अफगान की नाजुक होती जा रही समस्या का समाधान निकालने में जुटा भारत
दिल्ली की बैठक इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी के बाद दक्षिण और मध्य एशिया में शांति की जिम्मेदारी यहां की क्षेत्रीय शक्तियों पर है। यही कारण है कि इस बहुराष्ट्रीय बैठक में क्षेत्रीय शक्तियों ने हिस्सा लिया।
प्रमोद भार्गव। अफगानिस्तान पर तालिबानी कब्जे के बाद से भारत ‘देखो व प्रतीक्षा करो’ की नीति पर चल रहा था। परंतु अब अफगान की नाजुक होती जा रही समस्या का समाधान निकालने में जुट गया है। इसी संदर्भ में दिल्ली में मध्य-एशियाई पड़ोसी देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक आयोजित की गई। हालांकि आमंत्रण के बावजूद कुटिल चीन और आतंकियों की शरणगाह बना पाकिस्तान बैठक में शामिल नहीं हुए। अफगानिस्तान के प्रति भारत पहले से ही संवेदनशील रहा है। यही कारण है कि भारत उसके सरंचनात्मक विकास से लेकर उसे 75 हजार टन गेहूं दो साल के भीतर दे चुका है और हाल ही में 50 हजार टन गेहूं भेजने की घोषणा की है।
किंतु कल्याण के ये प्रयास एकतरफा नहीं हैं। संकल्प की शर्तो में मध्य एशियाई देशों के शीर्ष सुरक्षा सलाहकारों ने अफगानिस्तान को वैश्विक आतंकवाद की पनाहगाह नहीं बनने देने का वचन लेने के साथ समावेशी सरकार के गठन की भी अपील की है। इस परिप्रेक्ष्य में अफगान पर भारत की मेजबानी वाली इस सुरक्षा वार्ता के अंत में इसमें शामिल सभी देशों के अधिकारियों ने एक संयुक्त घोषणापत्र जारी किया, जिसमें अफगान की धरती से आतंकी गतिविधियों, प्रशिक्षण और वित्त पोषण नहीं करने देने की शर्ते शामिल हैं।
इस क्षेत्रीय सुरक्षा संवाद में युद्ध व आतंक से छलनी हुए इस देश में निरंतर खराब हो रही सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और मानवीय हालातों पर न केवल चिंता जताई गई, बल्कि तत्काल मानवीय सहायता उपलब्ध कराने की जरूरत को भी रेखांकित किया गया। यह मदद भेदरहित होगी और इसे मददगार देश सीधे वितरित करेंगे। इसे अफगान समाज के सभी वर्गो और धार्मिक अल्पसंख्यकों को समता और जरूरत के आधार पर दिया जाएगा। यह मदद संयुक्त राष्ट्र जैसी किसी वैश्विक संस्था के माध्यम से नहीं दी जाएगी, क्योंकि अफगान व अन्य वैश्विक संकटों ने जता दिया है कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का कोई विशेष योगदान संकट की घड़ी में दिखाई नहीं दिया है। इसीलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इन संगठनों में सुधार की अपील के साथ यह भी कह चुके हैं कि यदि इन्होंने अपनी भूमिका का निर्वाह ठीक से नहीं किया तो ये अप्रासंगिक होते चले जाएंगे।
इन देशों के सुरक्षा सलाहकारों ने अफगान की संप्रभुता, अखंडता, एकता को बरकरार रखने और आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने के वचन को दोहराया। इस परिप्रेक्ष्य में याद रहे कि तालिबान प्रवक्ता अनेक मर्तबा दोहरा चुके हैं कि कश्मीर भारत का आंतरिक मामला है, इसलिए भारत ही इस समस्या का हल करेगा। साथ ही अफगानिस्तान में चरमपंथ, अलगाववाद और मादक पदार्थो की तस्करी पर पाबंदी पर सामूहिक सहमति जताई है। नशे पर लगाम के प्रति भारत की चिंता स्वाभाविक है। क्योंकि पाकिस्तान और नेपाल के रास्ते अफगान से भारत में मादक पदार्थो का अवैध कारोबार धड़ल्ले से किया जा रहा है। नतीजतन भारत में नशा एक राष्ट्रीय समस्या बन चुका है।
दूसरी ओर तालिबानी कब्जे के बाद से ही भारत की चिंता रही है कि कहीं अफगानिस्तान पाकिस्तान की तरह आतंकी कुचक्रों का गढ़ न बन जाए। हालांकि अभी तक ऐसा होते दिख नहीं रहा है, अलबत्ता अफगान में ही हो रहे आतंकी हमलों से वहां रोज नागरिक मारे जा रहे हैं और लाखों नागरिक जीवन की सुरक्षा की तलाश में पलायन कर रहे हैं। इन हमलों का एक कारण तालिबान के भीतरी गुटों में सत्ता संघर्ष भी है। इस लिहाज से इस घोषणापत्र में सभी देशों ने आतंकवाद से लड़ने में जो सहमति जताई है, वह अहम है। अफगानिस्तान में पेश आ रही चुनौतियों का सामूहिक रूप से सामना करना इसलिए भी जरूरी है ताकि इस क्षेत्र में शांति कायम रहे।
[वरिष्ठ पत्रकार]