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सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी आरक्षण में क्रीमी लेयर को लेकर छिड़ी है बहस

आजादी के बाद संविधान निर्माण के वक्त अनुसूचित जाति- अनुसूचित जनजाति के लोगों को आरक्षण का लाभ जिस कारण दिया गया, बीते दशकों में उसमें काफी बदलाव आया है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Sat, 06 Oct 2018 11:41 AM (IST)Updated: Sat, 06 Oct 2018 07:06 PM (IST)
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी आरक्षण में क्रीमी लेयर को लेकर छिड़ी है बहस
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी आरक्षण में क्रीमी लेयर को लेकर छिड़ी है बहस

प्रेम प्रकाश। आरक्षण को लेकर संविधान सभा की बहस में डॉ. आंबेडकर की राय से बाकी सदस्य सहमत नहीं थे। पर बाबा साहेब ने देश में सामाजिक- धार्मिक- पारंपरिक विभेद और उत्पीड़न के शिकार लोगों के लिए लोकतांत्रिक स्पेस का जब तर्क दिया तो किसी के पास उसका ठोस प्रतिकार नहीं था। बीसवीं सदी के आखिरी दशक में जब भारत भी विकास के ग्लोबल होड़ में शामिल हुआ तो अर्थ से लेकर समाज तक कई पूर्वाग्रह ध्वस्त हुए। सामाजिक न्याय के विमर्श में यह तर्क शामिल हो गया कि पूंजी और अवसरों के खुले राजमार्ग पर विभेद और असमानता के रोड़े न के बराबर हैं। पर इन तमाम बदलावों के बीच कुछ जमीनी सच्चाई आज भी यथावत है। बीते तीन दशकों में भारतीय समाज निश्चित रूप से बहुत बदला है। विकास की मुख्यधारा में आज अधिकतम समुदाय के लोग शामिल हैं। पर इस परिवर्तन के बीच भी जो बात पूरी तरह से नहीं मिटी, वह है जनजातीय और पिछड़े समाज को लेकर जारी असमानता।

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आरक्षण का सवाल

सामाजिक- राजनीति के विमर्श के बीच आरक्षण का सवाल देश को आज नए सिरे से मथ रहा है। इस बीच जो नया भारतीय समाज बना है, वह अपनी समझ की नई जमीन पर इन मुद्दों की व्याख्या करना चाहता है। यह व्याख्या सीधे-सीधे आरक्षण विरोधी न होकर इसे दिए जाने के तर्क और तरीके पर एक गंभीर विमर्श को आगे बढ़ा रहा है। आरक्षण के साथ इससे जुड़े सवालों की गूंज देश की सर्वोच्च अदालत तक पहुंच रही है। हाल में एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि क्रीमी लेयर की अवधारणा एससी- एसटी को दिए जाने वाले आरक्षण में भी लागू होगी। संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा कि संवैधानिक कोर्ट किसी भी क्रीमी लेयर को दिए गए आरक्षण को रद्द करने के लिए सक्षम है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि आरक्षण का पूरा उद्देश्य यह है कि पिछड़ी जातियां अगड़ों से हाथ में हाथ मिलाकर बराबरी के आधार पर आगे बढ़ें।

क्रीमी लेयर की दरकार

जिन लोगों को यह लग रहा था कि अदालत क्रीमी लेयर की दरकार को लेकर अगर कोई सकारात्मक नजरिया अपनाती है तो वह सामान्य न्याय से आगे न्यायिक सक्रियता के दबाव में होगी, तो उनका पूर्वाग्रह गलत साबित हुआ है। इस बारे में कोर्ट ने अपनी दलील और मंशा दोनों ही यह कहते हुए साफ की है कि जब वह एससी- एसटी में क्रीमी लेयर का मामला लागू करता है तो वह अनुच्छेद 341 तथा 342 के तहत राष्ट्रपति द्वारा जारी एससी-एसटी की सूची में छेड़छाड़ नहीं करता। इस सूची में जाति और उपजाति पहले की तरह बने रहते हैं। इससे सिर्फ वही लोग प्रभावित होते हैं, जो क्रीमी लेयर के कारण छुआछूत और पिछड़ेपन से बाहर निकल आए हैं और जिन्हें आरक्षण से बाहर रखा गया है। जाहिर है कि कोर्ट ने केंद्र सरकार का यह आग्रह पूरी तौर पर खारिज कर दिया कि एससी-एसटी में क्रीमी लेयर के मामले को खत्म कर दिया जाए।

सुप्रीम कोर्ट ने उठाया सवाल

इससे पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाते हुए सरकार से पूछा था कि जिस तरह अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के अमीर लोगों को क्रीमी लेयर के सिद्धांत के तहत आरक्षण के लाभ से वंचित रखा जाता है, उसी तरह एससी-एसटी के अमीर लोगों को प्रमोशन में आरक्षण के लाभ से क्यों वंचित नहीं किया जा सकता। दरअसल आरक्षण में क्रीमी लेयर लागू करने का सवाल देश में आज एक ऐसे तकाजे की शक्ल अख्तियार कर चुका है, जो आरक्षण को आगे ढोते चले जाने की तदर्थ राजनीतिक समझ के आगे बड़े सवाल खड़े करता है। देश में आरक्षण को लेकर संविधान सभा की बहस से लेकर अब तक की स्थिति के बीच परिस्थितियों में बदलाव और नए-पुराने अनुभवों के कई संदर्भ शामिल हो गए हैं। बड़ी बात यह है कि नया भारतीय समाज भी उन वर्गो के आरक्षण पर कोई सीधा सवाल नहीं उठा रहा, जिनकी शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति में आज भी अपेक्षित बदलाव नजर नहीं आता है।

जनजातीय आबादी की उपेक्षा

देश की जनजातीय आबादी के साथ यह उपेक्षा आज भी जुड़ी है, यह बात सभी लोग मानते हैं। नया सवाल तो इस तर्क के साथ पैदा हुआ है कि अब तक के आरक्षण की व्यवस्था में जो लोग उपेक्षा से समानता के दायरे में आ चुके हैं, उन्हें आरक्षण का अपना विशेषाधिकार त्यागना चाहिए ताकि उनके ही समुदाय के अन्य लोग इस व्यवस्था से ज्यादा से ज्यादा लाभान्वित हो सकें। इससे सामाजिक न्याय के एक नए दौर की शुरुआत होगी। क्रीमी लेयर की व्यवस्था जनजातीय समुदाय के लिए कैसे काम करेगी इसे समझने के लिए पिछड़ों के साथ लागू इस व्यवस्था को समझना होगा। सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है, बशर्ते परिवार की वार्षिक आय क्रीमी लेयर के दायरे में न आती हो। इस बारे में फैसले कितने लचर तरीके से होते रहे हैं, इसकी मिसाल यह है कि 1993 में इसकी सीमा महज एक लाख रुपये थी। अब तक इसे चार बार बढ़ाया गया है। 2004 में आय सीमा बढ़ाकर ढाई लाख, 2008 में साढ़े चार लाख, 2013 में छह लाख और 2017 में बढ़ाकर आठ लाख रुपये कर दिया गया। एक मांग यह भी है कि क्रीमी लेयर के निर्धारण की प्रक्रिया को सीधे-सीधे आयकर से क्यों न जोड़ दिया जाए ताकि इस बारे में फैसला लेते हुए सरकारें किसी अन्य राजनीतिक हित के दबाव में न आएं।

सामाजिक- राजनीतिक सहमति

वैसे बड़ा सवाल इस बात पर सामाजिक- राजनीतिक सहमति का भी है, जिसमें आरक्षण के लाभ के साथ क्रीमी लेयर की शर्त बाध्यकारी हो। अच्छी बात यह है कि देश आज अपनी न्यायिक समझ के साथ इस दिशा में आगे बढ़ चुका है। वर्ष 1950 से 2018 की स्थिति कई मामलों में अलग है। पर अकेले अगर जनजातीय आबादी की बात करें तो उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने के लिए जितने ईमानदार सामाजिक और सरकारी पहल की जरूरत थी वे नहीं हुए हैं। आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस साल में एससी- एसटी के खिलाफ अपराध 66 फीसदी की दर से बढ़े हैं। लिहाजा ऐसे में अगर किसी को यह लगता है कि क्रीमी लेयर की अनिवार्यता आगे चलकर आरक्षण की आवश्यकता के तर्क को ही कमजोर कर देगा, तो वह गलत उम्मीद लगाए बैठा है। आरक्षण में क्रीमी लेयर की व्यवस्था का लागू होना आरक्षण की व्यवस्था को और न्यायसंगत बनाना है, न कि उसकी आवश्यकता से जुड़े ऐतिहासिक- सामाजिक तथ्यों को नजरअंदाज करना या उसे किसी भी रूप में खारिज करना है।


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