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विधि आयोग: समान नागरिक संहिता अभी न तो आवश्यक है, न ही वांछनीय

भारतीय संविधान में इस संबंध में व्यापक प्रावधान भी किए गए हैं, लेकिन तीन तलाक और लैंगिक न्याय से जुड़े मसलों के संदर्भ में व्यक्तिगत कानूनों पर बहस चिंता का विषय बन गई है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 17 Sep 2018 11:44 AM (IST)Updated: Mon, 17 Sep 2018 11:44 AM (IST)
विधि आयोग: समान नागरिक संहिता अभी न तो आवश्यक है, न ही वांछनीय
विधि आयोग: समान नागरिक संहिता अभी न तो आवश्यक है, न ही वांछनीय

सीबीपी श्रीवास्तव। भारत जैसे लोकतांत्रिक, संवैधानिक और प्रबुद्ध संविधान में राज्य को नागरिकों के साथ समानता का व्यवहार करने के लिए उत्तरदायी बनाया गया है, भले ही प्रजातीय या जातिगत या धार्मिक या लैंगिक विविधता विद्यमान हो। इसका उद्देश्य यह है कि सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हैं, लेकिन वैयक्तिक स्तर पर ऐसी समानता होनी चाहिए या नहीं, यह बहस का विषय रहा है। यह उचित है कि एक विविध सामाजिक- सांस्कृतिक व्यवस्था की स्थापना के लिए निश्चित रूप से विभिन्न समूहों और समुदायों के लिए व्यक्तिगत कानूनों की आवश्यकता होती है ताकि पार-सांस्कृतिक बाधाएं राष्ट्रीय एकता और अखंडता में बाधा न बनें। हाल ही में विधि आयोग ने परिवार विधि पर जारी परामर्श पत्र में यह स्पष्ट कर दिया है कि समान नागरिक संहिता अभी न तो आवश्यक है, न ही वांछनीय। आयोग ने व्यक्तिगत कानूनों में बदलाव और संशोधन के लिए सिफारिश भी की है ताकि वे एक-दूसरे के साथ या संवैधानिक योजना के साथ संगत हो सकें।

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संविधान में समानता का सिद्धांत

भारत के संविधान में समानता का सिद्धांत लंबवत नहीं बल्कि क्षैतिज है, अर्थात यह समान समूहों में समानता का पक्षधर है। इसी कारण ऐसी समानता को अर्थपूर्ण समानता भी कहते हैं। इसी आधार पर विधि आयोग ने समुदायों के बीच समानता (समान नागरिक संहिता) के बदले पुरुषों और महिलाओं के बीच उसी समुदाय के भीतर समानता (व्यक्तिगत कानूनों में सुधार) को महत्व दिया है। यह विदित है कि भारत की संस्कृति का मूल तत्व सहिष्णुता है, जिसकी सुरक्षा तभी हो सकती है जब प्रत्येक समूह या समुदाय अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान की रक्षा कर सके। इस संबंध में जनगणना 2011 के आंकड़ों पर विचार करना बेहद महत्वपूर्ण हो गया है कि भारत में 2000 से अधिक नृजातीय समूह निवास करते हैं। इस पृष्ठभूमि में यह सही है कि संस्कृति की रक्षा केवल तभी संभव है जब प्रत्येक समुदाय के व्यक्तिगत कानूनों को मान्यता दी जाए। यह राष्ट्रीय एकता और अखंडता के आधार के रूप में भी कार्य कर सकता है। कदाचित यह स्वतंत्रता के छह दशकों के बाद भी एक समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के प्रावधान को लागू करने के लिए राज्य के लिए प्रमुख बाधाओं में से एक रहा है। हालांकि यह भी एक तथ्य है कि व्यक्तिगत कानूनों में विविधता अधिकांशत: एकता या राष्ट्रीय एकीकरण के समक्ष गंभीर चुनौती बन जाती है।

यह विदित है कि व्यक्तिगत कानून समुदायों को राजनीतिक- सामाजिक- सांस्कृतिक माहौल में भाग लेने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन वे संविधान के अनुरूप होने चाहिए। ‘टिपल तलाक’ और लिंग न्याय के मुद्दे के संदर्भ में व्यक्तिगत कानूनों पर हालिया बहस गंभीर चिंता का विषय बन गई है और एक बार फिर हमें भारत के संवैधानिक और प्रबुद्ध संवैधानिक तंत्र के संदर्भ में समान सिविल संहिता की अवधारणा पर विचार करने के लिए प्रेरित किया गया है। सवाल यह है कि क्या व्यक्तिगत कानूनों में निर्धारित जिन धार्मिक प्रथाओं को संवैधानिक संरक्षण दिया गया है, उन्हें उन लोगों तक भी विस्तारित होना चाहिए जो मौलिक अधिकारों के अनुपालन में नहीं हैं। ऐसे विचार जिनमें यह कहा गया है कि धर्मो के व्यक्तिगत कानूनों को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर होना चाहिए, वे स्वाभाविक रूप से संविधान से असंगत हैं। हालांकि संविधान और व्यक्तिगत कानूनों के तहत अधिकार भी दिए गए हैं, लेकिन विशेष रूप से अनुच्छेद 25 के तहत धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार या किसी और स्थिति में निरपेक्ष नहीं होना चाहिए। इसलिए उन्हें नियंत्रित करने के लिए एक वैधानिक दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। नागरिकों की स्वतंत्रता और राज्य के अधिकार के बीच संतुलन एक प्रबुद्ध संविधान का आधारभूत सिद्धांत रहा है।

समान नागरिक संहिता का अर्थ

भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 में उल्लेख है कि राज्य नागरिकों के लिए भारत के संपूर्ण राज्य क्षेत्र में एक समान नागरिक संहिता के निर्धारण का प्रयास करेगा। नागरिक संहिता उन कानूनों को संदर्भित करती है जो विवाह, तलाक, दत्तक ग्रहण और उत्तराधिकार जैसे सिविल मामलों से संबंधित हैं। वर्तमान में ऐसे मामलों को भारत में व्यक्तिगत कानूनों द्वारा शासित किया जाता है, जिनमें ऐसे कानूनों की बहुलता होती है। भारत में बनाए गए कुछ महत्वपूर्ण व्यक्तिगत कानूनों में हिंदू विवाह अधिनियम, 1955, भारतीय तलाक अधिनियम, 1869, ईसाई विवाह अधिनियम, 1872, भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925, पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 आदि शामिल हैं। ध्यातव्य हो कि समान सिविल संहिता का विषय संविधान सभा में विवादास्पद था। आपत्ति जताई गई थी कि ऐसी संहिता संविधान के अनुच्छेद 25 में धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करेगी। इसके अलावा यह अल्पसंख्यकों की संस्कृति में हस्तक्षेप भी कर सकती है।

क्या है इस संहिता का मूल विचार

एक समान नागरिक संहिता का प्रस्ताव देने का मूल विचार व्यक्तिगत कानूनों से और सामाजिक संबंधों से या विरासत या उत्तराधिकार के संबंध में विभिन्न पक्षकारों के अधिकारों से धर्म को अलग करना था। इस प्रकार प्रस्तावित संहिता धार्मिक प्रथाओं में हस्तक्षेप किए बिना हर तरह से राष्ट्र को एकजुट और समेकित करने में विश्वास करती है। जहां तक अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का प्रश्न है, यह अनुच्छेद स्पष्ट रूप से उल्लेख करता है कि इस तरह का अधिकार सभी लोगों के लिए समान रूप से उपलब्ध है और धार्मिक सहिष्णुता के सिद्धांत पर आधारित है जो भारत में पंथ निरपेक्षता की आधारशिला भी है (बैरी कोसमिन ने पंथ निरपेक्षता को दो श्रेणियों में विभक्त किया है, कठोर अर्थात धर्म और राज्य का पूर्ण पृथक्कीकरण और नरम यानी धार्मिक सहिष्णुता। भारतीय संविधान में नरम पंथ निरपेक्षता शामिल है)। यह भी एक तथ्य है कि धर्म का उपयोग केवल व्यक्तिगत जीवन को नियंत्रित करने के लिए ही किया जाना चाहिए और किसी के सार्वजनिक जीवन में इसके द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए।

यूसीसी के प्रति न्यायिक दृष्टिकोण

समान नागरिक संहिता और पंथ निरपेक्षता परस्पर विरोधी नहीं हैं, बल्कि वे एक दूसरे के पूरक हैं। एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ एआइआर 1994 मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि धर्म व्यक्तिगत विश्वास का विषय है और पंथनिरपेक्ष गतिविधियों के साथ मिश्रित नहीं किया जा सकता है। राज्य द्वारा पंथनिरपेक्ष गतिविधियों को विनियमित किया जा सकता है। यहां उल्लेखनीय है कि अनुच्छेद 25 (2) के तहत राज्य को यह शक्ति प्राप्त है। इस प्रकार विवाह, दत्तक ग्रहण आदि पंथनिरपेक्ष गतिविधियां हैं और इसलिए इनके द्वारा समान सिविल संहिता का विरोध नहीं किया जाता है। उच्चतम न्यायालय ने संसद को मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम एआइआर 1985 मामले में एक समान नागरिक संहिता तैयार करने का निर्देश दिया था। न्यायालय के अनुसार, आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत तलाक के बाद एक मुस्लिम महिला को अपने पति से गुजारा भत्ता प्राप्त करने का अधिकार है।

न्यायालय के इस निर्णय पर गंभीर विवाद हो गए थे और ऐसे आरोप लगाए गए कि न्यायिक निर्णय ने व्यक्तिगत कानूनों में हस्तक्षेप किया था। अंतत: संसद द्वारा मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 बनाया गया जिसके आधार पर भारत सरकार द्वारा न्यायालय के निर्णय को निरस्त कर दिया गया था। इसके अलावा मैरी रॉय बनाम केरल राज्य मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रश्न उठाया गया था कि त्रवणकोर ईसाई उत्तराधिकार अधिनियम, 1916 के कुछ प्रावधान अनुच्छेद 14 के तहत असंवैधानिक थे। न्यायालय ने फैसला सुनाया कि त्रवणकोर अधिनियम को भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 द्वारा हटा दिया गया था। इस फैसले ने लिंग न्याय की अवधारणा को बढ़ावा दिया। सरला मुद्गल बनाम भारत संघ एआइआर 1995 एससी 1531 मामले में न्यायालय ने कहा कि कोई भी समुदाय धर्म के आधार पर एक अलग इकाई बने रहने का दावा नहीं कर सकता है।

(लेखक सेंटर फॉर एप्लाइड रिसर्च इन गवर्नेस, दिल्ली के अध्यक्ष हैं)


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