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स्वच्छ संसद अभियान की आवश्यकता, संसद में पहुंचने वाले हमारे सभी जनप्रतिनिधि स्वच्छ छवि वाले हों

चुनाव सुधारों के लिए काम करने वाले संगठन एडीआर यानी एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स और नेशनल इलेक्शन वाच ने हाल ही में वर्ष 2019 से 2021 तक 542 लोकसभा सदस्यों और 1953 विधायकों के हलफनामों का विश्लेषण किया है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 26 Aug 2021 10:28 AM (IST)Updated: Thu, 26 Aug 2021 10:29 AM (IST)
स्वच्छ संसद अभियान की आवश्यकता, संसद में पहुंचने वाले हमारे सभी जनप्रतिनिधि स्वच्छ छवि वाले हों
यह सुनिश्चित होना चाहिए कि संसद में पहुंचने वाले हमारे सभी जनप्रतिनिधि स्वच्छ छवि वाले हों। फाइल

सौरभ जैन। भारत में लोकसभा और विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दलों द्वारा आपराधिक छवि के नेताओं को टिकट देना और ऐसे लोगों का जनप्रतिनिधि चुना जाना कोई नया मामला नहीं है। फिर भी, एडीआर यानी एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स ने इस संबंध में जो विश्लेषण किया है, वह इस तथ्य को बताने के लिए काफी है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था में दागियों की संख्या कम नहीं है।

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एडीआर ने अपने विश्लेषण में बताया है कि राजनीतिक दलों में भारतीय जनता पार्टी में ऐसे सांसदों और विधायकों की संख्या सबसे अधिक 83 है, जबकि कांग्रेस में 47 और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) में 25 ऐसे सांसद और विधायक हैं। इतना ही नहीं, कुल 24 मौजूदा लोकसभा सदस्यों के खिलाफ 43 आपराधिक मामले लंबित हैं और 111 मौजूदा विधायकों के खिलाफ कुल 315 आपराधिक मामले एक दशक या उससे भी अधिक समय से लंबित हैं।

उल्लेखनीय है कि जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (1), (2) और (3) के तहत सूचीबद्ध अपराध गंभीर और जघन्य प्रकृति के समझे जाते हैं। ऐसे में बड़ी चिंता का विषय यह भी है कि बिहार विधानसभा में 54 विधायक ऐसे हैं, जो इस तरह के गंभीर आपराधिक मामलों का सामना कर रहे हैं। इसके बाद केरल में ऐसे 42 विधायक हैं। एडीआर ने अपनी नई रिपोर्ट में चार केंद्रीय मंत्रियों और राज्यों में 35 मंत्रियों, जिन्होंने आपराधिक मामलों की सूचना दी है, उनका भी उल्लेख किया है। एडीआर की यह रिपोर्ट ऐसे समय आई है, जब कुछ ही दिनों पूर्व सर्वोच्च न्यायालय राजनीति के अपराधीकरण पर सख्त टिप्पणी कर चुका है। न्यायालय ने पूर्व में आपराधिक छवि वाले नेताओं के रिकार्ड का चुनाव में पर्दाफाश करने का आदेश दिया था। अपने आदेश की अवमानना पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था, ‘राजनीतिक व्यवस्था के अपराधीकरण का खतरा निरंतर बढ़ता जा रहा है। इसकी शुद्धता के लिए आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को कानून निर्माता बनने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। किंतु हमारे हाथ बंधे हैं। हम सरकार के आरक्षित क्षेत्र में अतिक्रमण नहीं कर सकते। हम केवल कानून बनाने वालों से अपील कर सकते हैं।’

यह टिप्पणी राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले माननीयों की बढ़ती संख्या पर सर्वोच्च न्यायालय की चिंता को स्पष्ट रूप में अभिव्यक्त करती है। पहले भी कई अवसरों पर राजनीति को आपराधिक प्रवृत्ति वाले नेताओं से मुक्त करने की मांग उठी है। यह केवल तब संभव है जब राजनीतिक दल इसमें रुचि लेंगे। प्राय: चुनावों के समय टिकट वितरण का आधार चुनाव जीतने वाले उम्मीदवार ही होते हैं और लगभग सभी राजनीतिक दल इसी परिपाटी पर चुनाव लड़ते हैं। ऐसे में चुनावों में आपराधिक छवि वाले नेताओं की भागीदारी बढ़ती जा रही है और राजनीति में स्वच्छ छवि वाले नेताओं के लिए अवसर सीमित होते जा रहे हैं।

सभी राष्ट्रीय राजनीतिक दल में हैं दागी : एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स की ही बीते लोकसभा चुनाव के बाद जारी रिपोर्ट के अनुसार 17वीं लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों में से 43 फीसद सदस्य दागी हैं अर्थात जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। वर्तमान लोकसभा के 542 सांसदों में से 233 सांसदों पर आपराधिक मामले क्षेत्र विशेष के पुलिस थानों में दर्ज होने के साथ न्यायालय में भी विचाराधीन हैं। चुनाव के नामांकन फार्म के साथ दिए गए हलफनामे के अनुसार 233 दागी सांसदों में से 159 सांसद तो ऐसे हैं जिन पर हत्या, दुष्कर्म और अपहरण जैसे संगीन मामले लंबित हैं। दागी सांसदों के ये आंकड़े किसी दल विशेष के नहीं हैं, बल्कि दागियों को संसद तक पहुंचाने में समस्त राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं।

यदि दल विशेष के अनुरूप बात की जाए तो भारतीय जनता पार्टी के 303 सांसदों में से 301 सांसदों के हलफनामे के विश्लेषण के आधार पर यह ज्ञात हुआ कि इस पार्टी के 116 सांसद दागी की श्रेणी में आते हैं। यानी हर तीसरा भाजपाई सांसद दागी है। वहीं कांग्रेस के 52 सांसदों में से 29 पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, यह संख्या कांग्रेस के कुल निर्वाचित सांसदों के आधे से भी अधिक है। इतना ही नहीं, केरल के एक कांग्रेसी सांसद पर तो 204 मामले लंबित हैं। बावजूद इसके वह सदन में कानून निर्माण का कार्य कर रहे हैं, जो बेहद हैरानी की बात है।

क्षेत्रीय दलों में आपराधिक छवि वाले जनप्रतिनिधि : अन्य राजनीतिक दलों के विषय पर बात की जाए तो केंद्र में सत्तारूढ़ राजग के घटक दल लोजपा के छह लोकसभा सदस्यों में से सभी पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। बहुजन समाज पार्टी के निर्वाचित 10 लोकसभा सदस्यों में से पांच दागी हैं। इसी क्रम में जदयू के निर्वाचित 16 सांसदों में से 13, तृणमूल कांग्रेस के 22 सांसदों में से नौ और माकपा के तीन सासंदों में से दो सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस हमाम में सभी नंगे हैं।

दागी सांसदों के राज्यवार आंकड़ों पर प्रकाश डाला जाए तो सर्वाधिक आपराधिक प्रवृत्ति के लोकसभा सदस्य केरल और बिहार से चुन कर आए हैं। केरल से कुल निर्वाचित लोकसभा सदस्यों में से 90 फीसद, बिहार से 82 फीसद, बंगाल से 55 फीसद, उत्तर प्रदेश से 56 फीसद और महाराष्ट्र से 58 फीसद सांसदों पर मुकदमे लंबित हैं। वहीं छत्तीसगढ़ और गुजरात से निर्वाचित दागी सांसदों का प्रतिशत क्रमश: नौ तथा 15 है। दागी सांसदों के निर्वाचित होने का यह क्रम पूर्व समय से चला आ रहा है। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में आपराधिक मुकदमे की छवि वाले 162 सांसद (30 फीसद) चुनकर आए थे, जबकि वर्ष 2014 के चुनाव में निर्वाचित ऐसे सांसदों की संख्या 185 (34 फीसद) थी। एक ओर जहां वर्ष 2009 के आम चुनावों में चुनकर आए गंभीर आपराधिक मामलों में संलिप्त लोकसभा सदस्यों की संख्या 76 थी जो 2014 के आम चुनाव में बढ़कर 112 हो गई। वर्ष 2019 में इस संख्या ने 159 के आंकड़े को स्पर्श कर लिया। रिपोर्ट के अनुसार पिछली तीन लोकसभा में आपराधिक मुकदमों से घिरे सांसदों की संख्या में 44 फीसद की वृद्धि हुई है। इन आंकड़ों में निरंतर वृद्धि होना राजनीति के अपराधीकरण को दर्शाता है। नियम पुस्तिकाओं की मानें तो जेल में बंद अभियुक्त वोट देने के लिए अयोग्य हैं, किंतु निर्वाचन हेतु योग्य हैं।

राजनीति के अपराधीकरण पर रोक : ऐसा नहीं है कि राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए कभी आवाज नहीं उठती, आवाज तो उठती है, लेकिन वहां तक नहीं पहुंच पाती, जहां से सुधारों की अपेक्षा है। सभी राजनीतिक दल राजनीति को अपराध मुक्त बनाने की बात करते हैं, किंतु प्रत्येक चुनावों के बाद स्थिति पहले से और बदतर हो जाती है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले समय में संसद का स्वरूप कैसा होगा यह सोच कर ही मन सिहर उठता है।

सितंबर 2018 में सर्वोच्च न्यायलय के पांच न्यायाधीशों की पीठ ने दागी सांसदों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने के लिए दायर जनहित याचिका पर फैसला सुनाया था जिसके अनुसार मात्र चार्जशीट के आधार पर नेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक नहीं लगाई जा सकती। पक्ष में यह तर्क दिया गया कि आरोप लगना और साबित होना दो भिन्न बातें हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने तो अपनी एक सुनवाई में यह भी कहा था कि विधि निर्माण हमारा कार्य नहीं है, यह संसद का कार्य है। अब प्रश्न यह उठता है कि जिस संसद में 43 फीसद सदस्य दागी निर्वाचित होकर आते हों, वह ऐसी कोई विधि का निर्माण क्यों करेगी जो दागियों को चुनाव लड़ने से रोकती हो? वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय की इजाजत के बगैर सांसदों/ विधायकों पर लंबित मामलों को वापस लेने पर भी रोक लगाई है। सितंबर 2020 तक वर्तमान एवं पूर्व सांसदों/ विधायकों पर 4,859 मामले लंबित थे। उत्तर प्रदेश सरकार वर्ष 2017 से नेताओं पर दर्ज 800 से अधिक मामले वापस ले चुकी है, जिनमें दंगे के मामले भी शामिल है।

मौजूदा विधियों के अनुरूप जनप्रतिनिधित्व कानून के अंतर्गत दोषसिद्धि उपरांत ही किसी नेता के चुनाव लड़ने पर रोक लगाई जा सकती है। दोषसिद्ध होने की प्रक्रिया इतनी लंबी होती है कि दागी नेता अपने जीवन के तीन-चार कार्यकाल पूर्ण कर लेता है। निचली अदालतों के फैसले को उच्च अदालतों में चुनौती दी जाती है और उच्च अदालतों में सुनवाई और परिणाम की प्रक्रिया पूरी होने में ही वर्षो का समय गुजर जाता है। कानून के इन दुर्बल पक्षों का भरपूर लाभ दागी नेता उठाते हैं। इसलिए अब आवश्यक है कि जैसे देश को स्वच्छ किया है वैसे ही संसद भी स्वच्छ हो।

[शोध अध्येता, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर]


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