Janta Curfew : प्रासंगिक - एकता से एकजुटता : एक राष्ट्र, एक लय, एक ताल ...जनता जिंदाबाद
Janta Curfew...यह वह क्षण था जब रविवार शाम छतों में टंगे और खिड़कियों से झांकते हम भारतीयों ने वह कर दिखाया जो किसी भी व्यक्ति समूह या देश को अमरत्व की ओर ले जाता है।
[आशुतोष शुक्ल]। बचपन से सुनते आए कि कभी लालबहादुर शास्त्री जैसे प्रधानमंत्री हुए जिन्होंने एक समय उपवास रखने को कहा तो पूरे देश ने व्रत रख लिया था। हमने शास्त्री जी को नहीं देखा लेकिन, हमने मोदी को देख लिया और विश्वास कीजिए रविवार का दिन किंवदंतियों, किस्सों, इतिहास, नेतृत्व और सामाजिक मनोविज्ञान के अध्ययन की खुराक बन चुका है। जैसे हम रुपये में सवा सेर घी के अफसाने सुनते हैं, वैसे ही भावी पीढिय़ां सुनेंगी कि कैसे एक दिन यह देश जन निनाद से गूंज उठा था और कैसे एक प्रधानमंत्री के आह्वान पर सारा देश उनके पीछे चल पड़ा था।
पाठकगण! गर्व कीजिए कि आपको सद्भाव और सहिष्णुता के वैश्विक प्रतीक भारत में जन्म मिला। कलम जब रोमांचित हो उठे, यह वह क्षण था, जब रविवार शाम छतों में टंगे, दरवाजों में धंसे और खिड़कियों से झांकते हम भारतीयों ने वह कर दिखाया जो किसी भी व्यक्ति, समूह या देश को अमरत्व की ओर ले जाता है। लोग प्रतीक्षा कर रहे थे पांच बजने की।
उनका समय नहीं कट रहा था और शाम को जिसे जो मिला बजाने दौड़ा। ढोलक, नगाड़े, घंटे, बाजे बजे और थाली, परात, भगोने, घंटियां और चम्मच-कटोरी भी बजे। दिवाली के बचे पटाखे भी दनादन बजे और खाली कनस्तर भी जमकर बजे। भाभी ने बजाया, चाची ने बजाया, अम्मां ने ताल दी और पड़ोसी ने समां बांधा। नेता ने बजाया, अभिनेता ने बजाया। कलाकार, व्यापारी, सैनिक, कर्मचारी, अधिकारी ने भी बजाया। जाति के बंधन टूटे, धर्म की दीवारें भरभरा गईं, वर्गीय अहंकार दुम दबाकर भागा और भारत बोला जय-जय। जय देश की, जय समाज की, जय भाव की, जय संकल्प की और जय-जय-जय डाक्टरों और उनके साथियों की।
यह आभार अनुष्ठान था राष्ट्ररक्षा का। यह यज्ञ था सेवाव्रतियों के सम्मान का जिसमें आहुति पड़ी एकांतवास और अपने को घरों में ही कैद रखने की सामूहिक सौगंध की।
बच्चों ने जो घटते देखा, नाती-पोतों को सुनाने के लिए मन की गठरी में बांध लिया। कथा कहानियों के इस देश में हर किसी के पास एक कहानी हो गई सुनाने के लिए। जैसे मां से सुंदर कोई शब्द नहीं और बेटियों सी सुरीली कोई घंटी नहीं, ठीक वैसे ही कर्णप्रिय था यह शोर। शोर जो भावुक कर रहा था, शोर जो जोश दे रहा था, शोर जो युद्ध के लिए सन्नद्ध कर रहा था, ललकार रहा था, प्रेरित और प्रभावित कर रहा था। यह राष्ट्रव्यापी हांका था जिसने चीनी कोरोना को पीटने के लिए जन-जन की मुट्ठियां बंधवा दीं। घरों और धर्मस्थलों से निकला थालियों का यह स्वर ब्रह्मांड तक गया और फिर इसने सारे देश को एक संकल्प सूत्र में बांध दिया। लोग डट गए, जुट गए कोरोना का बाजा बजाने को।
...और यह सब कैसे हुआ। राजनीति की ओवरडोज जब मोबाइल फोन से होकर दिमाग में जा घुसी है और अपनी विश्वसनीयता खो रही है...सोशल मीडिया जब कड़वाहट परोसने का टेंडर उठा चुका है, तब ऐसे में एक दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आह्वान होता है। टीवी पर उनका भाषण समाप्त होते ही चकल्लस शौकीनों में पक्ष-विपक्ष की चर्चाएं होने लगती हैं। मोदी विरोध में सत्य-असत्य और अच्छे बुरे की पहचान खो चुके विघ्नसंतोषी इस घातक बीमारी से लड़ाई की मानवीय पुकार में भी बुराई ढूंढ़ने बैठ जाते हैं। हालांकि देश उनकी नहीं सुनता। लोग चुपचाप तय कर लेते हैं कि उन्हें रविवार को करना क्या है।
तीन दिन जनता कर्फ्यू बहस में रहता है, जबकि उधर आम भारतीय रविवार के लिए अपनी मानसिक डायरी भर रहा होता है। रविवार आया तो सड़कों पर ऐसा सन्नाटा, जैसा दंगों के समय भी देखा सुना न गया। जनता ने मोदी के आह्वान की ईमानदारी देखी और उनके साथ हो ली। जनता ने प्रधानमंत्री के भाषण में एक अभिभावक की पीड़ा और मरहम देखा और उनके साथ हो ली।
...इस संकल्प के साथ कि कोरोना को हराना है...!
[संपादक, उत्तर प्रदेश]