Analysis : Lok Sabha Elelction 2019 Result में वामपंथी दलों की हालत पतली, कई जगह नहीं खुला खाता
Lok Sabha Elelction 2019 Result में वामपंथी दल बहुत दयनीय स्थिति में नजर आ रहे हैं। अपने मजबूत गढ़ पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में तो खाता तक नहीं खुला है।
[कृपाशंकर चौबे]। आजादी के बाद वामपंथी दलों की इतनी दयनीय स्थिति कभी नहीं हुई जितनी इस लोकसभा चुनाव में हुई है। वाममोर्चा अपने मजबूत गढ़ पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में खाता तक नहीं खोल पाया। केरल में महज एक सीट पर उसे विजय मिली है, जबकि तमिलनाडु में चार सीटों पर कामयाबी मिली है और वह भी दूसरे दलों के सहारे। पिछले संसदीय चुनाव में वाममोर्चे को 12 सीटों पर विजय मिली थी। बंगाल में इस चुनाव में उसे महज 7.47 प्रतिशत मत मिले, जबकि 2009 में 43.30 प्रतिशत, 2014 में 29.93 प्रतिशत मत मिले थे। वे मत अब भाजपा की तरफ हस्तांतरित होते दिख रहे हैं।
‘वामेर भोट रामेर’ (वाम का वोट राम को) का नारा ही यहां चल निकला था। वर्ष 2014 में भाजपा को 17.02 प्रतिशत मत मिले थे जो इस चुनाव में बढ़कर 40.23 प्रतिशत हो गया। ममता बनर्जी के लिए यह खतरे का संकेत है। इस चुनाव में वामपंथ के क्षरण का बड़ा कारण यह रहा कि सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता उन पर हमले करते रहे और वाम नेतृत्व मूकदर्शक बना रहा, जबकि भाजपा कार्यकर्ताओं पर हमले होते ही वहां प्रदेश भाजपा नेता पहुंचते रहे और लड़ते रहे।
वामपंथ के पराभव का दूसरा कारण यह रहा कि जिस सर्वहारा और हाशिये के समाज के पक्ष में वामपंथ लड़ता रहा है उन्हीं के पक्ष में कई जन कल्याणकारी योजनाएं मोदी सरकार ने आरंभ की। इसी के समानांतर केंद्र सरकार ने यह भी सुनिश्चित किया कि योजनाओं का लाभ सीधे लाभार्थियों को मिले। ‘सबका साथ, सबका विकास’ केवल नारा नहीं, अपितु वास्तविक धरातल पर घटित होते हुए दिखा कार्यक्रम बना। मोदी के दल की तरफ वामपंथ समर्थकों के झुकने का बड़ा कारण यह भी रहा। तीसरा कारण वाममोर्चे के भीतर की अंतर्कलह रही है। वामपंथ की अंतर्कलह और अंतर्विरोधों से वाम समर्थक आजिज आ गए थे।
सीताराम येचुरी जो लाइन लेते थे, प्रकाश करात उससे अलग जाते दिखते थे। वाम दल खासकर माकपा चुनाव को युद्ध मानती रही है, किंतु इस चुनाव में वह युद्ध के रूप में लड़ती नजर नहीं आई। माकपा की लोकल कमेटी से लेकर जोनल, जिला व राज्य कमेटियों द्वारा लोकसभा के चुनाव प्रचार के लिए जिस जज्बे को दिखाए जाने की जरूरत थी, वह नहीं दिखाई गई। कदाचित इसीलिए वह शिखर से ढलान पर आ गिरी। बंगाल, केरल और त्रिपुरा की राजनीति में लंबे समय तक माकपा शिखर पर रही।
आज बंगाल और त्रिपुरा की सत्ता से वह बाहर है। इन प्रदेशों में बड़े पार्टी कैडरों तक को माकपा संभाल नहीं पा रही है और वे बड़े पैमाने पर पार्टी छोड़ रहे हैं। मतभेदों के कारण ही अपने चक्रवर्ती, सैफुद्दीन चौधरी से लेकर सोमनाथ चटर्जी जैसे कद्दावर नेताओं को माकपा से बहिष्कृत किया गया। ये तीनों नेता अब नहीं रहे, किंतु माकपा ने कभी इस पर विचार नहीं किया कि इन नेताओं को पार्टी से बहिष्कृत किया जाना दल के लिए कितना हितकर रहा? सोमनाथ से पार्टी नेतृत्व का जो मतभेद रहा, पर उनके तर्क मजबूत थे। उनकी बात नहीं सुनी-समझी गई। सैफुद्दीन चौधरी ने कहा था कि भाजपा पार्टी की दुश्मन नंबर एक है और कांग्रेस दो नंबर। इस बयान पर तब पार्टी के कट्टरपंथी तबके को उदारपंथी सैफुद्दीन के बयान में कांग्रेस भक्ति नजर आई थी और सैफुद्दीन दल से बाहर कर दिए गए।
विडंबना देखिए कि बाद में पूरी माकपा उनकी राजनीतिक लाइन पर ही चल पड़ी। वाम दलों ने यह समझने की जहमत नहीं उठाई कि वे अपना जनाधार क्यों खो रहे हैं? समय के साथ देश का मानस बदलता गया, पर वाम दलों ने खुद को नहीं बदला। उन्होंने भारतीय मूल्यों व पंरपराओं को सम्मान देने की भी कोशिश नहीं की, उलटे वे उनका उपहास उड़ाते रहे। वामपंथी दलों में सबसे बड़ी पार्टी माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 17 अक्टूबर 1920 को हुई थी।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सातवीं कांग्रेस कलकत्ता में 1964 में हुई थी और उसी में भाकपा से निकलकर मार्कस्वादी कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की घोषणा की गई थी। 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी में संशोधनवाद पर जो बहस चली थी और उसमें जो गहरे सैद्धांतिक मतभेद उभरे थे उसकी परिणति कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन के रूप में हुई थी। तब माकपा ने भाकपा को संशोधनवादी कहा था।
माकपा के गठन की घोषणा करते हुए मुजफ्फर अहमद ने कलकत्ता कांग्रेस में कहा था, ‘आइए हम सच्ची कम्युनिस्ट पार्टी खड़ी करने की शपथ लें।’ पार्टी को इस पर मंथन करना चाहिए कि क्या उस शपथ पर माकपा खरी उतर सकी? वामपंथी दलों का अहित उन वाम झुकाव वाले बुद्धिजीवियों ने भी खूब किया है जो विरोधी विचार को समझना तो दूर रहा, उसे सुनने को भी तैयार नहीं। वह खुद को लिबरल भले बताते हों, लेकिन उनमें असहिष्णुता कूट-कूट कर भरी है। जैसे वाम विचारक असहमति को सम्मान देने के लिए तैयार नहीं वैसी ही कुछ स्थिति वाम दलों की भी है। चूंकि वे अपनी गलतियों से कोई सबक सीखने के लिए तैयार नहीं इसलिए इसमें संदेह है कि उनका नए सिरे से उत्थान हो सकेगा।
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