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भारतीय राजनीति में आधी आबादी का प्रतिनिधित्‍व करने वालों के लिए ये है बदलाव की बयार

राजनीति में महिलाओं की भागीदारी पहले के मुकाबले अधिक जरूर हुई है लेकिन अब भी यह संख्या बहुत ही कम है। ऐसे में इस संख्या को व्यापक स्तर पर बढ़ाने की जरूरत है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Tue, 19 Mar 2019 02:00 PM (IST)Updated: Tue, 19 Mar 2019 02:00 PM (IST)
भारतीय राजनीति में आधी आबादी का प्रतिनिधित्‍व करने वालों के लिए ये है बदलाव की बयार
भारतीय राजनीति में आधी आबादी का प्रतिनिधित्‍व करने वालों के लिए ये है बदलाव की बयार

डॉ. मोनिका शर्मा। ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी बीजू जनता दल में 33 फीसद टिकट महिलाओं को देने का निर्णय लिया है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस से करीब 40 फीसद महिलाओं को लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी बनाने की घोषणा की है। आम चुनावों की गहमागहमी के बीच लिया गया यह फैसला ऐतिहासिक कहा जा सकता है, क्योंकि दूरगामी परिणाम और सकारात्मक संदेश वाला यह निर्णय देश की आधी आबादी के लिए एक बड़े बदलाव का सूचक है। यह पहली बार हो रहा है कि किसी पार्टी ने 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की हों। यही वजह है कि राजनीतिक दावपेचों से परे इस निर्णय को महिलाओं को आगे लाने वाले फैसले के रूप में देखा जा रहा है।

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गौरतलब है कि वर्ष 2014 के आम चुनावों में महज 66 महिलाएं चुनाव जीतकर संसद पहुंची थीं। ऐसे में यह बड़ा सवाल है कि आजादी की आधी सदी से ज्यादा का समय बीत जाने के बावजूद महिलाएं इतनी कम संख्या में संसद पहुंचीं। विचारणीय है कि वर्ष 1951 में 22 महिला सांसदों के साथ संसद में आधी आबादी की भागीदारी 4.5 फीसद थी। हालांकि साल-दर-साल इस संख्या में बढ़ोतरी हुई है, पर यह गति बेहद धीमी है। वर्ष 2009 में 10.87 प्रतिशत भागीदारी के साथ महिला सांसदों की संख्या 59 और 2014 में 66 महिला सांसदों की संख्या के बूते 12.15 फीसद रही है। कहा जा सकता है कि राजनीति में महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के मामले में हमारे देश में लगभग सभी पार्टियों ने कोताही की है। ऐसे में उम्मीद है कि आने वाले समय में दूसरी राजनीतिक पार्टियां भी महिला उम्मीदवारों को टिकट देकर राजनीति में आधी आबादी की हिस्सेदारी बढ़ाने वाले कदम उठाने के बारे में विचार करेंगीं। यह जरूरी भी है, क्योंकि महिलाओं की भागीदारी बढ़ने का सीधा सा अर्थ है कि उनसे जुड़े मुद्दों को भी मुखर आवाज मिलना।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने की यह धीमी गति यकीनन विचारणीय है। हमारे देश में महिलाएं राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, लोकसभा में विपक्ष की नेता और लोकसभा अध्यक्ष के अलावा कई महत्वपूर्ण राजनीतिक पदों पर आसीन रही हैं, लेकिन राजनीति में महिलाओं की भागीदारी में अधिक सुधार नहीं हुआ। नतीजन इतने सालों बाद भी देश की महिलाओं की सुरक्षा, सम्मान और श्रम से जुड़े मुद्दों को आवाज नहीं मिली है। हमारे यहां शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, सुरक्षा और मानवीय अधिकारों के स्तर पर भी महिलाओं के साथ भेदभाव होता आ रहा है।

यही वजह है कि महिलाओं के हालात देश के राजनीतिक परिदृश्य में भी कुछ खास अच्छे नहीं हैं। देश की आधी आबादी अन्य क्षेत्रों के समान ही राजनीति में भी हाशिये पर ही है। जबकि सच तो यह है कि आधी आबादी से जुड़ी सभी समस्याओं को आवाज देने और इनका प्रभावी हल ढूंढने के लिए राजनीति में महिलाओं की सशक्त और निर्णायक भागीदारी जरूरी है, क्योंकि भारत में आधी आबादी से जुड़े अनगिनत मुद्दे आज भी संवेदनशील सोच लिए मुखर आवाज की तलाश में हैं। यहां तक कि महिला आरक्षण जैसा अहम बिल भी लंबे समय से लंबित है। इसे लेकर राजनीतिक पार्टियां आज तक सहमति नहीं बना पाई हैं।

हमारे देश की राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व हमेशा से ही कम रहा है। इतना ही नहीं राजनीतिक जोड़-तोड़ के इस दौर में महिलाओं की जो हिस्सेदारी है, वो भी कितनी व्यापक और स्थायी है? यह भी एक बड़ा प्रश्न है। जब देश की नीतियों, योजनाओं से जुड़े महत्वपूर्ण फैसले करने की बात आती है तो महिलाओं की भूमिका न के बराबर रहती है। ऐसे में महिलाओं के बुनियादी अधिकारों और आमजीवन से जुड़ी समस्याओं को राष्ट्रीय पटल पर उठाने और उन्हें समानता का अधिकार दिलाने की लड़ाई लड़ने के लिए कोई महिला प्रतिनिधित्व नजर नहीं आता। अंतरराष्ट्रीय संस्था अंतर संसदीय यूनियन के 2011 के आंकड़ों के अनुसार राजनीति में महिलाओं को हिस्सेदारी देने के मामले में भारत विश्व में 98वें नंबर पर है। जबकि दुनिया के कई पिछड़े एवं निर्धन देशों की संसद तक में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 30 फीसद तक ही है। इस संस्था के अनुसार भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश में महिलाओं की राजनीति में भागीदारी इतनी कम है कि उनसे जुड़े मुद्दों को मुखर आवाज नहीं मिल पा रही है।

दरअसल महिलाओं की ऐसी भागीदारी का बढ़ना सामाजिक बदलाव का द्योतक भी है और समाज में बदलाव लाने का जरिया भी। वर्ष 1917 में ही राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को लेकर मांग उठी थी जिसके बाद वर्ष 1930 में पहली बार महिलाओं को मताधिकार मिला। देखा जाय तो महिला मतदाताओं की बढ़ती जागरूकता का ही नतीजा है कि उनका सियासी प्रतिनिधित्व बढ़ाने को लेकर सोचा जा रहा है। मताधिकार को लेकर आ रही मुखरता और मुद्दों के प्रति सजगता आधी आबादी को जीत या हार तय करने वाले वोटर्स बना रही है। महिला वोटर अपने मत के मायने समझने लगी हैं। हालांकि यह भी एक अहम सवाल है कि राजनीतिक चेतना और जनस्वीकार्यता के बावजूद आज भी आधी आबादी को सत्ता में अपना पूर्ण प्रतिनिधित्व क्यों नहीं मिल पाया है?

यह एक कटु सच है कि भारतीय राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी को लेकर बदलाव आ तो रहा है, पर अब भी हार-जीत का गणित ऐसे फैसलों पर हावी है। हां, एक सकारात्मक पक्ष यह है कि अब जनता की भी यही राय बदल रही है। ऐसे में अपने हित साधने के लिए ही सही पर सभी राजनीतिक पार्टियों को महिलाओं को आगे लाना ही होगा। हालांकि ओडिशा और पश्चिम बंगाल में हुई यह पहल सकारात्मक ही कही जाएगी, पर जरूरत इस बात की भी है कि असल मायनों में महिलाओं की सियासी भागीदारी बढ़े। उनके विचारों और निर्णयों को अहमियत दी जाय। आधी आबादी को सत्ता के गलियारों में वो उचित और निर्णयात्मक भूमिका मिले जिसकी वे हकदार हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


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