संघवाद की आड़ में केंद्र पर बेजा निशाना, राजनीतिक संकीर्णता से ग्रस्त राज्य सरकारें
महाराष्ट्र में ड्रग मामले पर जिस प्रकार से राजनीतिक उठापटक जारी है उससे यह स्पष्ट है कि राज्य की सत्ता पर काबिज राजनीतिक ताकतें अपने निहित स्वार्थ के लिए केंद्र के संविधान प्रदत्त अधिकारों को लगातार संदेहास्पद बनाने का प्रयास कर रही हैं। धीरे-धीरे यह चलन बढ़ता जा रहा है।
उमेश चतुर्वेदी। महाराष्ट्र के ड्रग मामले पर जारी राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के बीच कुछ सवाल ऐसे हैं, जिन पर विचार होना चाहिए। ड्रग और नशाखोरी के खिलाफ पूरी दुनिया का जनमत साथ उठ खड़ा हुआ है। अव्वल तो ऐसे महत्वपूर्ण मसले पर राजनीतिक एकता होनी चाहिए, लेकिन नवाब मलिक ने जिस तरह एक अधिकारी के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है, उसका संदेश साफ है।
संदेश यह है कि नवाब मलिक ने इस बहाने सीधे-सीधे केंद्रीय सत्ता और व्यवस्था के संवैधानिक अधिकारों को संदेह के घेरे में लाने की कोशिश की है। हालांकि महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने जिस तरह नवाब मलिक के खिलाफ तथ्यों के साथ हमला बोला है, उससे मलिक की ही राजनीति पर संदेह का धुंध बढ़ा है।
हाल के दिनों में विरोधी विचार शासित पार्टी वाले राज्यों में केंद्रीय एजेंसियों पर हमले लगातार बढ़ रहे हैं। महाराष्ट्र में नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के अधिकारी समीर वानखेड़े पर राज्य की राजनीति द्वारा हमला तो हो ही रहा है, उनकी राह में स्थानीय प्रशासन के जरिये भी रोड़े अटकाने की कोशिश की गई। करीब सालभर पहले अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत की जांच करने पहुंची बिहार पुलिस के अधिकारी को कोरोना के नाम पर परेशान किया गया था। वानखेड़े का मामला इसी की अगली कड़ी है।
महाराष्ट्र का मामला पहला नहीं है। इसके पहले फरवरी 2019 में कोलकाता के तत्कालीन पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार की शारदा चिट फंड घोटाले की जांच करने पहुंची सीबीआइ की टीम को बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की शह पर बंधक बना लिया गया था। दिलचस्प यह है कि दोनों ही मामलों में संघवाद की दुहाई दी गई थी। वैसे संघवाद की दुहाई हर बार तब दी जाती है, जब केंद्र और राज्य में विपरीत विचारधारा वाली पार्टियों की सरकारें होती हैं। विशेषकर केंद्रीय एजेंसियां जब भी राज्यों में कार्रवाई करती हैं, हर बार संघवाद और लोकतंत्र की दुहाई दी जाती है। राज्य की सत्ता पर काबिज पार्टी केंद्रीय एजेंसियों और सरकार की कार्रवाई को संघवाद का खुला उल्लंघन बताते नहीं थकती है। दूर की बात कौन कहे, कोरोना महामारी जैसे शुरू हुई थी, वैसे ही केंद्र सरकार ने आपदा प्रबंधन कानून 2005 और 19वीं सदी के महामारी अधिनियम के तहत पूरे देश का प्रशासन तकरीबन अपने हाथ में ले लिया था, तब भी इसे संघवाद पर हमला बताया गया था।
तब विशेषकर गैर भाजपा शासित पार्टियों की सरकारों ने केंद्र के कदम की आलोचना की थी। कुछ जानकार मानते हैं कि इंटरनेट मीडिया के जरिये केंद्र सरकार के तत्कालीन महाबंदी के फैसले की जो आलोचना की गई, कई जगह महाबंदी को नाकाम बनाने की कोशिश हुई, उसकी एक वजह केंद्र सरकार का यह कदम भी रहा।
बहरहाल जिस तरह विपरीत विचार वाली पार्टी शासित राज्यों की सरकारें और प्रशासन केंद्रीय प्रशासन व सरकार की खुलेआम अवहेलना कर रहे हैं, क्या इन कदमों से मजबूत भारतीय राष्ट्र राज्य की अवधारणा को चोट पहुंचेगी या नहीं? भारतीय राजनीति के समझदार लोगों को लगता है कि जिस तरह हाल के दिनों में संघवाद के नाम पर केंद्रीय एजेंसियों पर सवाल उठाए जा रहे हैं या फिर केंद्रीय अधिकारियों को तंग किया जा रहा है, वह आने वाले दिनों में चलन बन सकता है। और जैसे ही यह चलन बनेगा, भारतीय एकता की अवधारणा की नींव कमजोर होनी शुरू हो जाएगी। सरदार पटेल ने अपनी सूझबूझ और दृढ़ निष्ठा से खंड-खंड में बंटे जिस राष्ट्र को एक बनाया है, संघवाद के नाम पर केंद्रीय एजेंसियों की नाफरमानी व उनकी राह में रोड़े अटकाना या धमकाना एक तरह से राष्ट्रीय एकता की अवधारणा को कमजोर करता है।
डा. राममानोहर लोहिया मानते थे कि भारत की सैकड़ों साल की गुलामी की वजह केंद्रीय स्तर पर मजबूत सत्ता का नहीं होना रहा। ताकतवर केंद्रीय सत्ता नहीं होने की वजह से हमलावर निरंतर हमले करते रहे, लेकिन उनका पूर्ण एकता के साथ प्रतिकार नहीं हुआ। आधुनिक राष्ट्र की अवधारणा को हम चाहे जितना पश्चिमी मानें, लेकिन इसने आधुनिक और एकात्म राष्ट्रवाद की अवधारणा को मजबूत बनाने में योगदान दिया है। इसी अवधारणा के चलते ही आज हर राष्ट्र अपनी सीमाओं के भीतर अपनी एकता के तार-तार होने की कल्पना भी नहीं कर सकता।
भारतीय संविधान का प्रारूप प्रस्तुत करते हुए संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डा. आंबेडकर ने भारतीय संविधान को एकात्मक और संघात्मक दोनों बताया था। प्रारूप समिति ने संविधान की जो प्रस्तावना तैयार की थी, उसमें शुरू में फेडरेशन यानी संघ का जिक्र नहीं था। उसे बाद में जोड़ा गया। दरअसल संविधान में संघवाद को जोड़ने के लिए कांग्रेस ने 1946 में हुए मेरठ अधिवेशन में प्रस्ताव पारित किया था। तब कांग्रेस के अध्यक्ष मशहूर समाजवादी नेता जेबी कृपलानी थे। इस प्रस्ताव में प्रस्तावित संविधान को रेखांकित करते हुए कहा गया था कि यह राज्यों को दी जाने वाली अधिकतम स्वायत्तता के साथ संघीय चरित्र का होना चाहिए। कांग्रेस के इसी प्रस्ताव के बाद संविधान में ‘संघ’ शब्द जोड़ा गया, जिस पर संविधान सभा में व्यापक चर्चा हुई थी। तब जवाहरलाल नेहरू ने जो कहा था, उसे आज के चलन के संदर्भ में याद किया जाना चाहिए। पंडित नेहरू ने कहा था, ‘यह देश के हितों के लिए हानिकारक होगा कि कमजोर केंद्रीय प्राधिकरण प्रदान किया जाए। जो शांति सुनिश्चित करने, सामान्य चिंता के महत्वपूर्ण मामलों का समन्वय करने और अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में पूरे देश के लिए प्रभावी ढंग से बोलने में असमर्थ हो।’ इन शब्दों के जरिये नेहरू ने एक तरह से देश को कमजोर संघ की अवधारणा को लेकर आगाह किया था। इन तथ्यों को आज समग्रता में समझने और उसी अनुरूप कार्यप्रणाली को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।
संविधान के संघवाद के बहाने केंद्रीय शक्तियों को जिस तरह चुनौती दी जा रही है, उसकी आशंका संविधान सभा में बिहार से सदस्य ब्रजेश्वर प्रसाद ने जताई थी। नौ नवंबर 1946 को हुई चर्चा में ब्रजेश्वर प्रसाद ने जो कहा था, उसकी ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा था, ‘राजनीति में संघवाद रूढ़िवादी ताकत है। यह व्यापक आर्थिक आंदोलनों के उदय और विकास की बाधा है। इससे प्रांतों के बीच आर्थिक असमानता कायम रहती है। जिससे प्रांतीय प्रतिद्वंद्विता और कड़वाहट बढ़ती है। राष्ट्रीय विकास की विशाल योजनाएं तत्काल लागू होने की प्रतीक्षा कर रही हैं। जो लोग संघवाद, क्षेत्रवाद, प्रांतीय स्वायत्तता और भाषाई प्रांतों की बात करते हैं, उन्हें समझ नहीं है कि वे बीते युग की भाषा बोल रहे हैं। ये अवधारणाएं 19वीं शताब्दी की जरूरतों के लिए उपयुक्त थीं, जब उद्योगवाद अपने प्रारंभिक चरण में था। राजनीतिक संगठन के ये उपकरण विस्तृत क्षेत्र में फैले कृषि समुदायों की आवश्यकताओं के अनुरूप हैं। लेकिन आज तस्वीर बदल गई है। हमारे पास अधिक आबादी वाले क्षेत्रों से कम आबादी वाले इलाकों में लोगों के प्रवासन की समस्याओं को नियंत्रित करने के लिए सभी शक्तियों के साथ निहित केंद्र होना चाहिए।’
ब्रजेश्वर प्रसाद ने यहां तक कहा था कि कोई भी विदेशी शक्ति भारत में एक मजबूत केंद्र सरकार नहीं चाहती है। ब्रजेश्वर प्रसाद का भाषण बहुत लंबा है। लेकिन जिस तरह उन्होंने तब आशंकाएं जताई थीं, उनकी ओर आज की विपरीत धारा वाली सरकारों के कदम जिस तरह जाते दिख रहे हैं, उनसे प्रसाद की दूरदर्शिता की ही झलक मिलती है।
भारतीय संविधान के संघात्मक ढांचे का गांधीवादियों ने यह कहते हुए विरोध किया था कि भारतीय संविधान में विकेंद्रीकरण की जो अवधारणा है, वह गांधीजी के विचारों के अनुरूप नहीं है। इसका विरोध महावीर त्यागी और एनजी रंगा ने किया था। एनजी रंगा ने तब कहा था, ‘कांग्रेसी के रूप में हम विकेंद्रीकरण के लिए प्रतिबद्ध हैं। लेकिन यदि हम दूसरी ओर केंद्रीकरण चाहते हैं, तो मैं इस सदन को चेतावनी देना चाहता हूं कि इससे केवल अधिनायकवाद को बढ़ावा मिलेगा, लोकतंत्र को नहीं।’
एनजी रंगा सशक्त केंद्र के खिलाफ थे और इसके खिलाफ उन्होंने तर्क भी दिए थे। लेकिन उनका मानना था कि आधुनिक औद्योगिक विकास और आर्थिक परिस्थितियों के चलते केंद्र का न केवल मजबूत होना तय है, बल्कि वह भविष्य में अधिक से अधिक मजबूत होगा। महावीर त्यागी ने तो यहां तक कहा था कि अगर सशक्त केंद्र नहीं चाहिए तो विकेंद्रीकरण गांधी जी की सोच के मुताबिक हो, जिसमें गांव संविधान की इकाई होना चाहिए। लेकिन संविधान में ऐसा नहीं हो सका। गांव और वहां के निवासियों को लेकर न तो अंबेडकर की राय अच्छी थी, न ही नेहरू की।
बहरहाल व्यापक बहस के बाद भारतीय संविधान ने राज्यों के ऐसे संघ की परिकल्पना की, जिसमें केंद्र नेहरू की सोच के मुताबिक मजबूत भी हो, वह सोवियत राज्यों की तरह स्वायत्त न हो। इसके अनुरूप व्यवस्था कमोबेश ऊंच-नीच के साथ अब तक आगे बढ़ती रही है। लेकिन अब इसे चोट पहुंचाने की तीव्र कोशिश की जा रही है। वैसे यहां एक तथ्य पर गौर किया जाना चाहिए। आखिर क्या वजह है कि आम नागरिक का भरोसा केंद्रीय एजेंसियों में ज्यादा है?
आखिर क्या वजह है कि हर पीड़ित अपने मामले की जांच सीबीआइ से ही कराना चाहता है, अपने इलाके की सड़क केंद्रीय लोक निर्माण विभाग से कराना चाहता है, वह केंद्रीय एजेंसियों के मार्फत हर सुविधा हासिल करना चाहता है, वह अपने राज्य विशेष के प्रशासन और तंत्र पर भरोसा क्यों नहीं कर पाता? इन सवालों के जवाब में भारतीय राष्ट्र की एकता और मजबूत केंद्रीय अधिकरण की बात छिपी हुई है। नागरिकों का यह भरोसा ही है कि केंद्रीय अधिकरण विपरीत विचार वाली सरकारों वाले राज्यों के स्थानीय अधिकरणों की अवहेलना के बावजूद मजबूत होते जा रहे है। इसका यह भी मतलब नहीं है कि केंद्रीय अधिकरणों पर की जा रही चोट को अनदेखा किया जाए। बल्कि ब्रजेश्वर प्रसाद और जवाहरलाल नेहरू को याद किया जाना चाहिए। मजबूत और एक भारत के लिए यही समीचीन होगा।
[वरिष्ठ पत्रकार]