ों का जो हक लंबे समय से हुकूमत का दरवाजा पीट रहा है वह तो उनसे एक अफसर की मनमानी ने छीना था। 1957 के पहले तक तो इन सभी जातियों को अनुसूचित प्रमाण पत्र मिलते थे।
लखनऊ, जेएनएन। पिछड़ों की हिमायत में आगे रहने की होड़ ने 17 जातियों के मुद्दे को सियासी ताप दे रखी है। इन अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में शामिल करने के लिए सपा और बसपा भी कदम उठा चुकी थी, लेकिन सफलता न मिली। अब भाजपा ने अपने एजेंडे के झोले से यह कार्ड निकाला है। अति पिछड़ों का जो हक लंबे समय से हुकूमत का दरवाजा पीट रहा है, वह तो उनसे एक अफसर की मनमानी ने छीना था। 1957 के पहले तक तो इन सभी जातियों को अनुसूचित प्रमाण पत्र मिलते थे। बहरहाल, 2003 से आंदोलन की शक्ल ले चुकी यह मांग फिर उम्मीदों के मुहाने पर है।
प्रदेश में 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति की श्रेणी में शामिल करने का फैसला योगी सरकार ने लिया है। मामला न्यायालय में चुनौती झेल रहा है और यह केंद्र सरकार तक भी जाना है, मगर इतिहास पर नजर डालें तो पता चलेगा कि यह फैसला नया नहीं, बल्कि स्थिति 'यू-टर्न' वाली है।
इस मुद्दे पर 2003 से आंदोलनरत दलित शोषित वेलफेयर सोसाइटी के अध्यक्ष संतराम प्रजापति के मुताबिक, साइमन कमीशन की सिफारिश पर 1931 में अछूत जातियों का सर्वे (कम्प्लीट सर्वे ऑफ ट्राइबल लाइफ एंड सिस्टम) हुआ था। तत्कालीन रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया जेएच हट्टन की रिपोर्ट में 68 जातियों को अछूत माना गया। 1935 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के तहत इन्हें विशेष दर्जा दिया गया। इसके बाद भारत सरकार के तत्कालीन सचिव ने सभी राज्यों से उन जातियों की रिपोर्ट मांगी, जो मुख्यधारा से अलग हों। इनमें उप्र की 17 जातियां पाई गईं। इनमें कुम्हार और प्रजापति को शिल्पकार और बाकी 15 को मझवार उपजाति में रखा गया। इन सभी को अनुसूचित जाति के प्रमाण पत्र दिए जाते थे।
संतराम ने बताया कि तब इन चिह्नित जातियों की आबादी 23 फीसद थी। 1957 में समाज कल्याण विभाग के तत्कालीन सचिव ने अपने स्तर से सर्कुलर जारी कर दिया कि यह सूची अब प्रभाव में नहीं है। उन्होंने अपने तर्क दिए, जिसके आधार पर अनुसूचित जाति के प्रमाण पत्र मिलना लगभग बंद हो गया। फिर 1996 में पूरी तरह रोक लग गई।
फिर यूं चला आंदोलन का सफर
- 2007 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने 14 जिलों का सर्वे कराकर केंद्र सरकार को भेजा। सरकार ने पूरे प्रदेश की रिपोर्ट मांगी। तब तक कार्यकाल समाप्त हो गया।
- 11 अप्रैल 2008 को तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने केंद्र सरकार से प्रस्ताव वापस मांगा। कारण पूछने के बाद कोई कदम नहीं उठाया गया।
- फरवरी 2013 में अखिलेश सरकार ने केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजा, लेकिन 14 मार्च 2014 को रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया ने इसे खारिज कर दिया।
- इसके बाद प्रस्ताव को हाई कोर्ट में भी चुनौती दी गई, जो अभी विचाराधीन है।
ये हैं 17 जातियां
कहार, कश्यप, केवट, मल्लाह, निषाद, कुम्हार, प्रजापति, धीवर, बिन्द, भर, राजभर, धीमर, बाथम, तुरहा, गोडिय़ा, माझी तथा मछुआ।
योगी सरकार को करना होगा कोर्ट के फैसले का इंतजार
प्रदेश की 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने के योगी सरकार के निर्णय ने उम्मीदें भले ही दिखाई हों, लेकिन अभी राह में कानूनी अड़चनें बरकरार हैं। सरकार इन जातियों के लिए अनुसूचित जाति के प्रमाणपत्र (कोर्ट के आदेश के अधीन) तो जारी कर सकती है, लेकिन इस फैसले पर अमल के लिए कोई भी प्रक्रिया तभी शुरू हो सकेगी, जब उच्च न्यायालय का निर्णय पक्ष में आ जाए। 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले प्रदेश की भाजपा सरकार ने अपने एक दांव से विपक्षियों को बेचैन कर दिया है। सरकार ने 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का निर्णय लेकर बड़े वोट बैंक पर मजबूत उम्मीदों का हाथ रख दिया है। इस मसले को भुनाने का पहले असफल प्रयास कर चुकी सपा और बसपा के पास फिलहाल इसकी काट नहीं है।
इस कदम का चुनाव में भाजपा को लाभ बेशक मिल जाए, लेकिन इन जातियों को लाभ मिलने की राह अभी इतनी आसान नहीं है। समाज कल्याण विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक अभी यह मामला उच्च न्यायालय में विचाराधीन है। कोर्ट ने मामले से जुड़े शख्स और संस्थाओं को पार्टी बनाने के आदेश दिए हैं। साथ ही जाति प्रमाण पत्र जारी करने के लिए कहा है, जो न्यायालय के आदेश के अधीन होंगे। अभी विभाग का अधिकार यहीं तक सीमित है। जब तक न्यायालय में मामला निस्तारित नहीं हो जाता, तब तक इसमें कोई प्रक्रिया शुरू नहीं की जा सकती। प्रदेश सरकार केंद्र सरकार को भी प्रस्ताव तभी भेज पाएगी, जब कोर्ट का फैसला पक्ष में आ जाए।