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हिन्दी साहित्य में जम्मू-कश्मीर और जम्मू-कश्मीर में हिंदी भाषा विषय पर केंद्रीय विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय संगोष्ठी

प्रथम सत्र की अध्यक्षता कर रहे जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय के कार्यवाहक कुलपति प्रो.देवानंद पादा ने कहा कि जम्मू-कश्मीर हमेशा से ही भारत का शीर्ष रहा है। उन्होंने हिंदी भाषा के विकास के साथ-साथ शारदा लिपि के विकास की भी बात कही है।

By Lokesh Chandra MishraEdited By: Published: Fri, 25 Mar 2022 03:07 PM (IST)Updated: Fri, 25 Mar 2022 06:39 PM (IST)
हिन्दी साहित्य में जम्मू-कश्मीर और जम्मू-कश्मीर में हिंदी भाषा विषय पर केंद्रीय विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय संगोष्ठी
प्रो. कृपाशंकर चौबे ने कहा कि हिंदी साहित्य में अन्य विमर्शों की तरह निर्वासन भी एक विमर्श होना चाहिए।

जम्मू, जेएनएन : जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषा विभाग और केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के संयुक्त तत्वावधान में 24-25 मार्च को दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह सभागार में किया गया, जिसका विषय ‘हिन्दी साहित्य में जम्मू-कश्मीर और जम्मू-कश्मीर में हिंदी भाषा’ है। यह संगोष्ठी चार सत्रों में विभाजित है। वीरवार को प्रथम सत्र की अध्यक्षता कर रहे जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय के कार्यवाहक कुलपति प्रो.देवानंद पादा ने कहा कि जम्मू-कश्मीर हमेशा से ही भारत का शीर्ष रहा है। उन्होंने हिंदी भाषा के विकास के साथ-साथ शारदा लिपि के विकास की भी बात कही है।

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भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के डीन प्रो. गोविन्द सिंह ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में हिंदी को बढ़ावा देने के लिए यहाँ की स्थानीय भाषाओं को साथ लेकर चलने की आवश्यकता है। वक्ता के रूप में जम्मू-कश्मीर के विद्वान और अधिवक्ता श्री दिलीप कुमार दुबे ने कहा कि हिंदी जनभाषा की आवश्यकता बने। मुख्य अतिथि पद्मश्री आचार्य विश्वमूर्ति शास्त्री जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि अगर हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी है तो उसके विकास के लिए प्रत्येक प्रान्त में हिंदी अकादमी का होना आवश्यक है। विशिष्ट अतिथि लद्दाख और जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र के निर्देशक श्री आशुतोष भटनागर ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हिंदी को जम्मू-कश्मीर के साथ-साथ पूरे भारत में कामकाजी भाषा के रूप में स्वीकार्यता मिलनी चाहिए।

संगोष्ठी-संयोजक व हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषा विभाग के अध्यक्ष प्रो. रसाल सिंह ने अतिथियों का स्वागत एवं विषय-प्रस्तावना रखने हुए कहा कि प्राचीन काल से ही जम्मू-कश्मीर साहित्य-साधना और विद्या का केंद्र रहा है जिसमें संस्कृत साहित्य एवं हिंदी साहित्य में कश्मीर की देन अपूर्व रही है। वर्तमान समय में यहाँ डोगरी-कश्मीरी-हिंदी भाषाओं में साहित्य सृजन किया जा रहा है। जिसके फलस्वरूप इस प्रदेश की भाषा, साहित्य, कला एवं संस्कृति का निरंतर विकास हो रहा है। हिन्दी भाषा एवं साहित्य की दृष्टि से इस द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी साहित्य एवं भाषा में रुचि रखने वाले अध्येताओं, विद्यार्थियों एवं साहित्य-प्रेमियों के लिए लाभप्रद और उपयोगी सिद्ध होगा। उपरोक्त सत्र का मंच संचालन डॉ. वंदना शर्मा और धन्यवाद ज्ञापन डॉ. शशांक शुक्ला ने किया।

द्वितीय सत्र का विषय ‘हिंदी साहित्य को जम्मू-कश्मीर की देन’ है, जिसकी अध्यक्षता प्रख्यात डोगरी एवं हिंदी साहित्यकार पद्मश्री डॉ. शिव निर्मोही जी अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि जम्मू-कश्मीर में 16वीं शताब्दी से ही हिंदी साहित्य प्राप्त होने लगता है। इन्होंने जम्मू-कश्मीर के लेखकों की रचनाओं का विश्वविद्यालय में संग्रहालय बनाने का सुझाव दिया। मुख्य वक्ता प्रख्यात हिंदी साहित्यकार चंद्रकांता जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि” हमें खुशी है कि कश्मीर फाइल्स जैसी फ़िल्म बनी क्योंकि कि विस्थापन का दर्द तो लोगों के सामने आना ही चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि विस्थापन पर लिखने के लिए विस्थापित होना कोई जरूरी नहीं है।

हिंदी साहित्य में अन्य विमर्शों की तरह निर्वासन भी एक विमर्श होना चाहिए : कश्मीरी विस्थापितों विशिष्ट वक्ता प्रो. कृपाशंकर चौबे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय वर्धा ने अपने वक्तव्य में कहा कि हिंदी साहित्य में अन्य विमर्शों की तरह निर्वासन भी एक विमर्श होना चाहिए। बतौर अतिथि वक्ता प्रो. निरंजन कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली द्वारा अपने वक्तव्यों में कहा कि किस प्रकार अनुच्छेद 370 हटने से जम्मू-कश्मीर के अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों को उनका अधिकार मिला है? उपरोक्त सत्र का संचालन डॉ. विनय कुमार शुक्ल एवं धन्यवाद ज्ञापन डा. अरविन्द कुमार ने किया। इस सत्र में विभिन्न शोधार्थियों जैसे आरती देवी, कृष्ण मोहन आ. आशा, पूजा शर्मा, सौम्य वर्मा, कृष्णा अनुराग, प्रियंका सरोज, सोनू भारती, प्रभाकर कुमार इत्यादि द्वारा शोध-पत्रों का वाचन किया गया।


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