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देश में नागरिक अधिकारों के संरक्षण के प्रति सदैव संवेदनशील रही है हमारी न्यायपालिका

भारत के मुख्य न्यायाधीश ने अपने एक हालिया व्याख्यान में कहा है कि भारत की संवैधानिक गणराज्यीय व्यवस्था में संविधान और विधि के शासन द्वारा ही व्यापक सामाजिक परिवर्तन लाया जा सकता है। यह बहुत ही गंभीर बात है और हम सभी को इस पर अवश्य विचार करना चाहिए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 04 Aug 2022 02:46 PM (IST)Updated: Thu, 04 Aug 2022 02:46 PM (IST)
संविधान विधिक क्षेत्र तक ही सीमित रह गया। फाइल

सीबीपी श्रीवास्तव। देश के मुख्य न्यायाधीश ने बीते दिनों जो वक्तव्य दिया है, उस संदर्भ में हमें संविधान को व्यापक दायरे में समझने का प्रयास करना चाहिए। हमारा संविधान लिखित होने के कारण इसका दस्तावेज वाला स्वरूप हमारे सामने तो है, लेकिन संविधान वास्तव में एक जीवंत प्रणाली है और यह नागरिकों के अधिकारों और राज्य की शक्तियों के बीच संतुलन स्थापित करती है। यदि राज्य अपनी शक्तियों के प्रयोग में स्वेच्छाचारी हो जाए तो तानाशाही प्रवृत्तियां पनपती हैं। इसी प्रकार, यदि नागरिक अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने लग जाएं तो अराजकता का माहौल बन जाएगा। इसी कारण संविधान में दोनों की शक्तियों के प्रयोग की सीमा तय कर दी गई है। शक्तियों का ऐसा संतुलन व्यक्तिगत और सामाजिक हितों में सामंजस्य लाता है। यही सामंजस्य देश में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में लोगों की सहभागिता सुनिश्चित करेगा।

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यहां यह उल्लेख समीचीन होगा कि वर्ष 2015 में नीति आयोग की स्थापना के साथ ही देश में विभिन्न स्तरों पर बदलाव की आधारशिला रखी गई। भारत के एकात्मक परिसंघ (सुदृढ़ और अपेक्षाकृत अधिक शक्तिशाली केंद्र के साथ राज्यों की उपस्थिति) में सहकारिता और सहभागिता के गुणों के समावेश के साथ-साथ विकास के लिए राज्यों के बीच प्रतिस्पर्धी मनोवृत्तियों का विकास परिवर्तन का एक अहम पहलू है। इसी प्रकार, मूलत: कृषि आधारित आर्थिक प्रणाली को औद्योगीकृत करने की दिशा में प्रयास किए जा रहे हैं जिनसे आर्थिक बदलाव संभव होगा। लेकिन आर्थिक विकास तब तक धारणीय नहीं होता जब तक सामाजिक स्तर पर स्थायित्व और सुरक्षा नहीं हो और समाज सही मायने में विकसित नहीं हो। यह लक्ष्य सामाजिक बदलाव से ही प्राप्त हो सकता है। भारत के संविधान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आर्थिक दृष्टिकोण अपनाया गया है और इसी संदर्भ में राज्य नीतियां बनाने और उन्हें लागू करने के लिए उत्तरदायी है। ये सभी कार्य जन भागीदारी के बिना संभव नहीं होंगे और कदाचित भारत में अब तक अपेक्षित प्रतिफल प्राप्त नहीं होने का यह एक बड़ा कारण रहा है।

आम जन तक संविधान की पहुंच 

संविधान के प्रविधानों से यदि आम लोग अवगत होंगे तभी उनमें सामाजिक विकास और आर्थिक संवृद्धि दोनों के प्रति संवेदनशीलता पनपेगी और वे बदलाव की प्रक्रिया में अपनी सहभागिता सुनिश्चित कर पाएंगे। इस पृष्ठभूमि में संविधान में शामिल उन बातों पर ध्यान आकर्षित करना आवश्यक है जो लोगों में न केवल उनके महत्व की समझ विकसित करेगा, बल्कि सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया से हमें जोड़ने में सहायक भी होगा। संविधान भारत में सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना कर राजनीतिक लोकतंत्र सुनिश्चित करता है। इसका अर्थ यह है कि यह हमें बताता है कि देश में उपलब्ध सभी भौतिक संसाधन समुदाय के स्वामित्व में हैं और राज्य उनका न्यासी है। उसे केवल जनकल्याण के लिए ही संसाधनों का उपयोग करने की शक्ति है। लोगों में यह जानकारी राज्य को जवाबदेह बनाने वाला एक प्रभावी उपकरण साबित होगी। संविधान की उद्देशिका में भारत को राजनीतिक रूप से लोकतांत्रिक, आर्थिक रूप से समाजवादी, सामाजिक रूप से समतावादी और सांस्कृतिक रूप से पंथ निरपेक्ष राष्ट्र के रूप में स्थापित किया गया है। अधिकारों का संरक्षण लोकतंत्र का मूल आधार है और यह संरक्षण लोगों में उनके प्रति जागरूकता के बिना संभव नहीं है।

आज जब विषमताएं बढ़ रही हैं, समाज के वंचित वर्गो के मानव अधिकारों के उल्लंघन की सबसे अधिक आशंका है। इसी प्रकार सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक या सांस्कृतिक रूप से कमजोर वर्गो को विकास की मुख्यधारा में लाने की समस्या भी हमारे सामने बनी हुई है। यह कार्य केवल सरकारी कार्यक्रमों से या नीतियों और कानूनों के निर्माण से संभव नहीं होगा। जब तक आम लोगों में विधि के प्रति जागरूकता नहीं होगी, उनका क्रियान्वयन प्रभावी नहीं होगा। भारत की समाजवादी आर्थिक प्रणाली के बारे में लोगों को जानकारी देना अत्यंत आवश्यक है, खास कर जब हमारी अर्थव्यवस्था बाजार की अर्थव्यवस्था से जुड़ गई है। सामान्यत: हमें ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसी अर्थव्यवस्था में पूंजीवादी गुणों का वर्चस्व होता है और पूंजीपतियों का बोलबाला बना रहता है। लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत संवैधानिक रूप से समाजवादी रहा है, भले पिछले दो दशकों में उसमें उदारवाद के गुणों को जोड़ा गया है।

मूल संविधान में अनुच्छेद 39 में समाजवादी सिद्धांत शामिल थे जिनके आधार पर 42वें संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा उद्देशिका में समाजवादी शब्द जोड़ा गया था। इस संबंध में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि भारत का समाजवादी चरित्र संविधान के बुनियादी ढांचे का भाग है। इसलिए आज के माहौल में भी आवश्यकता के अनुरूप संसाधनों के वितरण के लिए राज्य ही उत्तरदायी है। यही कारण है कि अधिकांश सरकारी नीतियां और कार्यक्रम आम लोगों के कल्याण को ध्यान में रख कर बनाए जाते हैं। बाजार की चुनौतियों का सामना करने के लिए कदम भी उठाए जा रहे हैं। अगर सरकारों ने ऐसा नहीं किया तो उनके कदम असंवैधानिक सिद्ध हो जाएंगे और न्यायपालिका ऐसे कार्यो पर रोक लगाएगी। ये सभी सूचनाएं आम लोगों को न केवल सरकारी कार्यक्रमों में उनकी सहभागिता सुनिश्चित कराएगी, बल्कि इसका बड़ा लाभ यह होगा कि जन आकांक्षाओं में वृद्धि और उनके सापेक्ष प्रशासनिक जटिलताओं के बढ़ने के प्रति सरकार व जनता दोनों ही संवेदनशील होंगे और बदलाव की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी।

सांस्कृतिक अखंडता : सामाजिक बदलाव का एक अहम पहलू सांस्कृतिक अखंडता बनाए रखना है। भारत एक बहु धार्मिक, बहु भाषी और बहु सांस्कृतिक राष्ट्र है। इतनी विविधताओं के बावजूद एकीकरण की भावना विद्यमान रही है, लेकिन अब यह समय आ गया है कि विविधता में एकता से कहीं अधिक विविधता में सामंजस्य पर बल देना आवश्यक हो गया है। संविधान में भारत को जिस रूप में एक पंथनिरपेक्ष राष्ट्र बनाया गया है वह इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कारगर है, लेकिन यह तब तक संभव नहीं होगा जब तक आम लोगों में इसकी समझ नहीं होगी। भारत का संविधान नरम पंथ निरपेक्षता का पक्षधर है, अर्थात यहां धर्म और भाषा दोनों के लिए ही सहिष्णुता को आधार बनाया गया है। धर्म की स्वतंत्रता के अधिकारों, जिनका उल्लेख संविधान में है, उसकी विशेषता यह है कि ऐसे अधिकार सभी व्यक्तियों को समान रूप से दिए गए हैं। राज्य हमारे धार्मिक सिद्धांतों में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता लेकिन यदि कोई भी धार्मिक या नृजातीय समुदाय सांप्रदायिकता को प्रोत्साहित करने का प्रयास करेगा तो राज्य उसे रोकने के लिए धर्म संबंधी गतिविधियों का नियमन करेगा। संविधान की इन्हीं विशेषताओं से आम लोगों को अवगत कराना अनिवार्य है जो हमें यह समझाएगा कि सांस्कृतिक पहचान बनाए रखते हुए हम समुदायों के बीच कैसे सामंजस्य ला सकते हैं। यह समझ एक ओर सामाजिक सौहार्द को प्रोत्साहित करेगी वही दूसरी ओर संघर्षो को न्यूनतम स्तर पर लाकर सामाजिक पूंजी के आधार को बड़ा भी करेगी।

एक और तथ्य उल्लेखनीय है कि बदलती परिस्थितियों में जब उभरने वाले नए अधिकारों, जैसे निजता, स्वास्थ्य, धारणीय विकास, प्रजनक स्वायत्तता आदि की पहचान न्यायपालिका द्वारा की जाती है तब हमें इसका वास्तविक लाभ नहीं मिल पाता। हालांकि न्यायपालिका आरंभ से ही हमारे अधिकारों के संरक्षण के प्रति संवेदनशील रही है और उसने यह सदैव सुनिश्चित किया है कि किसी भी परिस्थिति में राज्य अपनी शक्तियों के प्रयोग के दौरान स्वेच्छाचारी नहीं हो, लेकिन संविधान का समाजीकरण नहीं होने के कारण हमें इसके महत्व की समझ नहीं हो पाती।

सामाजिक पूंजी के क्षेत्र में समाज में कार्य करने वाली संस्थाओं और वहां रहने वाले लोगों के बीच के ऐसे अंर्तसबंधों को दर्शाने वाली स्थिति है जो परस्पर विश्वास उत्पन्न करती है और सामाजिक स्तर पर संघर्षो को न्यूनतम करती है। इस रूप में सामाजिक पूंजी समाज में स्थायित्व लाने वाला सबसे बड़ा कारक है। संविधान और विधि की समझ इस दिशा में महत्वपूर्ण होगी। यह सामाजिक स्तर पर नैतिक मानकों को ऊंचा करने में भी कारगर होगी। सामाजिक स्थायित्व का बड़ा लाभ राष्ट्र को इस रूप में मिलता है कि विकास व्यय का सुरक्षा की ओर दिशा परिवर्तन नहीं होता व निवेश की दर में वृद्धि होती है जो आर्थिक वृद्धि के लिए जरूरी है।

यही सामाजिक पूंजी जनसंख्या को सक्रिय मानव संसाधन और मानव पूंजी में परिवर्तित करने वाला प्रमुख कारक है। इसे इस रूप में भी समझा जा सकता है कि सामाजिक स्थायित्व ऐसे माहौल का निर्माण करता है जिसमें लोगों तक बुनियादी सेवाएं सरलता और प्रभावशीलता के साथ उपलब्ध होने की संभावनाएं बढ़ती हैं। ये बुनियादी सेवाएं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य आदि मानव संसाधन के आधार स्तंभ हैं जो जनसंख्या में गुणवत्ता का समावेश करते हैं। कानूनों की समझ किसी भी व्यक्ति को इसे समझने में मदद करती है और जाहिर है इससे ऐसे सभी कार्यक्रमों में उसकी सहभागिता सुनिश्चित करने में भी सहायक होती है।

भारत के संविधान में सामाजिक न्याय उपलब्ध कराने के लिए राज्य उत्तरदायी है। आम लोगों में संविधान की वास्तविक समझ नहीं होने से अधिकांशत: यह लगता है कि संविधान आदर्शो से भरा कोई दस्तावेज है और न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता जैसे तत्व केवल सैद्धांतिक हैं। उल्लेखनीय है कि संविधान में न्याय के तीन स्वरूप शामिल हैं, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक। इनमें निश्चित रूप से सामाजिक न्याय सवरेपरि है, क्योंकि ऐसा न्याय ही पूरी व्यवस्था को सौहार्द्रपूर्ण बनाने में कारगर है। यह सामाजिक स्तर पर विभेद (किसी व्यक्ति के साथ पूर्वाग्रह-युक्त व्यवहार) को रोकता है और समावेशी विकास को सामर्थ प्रदान करता है। अधिकांश अवसरों पर न्याय के प्रति हमारा दृष्टिकोण केवल याचना वाला रहा है, क्योंकि हमें इसके स्वरूपों की जानकारी नहीं है और हम न्यायपालिका के पहलकारी प्रयासों के प्रति सचेत नहीं हो पाते।

[अध्यक्ष, सेंटर फार अप्लायड रिसर्च इन गवर्नेस, दिल्ली]


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