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दावे भले ही कुछ हों, लेकिन हकीकत है कुछ और, इस लड़ाई में मात खा गए हम

दुनिया में 34 देश ऐसे हैं जिनके पास अपनी आबादी को खिलाने के लिए पर्याप्त भोजन नहीं है। वहीं संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में हर नौ में से एक आदमी रोज भूखे पेट सोने को मजबूर है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Tue, 16 Oct 2018 11:12 AM (IST)Updated: Tue, 16 Oct 2018 11:12 AM (IST)
दावे भले ही कुछ हों, लेकिन हकीकत है कुछ और, इस लड़ाई में मात खा गए हम

सुधीर कुमार। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन की एक मुहिम के तहत प्रतिवर्ष 16 अक्टूबर को विश्व खाद्य दिवस मनाया जाता है। इसका उद्देश्य दुनिया भर से भुखमरी, कुपोषण तथा गरीबी के समूल खात्मे के प्रयास को मजबूती देना व खाद्य सुरक्षा के प्रति लोगों में जागरुकता का प्रचार-प्रसार करना है। खाद्य एवं कृषि संगठन की ‘फसल पूर्वानुमान एवं खाद्य स्थिति’ रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में 34 देश ऐसे हैं जिनके पास अपनी आबादी को खिलाने के लिए पर्याप्त भोजन नहीं है। वहीं संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में हर नौ में से एक आदमी रोज भूखे पेट सोने को मजबूर है। ऐसे वैश्विक हालात में इस दिवस की प्रासंगिकता बढ़ जाती है।1दिनोंदिन बढ़ती जनसंख्या, घटते कृषिगत उत्पादन तथा अन्न की निर्मम बर्बादी की वजह से दुनियाभर में भूख जनित समस्याएं तेजी से बढ़ी हैं।

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देश के विकास में बाधक हैं गरीबी और भुखमरी 

भारत के संदर्भ में देखें तो गरीबी और भुखमरी जैसी बुनियादी समस्याएं देश के विकास में बाधक साबित हुई हैं। हालांकि इसे विडंबना ही कहेंगे कि आजादी के सात दशक बाद भी देश में करोड़ों लोगों को सही से दो वक्त की रोटी मयस्सर नहीं हो पाती। ये हमारे समाज के वे अंतिम लोग हैं जिन्हें मुख्यधारा में लाए बिना समावेशी विकास के लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता। चूंकि देश में नागरिकों को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत ‘जीवन की सुरक्षा का अधिकार’ प्राप्त है, इसलिए भुखमरी से होने वाली मौतों को रोकना तथा प्रभावित जनसंख्या को विकास की मुख्यधारा में शामिल करना सरकार व समाज के लिए एक बड़ी जिम्मेदारी के साथ चुनौती भी है।

‘जीरो हंगर’ अभियान की शुरुआत

गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2030 तक समस्त विश्व को भुखमरी से मुक्त करने के लिए ‘जीरो हंगर’ अभियान की शुरुआत की है। वहीं नरेंद्र मोदी सरकार ने वर्ष 2022 तक देश को भुखमरी व कुपोषण से निजात दिलाने का आह्वान किया है। हालांकि भुखमरी से जंग के मामले में अभी भी भारत बहुत पीछे है। वैश्विक भुखमरी सूचकांक-2018 के मुताबिक 119 देशों की सूची में 103वें पायदान पर हैं, जबकि 2016 में हम इससे छह पायदान ऊपर 97वें नंबर पर थे। रिपोर्ट से यह बात सामने आई कि बाल कुपोषण और बाल मृत्यु दर में कमी लाकर नेपाल जैसा संसाधनविहीन देश भारत से मजबूत स्थिति में पहुंच गया, जबकि शिशुओं में भयावह कुपोषण, बच्चों के विकास में रुकावट और बाल मृत्यु दर जैसे कुल चार पैमानों पर मापे गए सूचकांक की रिपोर्ट में भारत को 31.4 स्कोर के साथ ‘गंभीर’ वर्ग में रखा गया।

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक मौजूदा समय में भारत में विश्व की भूखी आबादी का करीब एक तिहाई हिस्सा निवास करता है और देश में करीब 39 फीसद बच्चे पर्याप्त पोषण से वंचित हैं। वैसे कुपोषण तथा भुखमरी से निपटने के लिए समय-समय पर हमारी सरकारों ने अनेक योजनाओं को कागज पर उतारा जरूर है, लेकिन उचित क्रियान्वयन के अभाव में वे अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब नहीं हो पाई हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मध्याह्न् भोजन योजना (1995), अंत्योदय अन्न योजना (2000), राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (2005), जननी सुरक्षा योजना (2005), इंदिरा गांधी मातृत्व सहयोग योजना (2010), राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (2013) और उत्तर प्रदेश सरकार की शबरी संकल्प अभियान और मातृ वंदन योजना भी इसी दिशा में एक प्रयास है।

योजनाओं का उचित कार्यान्वयन नहीं

देश में योजनाएं खूब बनती हैं, लेकिन उनका उचित कार्यान्वयन नहीं हो पाता। वैसे भूखमरी की समस्या अनेक देशों में है, लेकिन कुछ देशों ने इस दिशा में व्यापक सफलता प्राप्त की है, जिस कारण हंगर इंडेक्स में उनकी स्थिति में वर्ष दर वर्ष सुधार आया है। भारत में ‘खाद्य सुरक्षा विधेयक’ और ‘भोजन के अधिकार’ को लेकर गाहे-बगाहे चर्चा होती रहती है। लेकिन ये चर्चाएं धरातल पर उतर नहीं पाई हैं और दुखद यह है कि इस मुद्दे पर केवल राजनीति ही हुई है। इसे विडंबना ही कहेंगे कि देश में आज भी करोड़ों लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं तो दूसरी तरफ अनेक बड़े आयोजनों में प्रतिदिन बहुत सा भोजन व्यर्थ हो जाता है। भोजन की बर्बादी के प्रति हम थोड़े भी सचेत नहीं हैं। हमारा छोटा-सा प्रयास कई भूखे लोगों के पेट की आग बुझा सकता है। पर किसी को इसकी फिक्र ही नहीं है। मौसम की मार ने पहले ही कृषिगत उत्पादन की रीढ़ तोड़ दी है। अब जो उत्पादन खेती से प्राप्त भी होगा, उसकी गुणवत्ता स्थानीय स्तर पर गोदाम की व्यवस्था न होने से प्रभावित होगी और इस तरह उसकी मात्र घटती जाएगी।

किसानों की हालत

इससे किसानों को अपने उत्पादों का उचित मूल्य नहीं मिल पाएगा। एक ओर देश में अनाज उत्पादन में कमी आई है तो दूसरी तरफ भोजन की बर्बादी आम हो चली है। भोजन की बर्बादी करते समय हम यह भूल जाते हैं कि इसे कितनी मेहनत से तैयार किया गया है। सोचिए कितना दुखद है कि घर में बना हुआ खाना सड़ जाता है, लेकिन सड़ने से पूर्व उसे किसी जरूरतमंद को देने की जरूरत को हम गंभीरता से नहीं लेते! ग्रामीण क्षेत्रों में पशुपालन करने वाले लोग अपने घर के व्यर्थ भोजन को पालतु पशुओं को खिला देते हैं, लेकिन शहरों में अक्सर इसे कूड़ेदान में फेक दिया जाता है। हर घर में एक योजना तैयार कर भोजन की बर्बादी को रोका जा सकता है।

‘रोटी बैंक’ नाम से एक अच्छी शुरुआत

गरीबों तथा वंचितों को भोजन उपलब्ध कराने के लिए देश के कुछ शहरों में ‘रोटी बैंक’ नाम से एक अच्छी शुरुआत की गई है। इस बैंक की खासियत यह है कि यहां अमीरों के घरों में प्रतिदिन का बचा खाना लाया जाता है और फिर उसे जरूरतमंदों के बीच वितरित किया जाता है। इस तरह सक्षम आदमी न सिर्फ अपना पेट भर लेता है, बल्कि थोड़ी सूझबूझ दिखाकर वह भूखे लोगों का भी पालनहार बन जाता है। बहरहाल साझा प्रयास किए बिना गरीबी तथा भुखमरी से निपटना संभव नहीं है। भूखा इंसान सरकार से रोटी की अपेक्षा करता है, लेकिन निराशा मिलने पर वह पथ-विमुख हो जाता है। सरकार का यह कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों के पेट भरे, इसे सुनिश्चित कराए। हालांकि यह काम अकेले सरकार नहीं कर सकती, लिहाजा सभी नागरिकों को अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।

(लेखक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय अध्‍येता हैं)

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