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जानिए कैसे प्रोटोकाल के बंधन से मुक्त थे प्रणब दा, दलीय राजनीति से भी थे ऊपर

प्रणब मुखर्जी की शख्सियत कुछ ऐसी थी कि पहली बार मिलते वक्त कोई जरूर भयभीत हो लेकिन दूसरी बार मिलने के बाद मुग्ध होना तय था।

By Dhyanendra SinghEdited By: Published: Mon, 31 Aug 2020 07:34 PM (IST)Updated: Mon, 31 Aug 2020 08:07 PM (IST)
जानिए कैसे प्रोटोकाल के बंधन से मुक्त थे प्रणब दा, दलीय राजनीति से भी थे ऊपर
जानिए कैसे प्रोटोकाल के बंधन से मुक्त थे प्रणब दा, दलीय राजनीति से भी थे ऊपर

आशुतोष झा, नई दिल्ली। प्रणब दा... एक ऐसा नाम जिसके फैसले को लेकर कोई आशंका न हो। दलीय राजनीति का हिस्सा होते हुए भी निष्पक्ष होकर सिर्फ सही गलत पर फैसला लेना और हर संबंध का समुचित आदर और प्यार के साथ पालन करना..यही वे गुण थे जिसने प्रणब मुखर्जी को प्रणब दा बनाया था। शख्सियत कुछ ऐसी थी कि पहली बार मिलते वक्त कोई जरूर भयभीत हो लेकिन दूसरी बार मिलने के बाद मुग्ध होना तय था।

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उनके लंबे राजनीतिक कार्यकाल में यूं तो कई उदाहरण मिल सकते हैैं लेकिन बात 2012 से शुरू करते हैैं जब उन्हें संप्रग की ओर से राष्ट्रपति पद के लिए चुना गया था। जीत तय थी लेकिन तब विपक्ष में बैठी भाजपा ने सैद्धांतिक तौर पर उनके खिलाफ मत डालने का फैसला किया था। भाजपा के अंदर कुछ विरोध भी था और यह भय भी डेढ दो साल बाद लोकसभा चुनाव होने हैैं। ऐसे में राष्ट्रपति से बैर मोल लेना उचित नहीं होगा। लेकिन फैसला हो चुका था। प्रणब दा राष्ट्रपति बन गए और अगले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री। इस बीच भी कई मुद्दों पर राष्ट्रपति का दरवाजा खटखटाने भाजपा प्रतिनिधिमंडल गया तो कभी अहसास ही नहीं हुआ कि प्रणब को किसी भी तरह का दुख है।

2104 लोकसभा चुनाव में आरोप-प्रत्यारोप का शुरू हुआ था दौर

रोचक तथ्य तो यह है कि 2014 का लोकसभा चुनाव से पहले जब कांग्रेस और भाजपा आमने सामने खड़ी थी। आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हो चुका था। तब प्रणब ने एक तरह से भविष्यवाणी कर दी थी। गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर देश को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था- भ्रष्टाचार कैंसर की तरह है.. अगर सरकार इसे दुरुस्त नहीं करेगी तो जनता सरकार को हटा देगी। उसी भाषण में लोकतंत्र को डाक्टर बताते हुए उन्होंने आशा जताई थी कि 2014 का नतीजा त्रिशंकु सदन और उसके कारण होने वाली परेशानियों से मुक्ति दिला देगा। दोनों भविष्यवाणियां सही साबित हुई थी। नतीजा ऐतिहासिक आया और बताते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रणब से मिलने गए तो उस भाषण का जिक्र भी आया। दरअसल यूपीए-एक और यूपीए-दो में गठबंधन के दबाव और उससे पहले वाजपेयी सरकार के वक्त भी इसे देख चुके प्रणब देश को झकझोर रहे थे। वह जानते थे कि कमजोर सरकार के काल में राष्ट्रपति मजबूत होता है, लेकिन देश कमजोर होता है। वह जानते थे कि गठबंधन पर निर्भरता बढ़ते कदमों को रोकती है।

दल और छल की राजनीति से बहुत दूर रहते थे प्रणब मुखर्जी

एक सवाल हर बार उठता है- राष्ट्रपति पद के लिए राजनीतिक व्यक्ति का चुनाव होना चाहिए या गैर राजनीतिक..? प्रणब मुखर्जी ने यह साबित कर दिया है कि दल और छल से मुक्त राजनीति ही देश और समाज को दिशा दिखा भी सकती है और बदल भी सकती है। अनुभव से भरपूर राजनीति वर्तमान के प्रति न्याय भी कर सकती है और भविष्य के प्रति सचेत भी। दरअसल, लंबे अरसे बाद रायसिना हिल्स में कोई ऐसा व्यक्ति बैठा था जो सक्रिय राजनीति से परे रहते हुए भी पर्यवेक्षक की भांति हमेशा सचेत था। जिसे इसका अहसास था कि संवैधानिक अधिकार के दायरे में रहते हुए नैतिक राजनीतिक कर्तव्य को कैसे अंजाम तक पहुंचाया जाए। प्रणब की इस विवेकपूर्ण राजनीति की कमी भारतीय लोकतंत्र को खलेगी।

एक लोकतांत्रिक राजनीतिज्ञ होने के नाते ही उन्हें यह भी सालता रहा कि संसद बाधित हो रही है। एक बार एक पत्रकार ने उन्हें टोका - आप जिस किसी राज्य में जाते हैं केवल सदन सुचारू चलाने की बात करते हैं.. आखिर हम कब तक यही खबर बनाते रहें। प्रणब का जवाब चौंकाने वाला था। उन्होंने कहा- 'आइ वांट टू मेक इट एक कैंपेन।' यह दृढ़ता शायद इसीलिए थी क्योंकि वह उस राजनीति का ह्रास नहीं सहन कर पा रहे थे जिसमें उन्होंने अपना जीवन खपाया था।

संघ मुख्यालय पहुंचे थे प्रणब दा

प्रणब के लिए यह सबकुछ बहुत सहज था तो शायद इसलिए कि वह दलीय राजनीति से दूर एक कुशल राजनीतिज्ञ थे। यूं तो वह हर दूसरे दिन किसी न किसी अतिथि को नाश्ते या खाने पर बुलाते ही रहते थे, जिसमें कई बार चुनिंदा पत्रकार भी होते थे। एक बार उन्होंने आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को निमंत्रण दिया। बाहर काफी चर्चा थी। कांग्रेस का चेहरा लाल हुआ जा रहा था। बाद में वह नागपुर संघ मुख्यालय भी गए और उसके सामाजिक राष्ट्रीय कार्यों की प्रशंसा भी की।

उनका यह आचरण केवल घरेलू राजनीति तक सीमित नहीं रहा। मुद्दा थोड़ा विवादित है लेकिन जब उन्हें इजरायल जाने को कहा गया तो बताते हैैं कि उन्होंने फलस्तीन जाने की भी शर्त रख दी। वह संवेदनशीलता को समझते थे। सरकार ने उनकी बात मान भी ली। प्रणब शायद पहले राष्ट्राध्यक्ष होंगे जिन्होंने फलस्तीन में एक रात बिताई थी। वह संदेश स्थापित करने में सफल रहे थे कि भारत संबंध निभाने में पीछे नहीं हटे।


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