कांग्रेस के खुले और भाजपा के छिपे हमलों के बीच 'राजनीति के महाराज' साबित हुए ज्योतिरादित्य
उपचुनाव नतीजों का प्रत्यक्ष प्रभाव यह है कि भाजपा को अगले तीन साल सरकार चलाने के लिए विधानसभा में मजबूत बहुमत प्राप्त हो गया यद्यपि यह उपचुनाव मध्यप्रदेश की राजनीति में चारित्रिक बदलाव की दृष्टि से मील के पत्थर की तरह याद किया जाएगा।
सद्गुरु शरण, इंदौर। विधानसभा की 28 सीटों के उपचुनाव नतीजों का प्रत्यक्ष प्रभाव यह है कि भाजपा को अगले तीन साल सरकार चलाने के लिए विधानसभा में मजबूत बहुमत प्राप्त हो गया, यद्यपि यह उपचुनाव मध्यप्रदेश की राजनीति में चारित्रिक बदलाव की दृष्टि से मील के पत्थर की तरह याद किया जाएगा। यह अच्छी तरह साबित हो गया कि ज्योतिरादित्य सिंधिया फैक्टर राज्य की चुनावी राजनीति में निर्णायक है। 27 में 20 सिटिंग सीटें गंवाकर अब कांग्रेस से बेहतर इस बात को कौन समझ सकता है। अपने पिता स्व. माधवराव सिंधिया की ही तर्ज पर ज्योतिरादित्य ने कांग्रेस की शीर्ष कतार में अपनी आकर्षक और बेहद संभावनापूर्ण उपस्थिति दर्ज करा ली थी।
लोकसभा चुनाव-2019 में पराजय की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए जब राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ा तो ज्योतिरादित्य को ही कार्यकर्ता उनका स्वाभाविक विकल्प मान रहे थे, पर गांधी-नेहरू परिवार इसे स्वीकार नहीं कर पाया। यहीं से रिश्तों में खिंचाव शुरू हुआ जो अंतत: इस साल फरवरी में 22 विधायकों और सैकड़ों प्रभावशाली नेताओं की कांग्रेस से बगावत के रूप में सामने आ गया। इसकी परिणति कमल नाथ सरकार के पतन और शिवराज सिंह सरकार की वापसी के रूप में हुई।
सिंधिया के लिए उपचुनाव का दौर खासा कठिन रहा
यह उपचुनाव मुख्यत: उसी बगावत का नतीजा है जिसमें भाजपा की अपनी उम्मीद से बेहतर कामयाबी ने शिवराज सिंह और सिंधिया की जोड़ी के चमत्कार पर मुहर लगा दी। ज्योतिरादित्य के लिए उपचुनाव का दौर खासा कठिन रहा। एक तरफ कांग्रेस के हर स्तर के नेता उन्हें और उनके परिवार को 'गद्दार' की संज्ञा देकर अपमानित कर रहे थे तो दूसरी ओर ग्वालियर-चंबल अंचल के कई दिग्गज भाजपा नेता उन्हें पार्टी में स्वीकार नहीं कर पा रहे थे और उपचुनाव में ही भितरघात की पिन चुभोकर उनकी हवा निकालने पर आमादा थे। ज्योतिरादित्य संयत रहे जिसका परिणाम सामने है।
उपचुनाव नतीजों में कांग्रेस के लिए गहरे संकेत
यह स्पष्ट है कि भितरघात से भाजपा ने कुछ सीटें गंवा दीं, यद्यपि कांग्रेस की अधिकतर सिटिंग सीटों पर भाजपा का झंडा फहराकर ज्योतिरादित्य ने अपना प्रभाव साबित कर दिया। बेशक अब आम भाजपा कार्यकर्ताओं में उनकी स्वीकार्यता बढ़ेगी। उपचुनाव नतीजों में कांग्रेस के लिए गहरे संकेत छिपे हुए हैं। मध्यप्रदेश में अब उसके लिए कोई राह आसान नहीं होगी। पार्टी इस बात को समझ रही थी, इसलिए उसने पूरी ताकत झोंककर सारे जतन कर डाले, पर जनादेश उसके विपरीत रहा। दरअसल, इस चुनाव में कांग्रेस के पास अपने तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी की पिछले विधानसभा चुनाव की इस घोषणा का कोई स्पष्टीकरण नहीं था कि कांग्रेस की सरकार बनने के 10 मिनट के भीतर किसानों के सारे कर्ज माफ कर दिए जाएंगे। माना जाता है कि विधानसभा चुनाव-2018 में कांग्रेस की सफलता इसी घोषणा पर सवार थी यद्यपि वही घोषणा इस बार पार्टी के गले का फंदा साबित हुई।
शिवराज सिंह के सामने भी चुनौती कम नहीं
इसके अलावा ज्योतिरादित्य के भाजपा में चले जाने से रिक्त स्थान कांग्रेस के लिए गहरा कुआं साबित हुआ जिसमें पार्टी भरभराकर ढह गई। नेतृत्व का बासीपन कई राज्यों की तरह मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस का गंभीर संकट है। दिग्विजय सिंह और कमलनाथ जैसे बुजुर्ग नेता भविष्य में भी भाजपा की आक्रामकता के सामने टिक पाएंगे, इसके कतई आसार नहीं हैं। जाहिर है, उपचुनाव नतीजों ने कांग्रेस को विचार-मंथन के लिए कई मुद्दे सौंप दिए हैं। वैसे चुनौती शिवराज सिंह के सामने भी कम नहीं है। करीब तीन साल बाद मध्यप्रदेश का विधानसभा चुनाव होगा और उसके करीब सालभर बाद लोकसभा चुनाव। यह स्पष्ट है कि उनके 15 साल के मुख्यमंत्रित्वकाल की एंटी इनकंबेसी खत्म हो चुकी है, पर उन्हें अगले तीन साल अपनी शासनशैली से इसका पुनर्जन्म टालना होगा। शिवराज सिंह अनुभवी और जमीनी नेता हैं। देखने की बात यह भी है कि अब वह ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ किस तरह निभाते हैं।