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सात साल में छह राज्यों में कांग्रेस से छिनी विपक्ष की हैसियत, 2014 के बाद लगातार गिरा ग्राफ

2014 के लोकसभा चुनाव के बाद बीते सात साल में कांग्रेस के लगातार गिरते ग्राफ का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आधे दर्जन राज्यों में वह विपक्ष का ओहदा भी गंवा बैठी है। पुड्डुचेरी में पांच साल की सत्ता के बाद विपक्ष लायक सीटें भी नहीं।

By Nitin AroraEdited By: Published: Wed, 05 May 2021 08:14 PM (IST)Updated: Wed, 05 May 2021 08:14 PM (IST)
सात साल में छह राज्यों में कांग्रेस से छिनी विपक्ष की हैसियत, 2014 के बाद लगातार गिरा ग्राफ
सात साल में छह राज्यों में कांग्रेस से छिनी विपक्ष की हैसियत, 2014 के बाद लगातार गिरा ग्राफ

नई दिल्ली, संजय मिश्र। राज्यों में क्षेत्रीय दलों के मुकाबले अपनी राजनीतिक जमीन खोती जा रही कांग्रेस बीते सात साल में इतनी बेदम हो गई है कि आधे दर्जन राज्यों में विपक्ष की हैसियत भी नहीं बची। मौजूदा पांच राज्यों के चुनाव में दो और सूबों में कांग्रेस का विपक्षी ओहदा छिन गया है। पुड्डुचेरी में दो महीने पहले तक सत्ता में रही कांग्रेस इस चुनाव में तीसरे नंबर पर खिसक कर विपक्ष का दर्जा हासिल करने की रेस भी बाहर हो गई है। जबकि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के खाते में महज एक सीट आयी है ।

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पुड्डुचेरी में पांच साल तक सत्ता में रही कांग्रेस मौजूदा चुनाव में सूबे की 30 विधानसभा सीटों में केवल दो सीटों पर ही जीत दर्ज कर पाई है। जबकि कांग्रेस की सहयोगी पार्टी द्रमुक के खाते में छह सीटें आयी हैं। स्थानीय पार्टी एनआर कांग्रेस के साथ गठबंधन करने की वजह से भाजपा को भी छह सीटें आई हैं और वहां पहली बार राजग की सरकार बनी है। विधानसभा के इस समीकरण को देखते हुए कांग्रेस की बजाय अब उसकी सहयोगी पार्टी द्रमुक को पुड्डुचेरी में विपक्ष का आधिकारिक दर्जा मिलेगा। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की जगह भाजपा अब मुख्य विपक्षी दल बन गई है।

2014 के लोकसभा चुनाव के बाद बीते सात साल में कांग्रेस के लगातार गिरते ग्राफ का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आधे दर्जन राज्यों में वह विपक्ष का ओहदा भी गंवा बैठी है। दक्षिण के सबसे बड़े राज्य आंध्र प्रदेश का विभाजन करने के बाद 2014 के चुनाव में पार्टी का सफाया हो गया। 10 साल तक लगातार आंध्र की सत्ता में रही कांग्रेस इस चुनाव में ऐसी धराशायी हुई कि विपक्ष का ओहदा तक मिलना दूर बीते दो चुनाव से सूबे में उसका खाता तक नहीं खुला है। तेलंगाना में वह बमुश्किल विपक्ष की जगह अभी तक बचाने में कामयाब रही है। त्रिपुरा में 2018 के चुनाव में भाजपा के अचानक उभार में जहां वामपंथी किला ध्वस्त हुआ तो इसका खामियाजा कांग्रेस को भी हुआ क्योंकि उसकी जगह माकपा अब सूबे में आधिकारिक विपक्ष है।

इससे पूर्व ओडिशा में भी 2019 के चुनाव में ही कांग्रेस को तीसरे नंबर पर धकेल सूबे में भाजपा ने विपक्ष की जगह पर कब्जा कर लिया था। वहीं लोकसभा के बाद 2019 में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस चौथे नंबर की पार्टी बनकर विपक्ष का दर्जा हासिल करने की रेस से बाहर हो गई थी। हालांकि भाजपा से गठबंधन खत्म कर शिवसेना ने राकांपा और कांग्रेस के साथ मिलकर महाविकास अघाड़ी गठबंधन की सरकार बना ली और सत्ता का हिस्सेदार बनने के चलते कांग्रेस इस बड़े सूबे में भी यह दर्जा छीन जाने के अपमान से बच गई। हालांकि सियासी हकीकत यही है कि मौजूदा विधानसभा में कांग्रेस के 44 तो उसके गठबंधन साझीदार राकांपा के 54 विधायक हैं।

पिछली विधानसभा में कांग्रेस को राकांपा से केवल एक सीट ज्यादा रहने के कारण बमुश्किल विपक्ष का दर्जा मिल पाया था। तमिलनाडु जैसे बड़े सूबे में वह दशकों से द्रमुक की जूनियर पार्टनर है तो झारखंड में भी पार्टी झामुमो की कनिष्ठ सहयोगी की भूमिका में ही है। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े सूबों में तो बीते करीब तीन दशक से कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल की हैसियत में नहीं है और स्थानीय क्षेत्रीय पार्टियों के सहारे अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता बनाए रखने की मशक्कत से जूझती आ रही है।


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