Delhi Regional Security Dialogue: भारत को बहुपक्षीय अफगान नीति अपनाने की जरूरत
अफगानिस्तान में शांति कायम करने को लेकर इसी सप्ताह आयोजित ‘दिल्ली डायलाग’ में चीन और पाकिस्तान का शामिल नहीं होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं। अफगानिस्तान के संदर्भ में क्षेत्रीय सुरक्षा कायम करने के उद्देश्य से दिल्ली में बुधवार को आयोजित बैठक में आठ देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार। फाइल
डा. राजन झा। अफगानिस्तान में शांति प्रक्रिया की बहाली के संदर्भ में भारत द्वारा आयोजित एक महत्वपूर्ण बैठक में चीन और पाकिस्तान का शामिल न होना इन देशों की संबंधित प्रतिबद्धता पर सवाल खड़े करता है। अफगानिस्तान मुद्दे पर इस तरह की बैठक का आयोजन पहले ईरान में हुआ था, जिसका बहिष्कार पाकिस्तान ने मात्र इस वजह से किया था कि उसमें भारत भी शामिल हुआ था। यानी पाकिस्तान को अफगान शांति प्रक्रिया में भारत की भूमिका से इस कदर एतराज है कि वह पूरी शांति प्रक्रिया का ही बहिष्कार करता है।
यानी पाकिस्तान की चिंता अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने के बजाय वहां अपने प्रभाव को बढ़ाने की है। जहां तक चीन का सवाल है तो वह अफगानिस्तान में पाकिस्तान के साथ मिलकर न केवल भारत के सामरिक और आर्थिक हितों को नुकसान पहुंचाने का प्रयास कर रहा, बल्कि उसकी नजर अफगानिस्तान के खनिज संसाधनों पर भी है। इन परिस्थितियों के मद्देनजर भारत को बहुपक्षीय अफगान नीति अपनाने की जरूरत है। इस बहुपक्षीय नीति में ईरान की भूमिका सबसे प्रमुख है।
अफगानिस्तान से अमेरिकी नेतृत्व वाली अंतरराष्ट्रीय ताकतों की वापसी और तालिबान के सत्ता में वापस आने से मध्य एशिया में भारत का रुख कमजोर हुआ है। तालिबान और पाकिस्तान के बीच संबंधों की निकटता को देखते हुए भारत को इस क्षेत्र में अपनी नीतियों पर फिर से विचार करने और सभी संभावित तरीकों की तलाश करने की आवश्यकता है। इस संदर्भ में, ईरान भारतीय विदेश नीति में पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण कारक बन गया है, क्योंकि अफगानिस्तान के साथ उसके संबंध उसकी भू-राजनीतिक स्थितियों से नियंत्रित होते हैं।
चीन और पाकिस्तान के विपरीत ईरान के अफगानिस्तान के साथ बहुत करीबी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संबंध हैं। पाकिस्तान के साथ भारत के शत्रुतापूर्ण संबंध ईरान को भारत के लिए अधिक महत्वपूर्ण बना देता है, क्योंकि यह अफगानिस्तान के लिए एकमात्र भूमि मार्ग उपलब्ध कराता है। मध्य एशिया में चीन की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं और पाकिस्तान के साथ इसकी निकटता के कारण भारत के लिए अफगानिस्तान में एक विश्वसनीय और दीर्घकालिक साझेदार की आवश्यकता है। वर्तमान भू-राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए ईरान वह भागीदार हो सकता है। हालांकि हाल के वर्षो में ईरान और भारत कई कारणों से अफगानिस्तान में अपने सहयोग की क्षमता का दोहन नहीं कर पाए हैं। इसका एक कारण यह है कि भारतीय नीति निर्माताओं द्वारा इस क्षेत्र में अमेरिकी संदर्भ से परे देखने की अनिच्छा और संबंधों को बहुपक्षीय बनाने का प्रयास नहीं करना है। यथार्थवादी सिद्धांत के अनुसार सामरिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए विरोधी की ताकत और कमजोरियों की समझ आवश्यक है।
ईरान की क्षेत्रीय भूमिका पश्चिम और मध्य एशिया में भारत की महत्वाकांक्षाओं की पूरक साबित हो सकती है। हालांकि पिछले साल में ईरान के साथ सहयोग काफी हद तक भारत की ऊर्जा जरूरतों, अफगान क्षेत्र तक पहुंच, मध्य एशिया और पाकिस्तान के साथ उसकी स्थायी दुश्मनी पर आधारित था। मध्य एशिया के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति और प्रभाव को पुनर्जीवित करने की भारतीय इच्छा ईरान की सहायता के बिना फलीभूत नहीं हो सकती। हालांकि पिछले कुछ वर्षो में भारत द्वारा अपनाई गई नीतियों के कारण ईरान के साथ संबंध पूर्व जैसे नहीं रहे। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की गलत नीतियों के बावजूद ईरान के लिए पिछले कुछ वर्षो में अमेरिका के साथ भारत के पक्ष को नजरअंदाज करना बहुत मुश्किल होगा।
भारत, इजराइल और अमेरिका के बीच बढ़ते संबंध के कारण ईरान पहले से ही असहज है। इजराइलियों ने भी ईरान के खिलाफ अपनी शत्रुता बनाए रखी है। कोई भी देश जिसके इजराइल के साथ घनिष्ठ संबंध हैं, उसे ईरानियों द्वारा संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों और उसपर भारत के रुख ने पहले ही संबंधों में कड़वाहट पैदा कर दी है। दोनों देशों के बीच विभिन्न तेल और निर्माण सौदे अब लगभग बंद हो गए हैं और भारत हाल के दिनों में प्रतिष्ठित चाबहार बंदरगाह परियोजना को भी खोता हुआ दिख रहा है।
भारत को अब तालिबान और चीन के प्रति अपने दृष्टिकोण पर फिर से विचार करना होगा, क्योंकि अफगानिस्तान में तालिबान सत्ता में है और ईरान व चीन दोनों को लगता है कि इसके साथ सहयोग ही इस क्षेत्र में स्थायी शांति और स्थिरता बनाने का एकमात्र तरीका है। भारतीय नीति निर्माताओं को अब ईरान की मदद से अफगानिस्तान में अपनी खोई हुई जमीन को वापस पाने के लिए लीक से हटकर सोचना होगा। वर्तमान में अफगानिस्तान और भारत के संबंधों में ‘धर्म’ एक नए कारक के रूप में उभर कर सामने आया है। पूरी दुनिया में अतिवादी शक्तियां हावी हो रही हैं और अफगानिस्तान और भारत भी इससे अछूता नहीं है।
अफगानिस्तान की सत्ता में तालिबान की वापसी के बाद से वहां से हिंदुओं व सिखों का पलायन और भारत में नागरिकता संशोधन अधिनियम जैसे कानून ने दोनों देशों के संबधों को एक सांप्रदायिक आयाम दिया है। इन परिस्थितियों में भारत द्वारा इस्लामिक मुल्क अफगानिस्तान में अपने हितों को सुरक्षित रखना गंभीर चुनौती है। ऐसे में पाकिस्तान इस सांप्रदायिक कोण को भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर सकता है। वैसे यथार्थवादी दृष्टिकोण से भी भारत और ईरान को अफगानिस्तान पर सहयोग करने में दीर्घकालिक लाभ है। लिहाजा भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि ईरान की रणनीति और भारतीय प्रयासों में ‘दीर्घकालिक’ का स्वरूप क्या होता है।
[असिस्टेंट प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय]